Amba#60:कल और आएंगे…मुझसे बेहतर,पर तुम रहना अम्बा
अम्बा सिनेमा के छः दशक के बहाने
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
‘कल और आएंगे नग्मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले’- साहिर की पंक्तियाँ अमिताभ का साथ और मुकेश की आवाज़ पाकर कितनी सच्चाइयों की साथी बनी। आज अम्बा सिनेमा, घंटाघर, नजदीक।शक्ति नगर चौराहा, दिल्ली के तिरेसठ साल हुए। आपको लग सकता है कि इसमें क्या खास बात है कि एक सिनेमा हॉल के छः दशक पूरे होने पर कोई बात हो रही है? दरअसल ऊपरी तौर पर इसमें ऐसी कोई विशेष बात नजर नहीं आती।
पर सिनेमा के कद्रदानों ध्यान दीजिए यह सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल है और पूरे आन बान शान से दिल्ली के भीड़, भागमभाग में दिल्ली विश्वविद्यालय के हृदय स्थल नार्थ कैम्पस के पास साठे पर पाठा बना खड़ा है। साहिर की जिन पंक्तियों पर हम फिदा हो रहे है वह इन सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल्स पर ओढ़ा दीजिए तो जो तस्वीर बनेगी उसकी बुनियाद में कई सिंगल स्क्री वाले चित्र मंदिरों की कब्र पर बनी दिखेगी- कल और आएंगे…मुझसे बेहतर कहने वाले…और ऐसा हो भी क्यों न! नब्बे बीतते बीतते बाजार और सामाजिक संबंधों की व्याख्याएँ बदली ही हैं।
कुछ बरस पहले सीएसडीएस, सराय की पत्रिका मीडिया नगर में दिल्ली खासकर पुरानी दिल्ली के इलाकों के कभी गुलज़ार रहे रॉबिन, नावल्टी सरीखे सिंगल सिनेमा हॉल्स पर एक रिपोर्ट थी। बाद में हमने आकाश, बत्रा, अल्पना, राधू पैलेस, सम्राट, कला मंदिर को भी इतिहास बनते देखा। असल में, अम्बा हो कि लिबर्टी हो या फिर मुम्बई का मराठा मंदिर और ऐसे देश भर के तमाम सिनेमा हॉल्स जो चार शो विथ सिंगल सिनेमा और सिंगल स्क्रीन हमारे मनोरंजन के साथी रहे हैं। यह दिल्ली महानगर या अन्य महानगरों की कहानी नही है।
जब हमारे पास मनोरंजन के विकल्प सीमित थे, यही सिनेमा घर परिवारों के घर से बाहर निकलने , सोशलाइज होने, चालू फैशन और जीवन में कुछ अदाओं में दीक्षित होने के स्कूल भी थे। मुझे याद आता है कि सिंगल स्क्रीन हॉल्स के ऊपर युवा फिल्मकार तरुण डुडेजा ( Tarun Dudeja ) एक प्रोजेक्ट बड़ा पर्दा नाम से कर रहे थे। उस प्रोजेक्ट में मीडिया नगर के तब संपादक रहे ‘राइडर राकेश ( Rider Rakesh राकेश कुमार सिंह) और मीडिया विश्लेषक प्रो सुधीश पचौरी के अतिरिक्त दर्शकों तक के अनुभव दर्ज थे। अगर बुद्धिजीवी अपने हिसाब से यानी रुचियों में तब्दीली, बाजार और पूंजी के खेल के संदर्भ में इस सिनेमा संस्कृति के ढहने की कथा कह रहे थे तो दर्शकों का एक बड़ा धड़ा अपने सिनेमा हॉल में जिए गए क्षणों की कहानी कह रहा था। कई बार भावुकता की हद तक।
अम्बा अब साठा हो गया है। मैं रामजस कॉलेज हॉस्टल के दिनों और उसके पूर्ववर्ती हॉस्टलर्स की सिनेमाई कारनामों का किस्सा लिखूं तो पूरी किताब बन जाए पर कुछेक का जिक्र जरूरी है। अम्बा में हमारे हॉस्टल के आईडी जमा करके रात की फ़िल्म देखने वाले सुबह के शो तक टिकट का बकाया देकर आईडी ले जाने की कथा भी बताते हैं। अम्बा में शुक्रवार का नाईट शो नार्थ कैम्पस के सभी बॉयज हॉस्टल्स के विद्यार्थियों के सामूहिक मिलन और केयी बार बाहरियों से हाथापाई का गवाह भी रहा है।
