निवारक निरोध कानूनों का दुरुपयोग क्यों होता है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि देश के निवारक निरोध कानून (preventive detention laws) औपनिवेशिक विरासत रखते हैं और राज्य को मनमाना अधिकार प्रदान करते हैं। उसने यह भी कहा कि वे संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये भी गंभीर खतरा उत्पन्न करते हैं ।
- न्यायालय के इस अवलोकन के अलावा, ऐसे कई दृष्टांत मौजूद हैं जहाँ इन कानूनों का दुरुपयोग देखा गया है और न्यायालयों के समक्ष मामले पेश किये गए हैं।
- इस संदर्भ में, निवारक निरोध, इससे संबंधित मुद्दों और आगे की राह पर विचार करना प्रासंगिक होगा।
निवारक निरोध क्या है?
- निवारक निरोध (Preventive Detention) का अर्थ है किसी व्यक्ति को निरुद्ध करना ताकि उस व्यक्ति को किसी भी संभावित अपराध के कृत्य से रोका जा सके।
- दूसरे शब्दों में, निवारक निरोध प्रशासन द्वारा इस संदेह के आधार पर की गई कार्रवाई है कि संबंधित व्यक्ति द्वारा कुछ ऐसे गलत कृत्य किये जा सकते हैं जो राज्य के लिये प्रतिकूल या हानिकर (prejudicial) होंगे।
निवारक निरोध से संबंधित प्रावधान
- दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 151 में उपबंध किया गया है कि एक पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के किसी आदेश के बिना और बिना किसी वारंट के भी किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकता है, यदि उसे ऐसा प्रतीत होता है कि गिरफ़्तार किये बिना ऐसे किसी अपराध को रोका नहीं जा सकता है।
- अनुच्छेद 22 इस तरह के निरोधों से संबंधित संवैधानिक सुरक्षा उपायों का प्रावधान करता है।
किसी व्यक्ति को किस आधार पर निरुद्ध किया जा सकता है?
- निवारक निरोध के आधार हैं:
- राज्य की सुरक्षा,
- लोक व्यवस्था,
- विदेश मामले, और
- सामुदायिक सेवाएँ।
निरुद्ध किये गए व्यक्ति के लिये कौन-से सुरक्षा उपाय उपलब्ध हैं?
- प्रथमतया, किसी व्यक्ति को केवल 3 माह की अवधि के लिये निवारक अभिरक्षा (preventive custody) में लिया जा सकता है।
- निरोध की अवधि 3 माह से आगे केवल सलाहकार बोर्ड (Advisory Board) के अनुमोदन पर बढ़ाई जा सकती है।
- निरुद्ध किये गए व्यक्ति को यह जानने का अधिकार है कि उसे किस आधार पर निरुद्ध किया गया है।
- हालाँकि राज्य सार्वजनिक हित में यदि आवश्यक हो तो आधार बताने से इनकार भी कर सकता है।
- निरुद्ध किये गए व्यक्ति को अपने निरोध को चुनौती देने का अवसर प्रदान किया जाता है।
निवारक निरोध के पक्ष में तर्क
- राष्ट्रीय सुरक्षा का संरक्षण: राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये निवारक निरोध कानून आवश्यक हैं, जो प्राधिकारियों को ऐसे व्यक्तियों को निरुद्ध करने की अनुमति देते हैं जो सार्वजनिक सुरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा या समाज की शांति एवं व्यवस्था के लिये खतरा उत्पन्न कर सकते हैं।
- अपराधों को रोकने के लिये पूर्व-सक्रिय उपाय: निवारक निरोध का उपयोग अपराधों के कारित होने से पहले ही उन्हें रोकने के लिये एक पूर्व-सक्रिय उपाय के रूप में किया जा सकता है। इसका उपयोग प्रायः उन व्यक्तियों को निरुद्ध करने के लिये किया जाता है जो आपराधिक गतिविधियों में संलग्न होने की संभावना रखते हैं या जो पूर्व में अपराधों में संलिप्त रहे हैं।
