क्या राजनीति में अपराधियों को शरण देने चाहिए?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

अतीक को मरना ही था और वह मरता भी, लेकिन क़ानून के हाथों से। कितने निरपराधों को उसने मौत तक पहुँचाया, कितनों की ज़मीनें, मकान हड़पे! जिसने भी आवाज़ उठाई उसका कंठ दबा दिया और यह सब क़ानून से दूर जाकर ही वह करता रहा, इसलिए उसे ऐसी ही मौत मरना था, तर्क यह दिया जा सकता है, लेकिन लोकतंत्र की राह में यह तर्क सही नहीं कहा जा सकता।

सवाल यह उठता है कि अतीक यह सब कर रहा था तब हमारी पुलिस, हमारा क़ानून और ये राजनीति जिसका वह भी सक्रिय सदस्य बन बैठा था, कर क्या रही थी? महज़ 27 साल की उम्र में वह विधायक बन बैठा था। कभी किसी पार्टी से, कभी किसी दूसरी पार्टी से और कभी निर्दलीय भी। किसने दिया उसे राजनीति में प्रवेश? उसके बाहुबल का, उसके डर का इस्तेमाल करके यह राजनीति क्यों वर्षों पल्लवित और पोषित होती रही?

कहा जा सकता है कि क़ानून या पुलिस या सरकारें जब अपना काम समय पर नहीं करती तो गैंगवार पनपते हैं।

तब किसी को उसके द्वारा किए गए, या किए जा रहे अत्याचार क्यों दिखाई नहीं दिए? ये पुलिस, ये व्यवस्था, तब क्यों सब कुछ देखकर भी अनजान बनी रही? राजनीति का अपराधीकरण जब तक सख़्ती से रोका नहीं जाता, इस तरह के अपराधी पनपते रहेंगे और किसी न किसी रास्ते विधानसभाओं, लोकसभा में जाते रहेंगे। दरअसल, हमारी व्यवस्था को पानी सिर से ऊपर तक चले जाने के बाद ही होश क्यों आता है। कई बार तो होश आता ही नहीं है और फिर वही होता है जो हुआ!

आज भी हालात ये हैं कि हमारी राजनीतिक पार्टियाँ निर्विवाद रूप से राजनीति का अपराधीकरण रोकने पर एकमत नहीं हो पाईं हैं। हत्या या ऐसे अपराधों के जिन पर आरोप हों, भले ही उन्हें सजा न मिल पाई हो, उन्हें चुनाव का टिकट क्यों दिया जाता है?

कहा जा सकता है कि क़ानून या पुलिस या सरकारें जब अपना काम समय पर नहीं करती तो इस तरह के गैंगवार पनपते हैं और फिर वह गैंग अपने हिसाब से, अपना न्याय करने पर आमादा हो जाता है, लेकिन इसे किसी भी हाल में सही नहीं ठहराया जा सकता। जब हम याकूब को आधी रात को भी कोर्ट खुलवाकर अपना पक्ष रखने का मौक़ा देते हैं तो लोकतंत्र का महान उदाहरण पेश होता है। आख़िर उसे फाँसी दी जाती है, लेकिन क़ानून के अनुसार।

एक तरफ़ हम क़ानून के राज की बात करते हैं और दूसरी तरफ लॉरेंस बिश्नोई जेल में बैठकर इंटरव्यू देता है। सुकेश के तरह-तरह के फ़ुटेज जेल से बाहर आ जाते हैं। सत्येंद्र जैन का किसी से पाँव दबवाते हुए फ़ुटेज भी जेल के भीतर से ही आता है। फिर कौन सा क़ानून का राज काम कर रहा है? कमजोरी तो क़ानून व्यवस्था की ही है।

अतीक को जब पुलिस घेरे में गोली मारी जाती है तो यह किसकी अनदेखी से हुआ? क्या कोई गैंग था जो अतीक द्वारा पूछताछ में राज खुलने के भय से परेशान था और इन्हीं राज को दफ़न करने के लिए उसने कुछ शूटर्स हायर कर इस घटना को अंजाम दिया? न्यायिक जाँच में यह कड़ी खुलनी ही चाहिए ताकि छिपे हुए चेहरों के बीच का अतीक सामने आ सके।

अतीक जैसे आततायियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी ही चाहिए। होती भी, और वही होना था जो हुआ, यानी मौत की सजा, लेकिन हर सजा में, हर फ़ैसले में न्याय होता हुआ दिखना चाहिए। चंद शूटर्स की गोलियों की आवाज़ में न्याय देखना उचित नहीं कहा जा सकता।

हिंसा के बदले हिंसा, हमारी न तो परम्परा है और न ही रिवाज। हिंसा का जवाब क़ानूनी रास्ते से कड़ा दंड ही होना चाहिए। दरअसल, भीड़ या गैंगवार के ज़रिए जब न्याय देखा जाता है तब होता यह है कि एक आततायी या गुंडा मारा जाता है और दूसरा पैदा होता है। … और यह चेन फिर लम्बी चलती जाती है। इसका कोई अंत नहीं होता।

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