अम्बा को हॉस्टलर्स अल्पना और बत्रा से ऊपर तरजीह देते थे क्योंकि तब भी उसका प्रोजेक्शन और साउंड डॉल्बी एटमॉस था। यह एक अतिरिक्त आकर्षण था। मल्टी प्लेक्स के अजनबियत वाले माहौल में अम्बा में सिटिमार फिलिम देखाई का अलग सुख था और दुपहरी के बाद फ़िल्म देखकर बाहर निकलते आंखों को बाहर की तेज धूप में सेट करने का अलग ही माहौल होता था। इन सबसे अलग और खास बात अम्बा के होने का यह रहा है कि हम छोटे शहरों कस्बों से आए लोगों के लिए अम्बा पराए शहर में अपने सिनेमा हॉल होने का सुख रहा। एक याद और आ रही है जब डीडी मेट्रो ने कुछ समय के लिए नाइन गोल्ड के हवाले से शार्ट फिल्मों का एक छोटा दौर शुरू किया था वहाँ कभी मिलिंद सोमन का ‘जन्नत टॉकीज’ देखा, जिसमें नायक मिलिंद ने ही केवल अपना बचपन नहीं जिया था बल्कि उसमें मैं था मेरे जैसों का बचपन और टीनएज था।
हालिया दिनों में सिंगल स्क्रीन के चाहने वालों को सिंगल स्क्रीन थियेटर के प्रोजेक्शन ऑपरेटर की कहानी वाली शार्ट फ़िल्म ‘कथाकार’ भी देखनी चाहिए। हम कहाँ-कहाँ से छीज रहे हैं वह केवल कविताएं, लेख, कहानियां, उपन्यास नहीं बताएंगे कुछ हिस्सा यहां से भी आएगा। बहरहाल,मल्टीस्क्रीन की तमाम चकाचौंध के बावजूद उनसे वह जाती राब्ता नहीं हो पाता जो इन सिंगल स्क्रीन के चित्र मंदिरों से रहा है। अम्बा लिबर्टी जैसे हॉल्स का इस बाजार के दबाव और विपरीत समय के बावजूद खड़ा रहना हमारे केशौर्य सपने के टिके रहने की तरह है।
वरना जिन सिनेमा हॉल्स में हम सपरिवार जाते रहे उन सैकड़ों कस्बों में कभी सीना ताने मुस्कुराते “शान से चल रहा है, महान संगीतमय, पारिवारिक चित्रनुमा” टैग लगाए जनता, श्याम, कृष्ना, चंद्रा, दरबार, हीरा, लक्ष्मी जैसे अनगिनत सिंगल।स्क्रीन बढ़ते बाजार, टूटते छीजते संबंधों की तरह ढहा दिए गए और उनकी जगह जिसने आकार लिया है उसको हमारी पीढ़ी नहीं जानती। अम्बा साठे पर पाठा होने की बधाई लो। तुम्हारे चाहने वालो की ओर से तुम्हारे मालिकों से यह अपील रहेगी कि तुम्हें मॉलकल्चर, मल्टी स्क्रीन वाला रोग न लगे और तुम लक्ष्मी टॉकीज तो कभी न बनना, जिसकी याद को बहुत टूटकर विमलचंद्र पांडेय Vimal Chandra Pandey ने लिखा , सुना उसकी भी कब्र खुद गयी है।
20 का 30 और 50 का 100 वाली आवाजें बेशक ना लौटे ना ही हॉउसफुल लिखा बोर्ड निराश कर देगा, न वह बोर्ड दिखेगा पर वह हमारी पीढ़ी के जेहन में गहरे धंसा रहेगा, सालता भी रहेगा पर उसका एक सुख है जिसे हम जीते रहेंगे। हालांकि आज अम्बा के शानदार 63 साल वाले बधाई का मौका है पर विमल भाई की कविता “लक्ष्मी टॉकीज की याद में’ पढ़ना ही चाहिए क्योंकि हमने बदलती रुचियों और परिवेश में क्या खोया है उसकी सामाजिक- सांस्कृतिक पड़ताल भी तो जरूरी है –
मॉल बनाइए, हाइवे बनाइए, फ्लाइओवर बनाइए
लेकिन यह मत कहिए कि हम इनके बिना मरने वाले थे अगले ही दिन
सिर्फ जिंदा रहने की बात करें जो हममें से ज्यादातर लोगों के लिए सबसे बड़ा सवाल है
तो हमारे लिए रोटियों के साथ अगर कोई और चीज चाहिए थी
वह था थोड़ा सा प्यार,
थोड़ा सा नमक और
लक्ष्मी टॉकीज
जीते रहो अम्बा साठे पर पाठे बने रहो। शतक से आगे जाओ
05 अप्रैल, 1963 से अब तक …आगे तक !!
‘कल बेशक और आ जाएं नग्मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, तुमसे बेहतर दिखने वाले हमसे बेहतर देखने वाले’- पर तुम रहना अम्बा, तुम्हारे जैसों का रहना इसलिए भी जरूरी है कि हमारी एक पूरी नस्ल के जिए बचपन और किशोरावस्था के साक्षी तुम ही हो.
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