- न्यायपालिका द्वारा समर्थित: न्यायपालिका ने ऐसे कानूनों की वैधता को बरकरार रखा है क्योंकि वे सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने में अत्यंत उपयोगी रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के लिये दिशा-निर्देश भी निर्धारित किये हैं कि निवारक निरोध का उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाए और व्यक्तियों को मनमाने ढंग से निरुद्ध नहीं किया जाए।
- अहमद नूर मोहम्मद भट्टी बनाम गुजरात राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने CrPC की धारा 151 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा और कहा कि पुलिस अधिकारी द्वारा इस शक्ति का दुरुपयोग इस प्रावधान को मनमाना और अनुचित सिद्ध नहीं कर सकता।
- मरियप्पन बनाम ज़िला कलेक्टर एवं अन्य मामले में यह निर्णय दिया गया कि निरोध और इससे संबंधित कानूनों का उद्देश्य किसी को दंडित करना नहीं है, बल्कि कुछ अपराधों को घटित होने से रोकना है।
- संवैधानिक सुरक्षा उपाय: भारत का संविधान निवारक निरोध कानूनों के दुरुपयोग को रोकने के लिये कई सुरक्षा उपाय प्रदान करता है।
- प्रथमतया, किसी व्यक्ति को केवल 3 माह की अवधि के लिये निवारक अभिरक्षा (preventive custody) में लिया जा सकता है।
- निरोध की अवधि 3 माह से आगे केवल सलाहकार बोर्ड (Advisory Board) के अनुमोदन पर बढ़ाई जा सकती है।
- निरुद्ध किये गए व्यक्ति को यह जानने का अधिकार है कि उसे किस आधार पर निरुद्ध किया गया है।
- हालाँकि राज्य सार्वजनिक हित में यदि आवश्यक हो तो आधार बताने से इनकार भी कर सकता है।
- निरुद्ध किये गए व्यक्ति को अपने निरोध को चुनौती देने का अवसर प्रदान किया जाता है।
- प्रथमतया, किसी व्यक्ति को केवल 3 माह की अवधि के लिये निवारक अभिरक्षा (preventive custody) में लिया जा सकता है।
- संभावित अपराधियों के लिये निवारक: निरुद्ध किये जाने का भय उन व्यक्तियों के लिये एक निवारक (deterrent) के रूप में कार्य कर सकता है जो आपराधिक गतिविधियों में संलग्न होने की कोई मंशा या योजना रखते हैं।
निवारक निरोध कानूनों से संबद्ध मुद्दे
- तुच्छ कारणों से उपयोग: ऐसे कई दृष्टांत सामने आए हैं जहाँ अधिकारियों को तुच्छ या मामूली विषयों में इन कानूनों का उपयोग करते हुए पाया गया है। सबसे अजीब दृष्टांतों में से एक यह रहा कि घटिया मिर्च पाउडर बेचने के लिये एक व्यक्ति को ‘गुंडे’ के रूप में निरुद्ध किया गया।
- उपयुक्त परिभाषा का अभाव: विभिन्न राज्य कानूनों में, यह स्पष्ट नहीं है कि किसी व्यक्ति को किस आधार पर निरुद्ध किया जाना चाहिये। इस प्रकार, कानून का दायरा शायद ही कभी अभ्यासिक अपराधियों (habitual offenders) तक सीमित रहता है।
- औपनिवेशिक विरासत: कुछ विशेषज्ञों का तर्क है कि आधुनिक समय में ऐसे कानूनों की आवश्यकता नहीं है जो ब्रिटिश राज के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों के विरुद्ध उपयोग किये गए थे।
- मूल अधिकारों के विरुद्ध: ऐसे कानून मूल अधिकारों के स्पष्ट विरोध में हैं। किसी व्यक्ति को इस अनिश्चित आधार पर निरुद्ध किया जाना कि वह कोई अपराध कर सकता है, अनुच्छेद 19 एवं 21 तहत प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- दुरुपयोग: कई बार ऐसा देखा गया है कि इन कानूनों का प्रतिशोधात्मक तरीके से दुरुपयोग किया गया है। कई मामलों में सत्तारूढ़ दलों को विपक्ष के सदस्यों को दंडित करने के लिये इन कानूनों का दुरुपयोग करते हुए देखा गया है। COVID काल में विभिन्न राज्य सरकारों ने कई विपक्षी नेताओं और पत्रकारों पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) का उपयोग किया।
- सुरक्षा उपायों की अपर्याप्तता: अनुच्छेद 22 व्यक्ति को अपनी गिरफ़्तारी के आधारों के बारे में सूचित किये जाने का अधिकार देता है, लेकिन वही अनुच्छेद सार्वजनिक हित में आधारों का खुलासा न करने का भी प्रावधान करता है। इस प्रकार, निरोध के आधारों का खुलासा करने से इनकार करना सही अर्थों में सुरक्षा उपाय नहीं है।
आगे की राह
- कानूनों में एकरूपता लाना: निवारक निरोध के विषय में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कानून प्रचलित हैं क्योंकि विधि एवं व्यवस्था राज्य सूची का विषय है। इस स्थिति में केंद्र सरकार को राज्यों से आग्रह करना चाहिये कि वे किसी न किसी मॉडल अधिनियम के माध्यम से इनमें एकरूपता लाएँ।
- अस्पष्टता को दूर करना: अस्पष्टता या संदिग्धता को दूर करने के लिये कानूनों के अधीन अपराधों की प्रकृति को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये। उदाहरण के लिये, तमिलनाडु का ‘गुंडा अधिनियम’ अवैध शराब विक्रेता, झुग्गी हड़पने वाले, वन में अवैध गतिविधि करने वाले अपराधियों से लेकर वीडियो पाइरेट, यौन अपराधी और साइबर अपराधियों तक सबको ही दायरे में शामिल कर लेता है।
- कानूनों का प्रभावी उपयोग सुनिश्चित करना: अधिकारियों को इस तरह से प्रशिक्षित किया जाना चाहिये कि वे यथोचित रूप से कार्य करें और कानूनों का दुरुपयोग न करें। इसके साथ ही, कानूनों का उपयोग सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के वृहत उद्देश्य को पूरा करने के लिये किया जाना चाहिये और तुच्छ मुद्दों के लिये या प्रतिशोध के लिये इनका इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। मरियप्पन बनाम ज़िला कलेक्टर एवं अन्य मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यही निर्देशित किया गया है।
- वैकल्पिक तरीकों का उपयोग करना: अधिकारियों को कुछ वैकल्पिक उपाय खोजने चाहिये और यदि संभव हो तो किसी व्यक्ति को निरुद्ध करने से बचने का प्रयास करना चाहिये। किसी अपराध के लिये दंड का उस अपराध की गंभीरता से प्रत्यक्ष एवं समानुपाती संबंध होना चाहिये। उदाहरण के लिये, किसी मामूली अपराध के लिये एक मामूली जुर्माना पर्याप्त हो सकता है, जबकि किसी गंभीर या हिंसक अपराध के लिये सुदीर्घ कारावास का दंड उपयुक्त होगा।
- दुर्लभतम मामलों में उपयोग: किसी भी परिदृश्य में कानूनों का मनमाने ढंग से उपयोग नहीं किया जाना चाहिये। अधिकारियों द्वारा अपराध की गंभीरता का निर्णय किया जाना चाहिये और दुर्लभतम (Rarest of the Rare) मामलों में इन कानूनों का उपयोग किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
जबकि निवारक निरोध कानून विधि-व्यवस्था बनाए रखने में एक उपयोगी साधन हो सकते हैं, मानवाधिकारों के किसी भी उल्लंघन से बचने के लिये उनका कार्यान्वयन पर्याप्त सावधानी से किया जाना चाहिये। सरकार को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि इन कानूनों का दुरुपयोग न हो और इनका उपयोग केवल तभी किया जाए जब व्यक्तियों के प्रति किसी अनुचित हानि को रोकने के लिये इनकी आवश्यकता हो।
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