जाति आधारित जनगणना की आवश्यकता क्यों है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जाति व्यवस्था भारत की नियति है और इसने देश को अपनी अपार क्षमता को साकार करने तथा विज्ञान, प्रौद्योगिकी, ज्ञान, कला, खेल एवं आर्थिक समृद्धि के विषय में एक महान राष्ट्र में परिणत हो सकने की संभावना को अवरुद्ध कर रखा है।

अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में 94% विवाह सजातीय (endogamous) होते हैं और 90% तुच्छ नौकरियाँ वंचित जातियों द्वारा की जाती हैं (जबकि सफेदपोश नौकरियों के मामले में यह आँकड़ा उल्टा हो जाता है)। मीडिया, न्यायपालिका, उच्च शिक्षा, नौकरशाही या कॉर्पोरेट क्षेत्र जैसे विभिन्न क्षेत्रों में, विशेष रूप से निर्णय लेने के स्तर पर, जाति विविधता का यह परम अभाव इन संस्थानों और उनके प्रदर्शन को कमज़ोर कर रहा है।

यह वास्तव में अजीब बात ही है कि जाति के हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में इतनी प्रमुखता से मौजूद होने के बावजूद भी देश की आधी से अधिक आबादी के लिये जाति संबंधी कोई विश्वसनीय और व्यापक जाति आँकड़ा मौजूद ही नहीं है।

जाति आधारित जनगणना की आवश्यकता

  • नीतिनिर्माण में लाभ: जाति आधारित जनगणना का उद्देश्य केवल आरक्षण के मुद्दे तक सीमित नहीं है; यह वास्तव में उन व्यापक विषयों को (विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले या वंचित लोगों की संख्या अथवा उनके व्यवसाय का रूप) को सामने लाएगी, जिन विषयों पर किसी भी लोकतांत्रिक देश को अवश्य ध्यान देना चाहिये।
    • एक जाति आधारित जनगणना (जो विस्तृत आँकड़े सृजित करेगी), नीति निर्माताओं को बेहतर नीतियों और कार्यान्वयन रणनीतियों को विकसित करने का अवसर देगी और इसके साथ ही संवेदनशील मुद्दों पर अधिक तर्कसंगत बहस को भी सक्षम करेगी।
  • समाज के विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का प्रकटीकरण: जाति न केवल वंचना या अलाभ की स्थिति का स्रोत है बल्कि यह हमारे समाज में विशेषाधिकार और लाभ की स्थिति का भी एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
    • हमें इस सोच को बदलना होगा कि जाति का विषय केवल वंचित, निर्धन या अभावग्रस्त लोगों से संबंधित है।
    • इसका विलोम अधिक सत्य है, जहाँ जाति ने कुछ समुदायों के लिये लाभ की स्थिति उत्पन्न की है और इसे दर्ज किया जाना भी आवश्यक है।
  • भारतीय समाज में जाति का महत्त्वपूर्ण स्थान: जबकि अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और विभिन्न धार्मिक एवं भाषाई समूहों के बारे में जनगणना आँकड़े एकत्र किये गए हैं वहीं वर्ष 1931 के बाद से भारत में सभी जातियों की कोई प्रोफाइलिंग या अंकन नहीं हुआ है।
    • इसके बाद से ही जाति ने हमारे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान ग्रहण कर लिया है और अपर्याप्त आँकड़ों पर हमारी निर्भरता में भी वृद्धि हुई है।
  • प्रचलित असमानताओं को दूर करना: धन, संसाधनों और शिक्षा के असमान वितरण का परिणाम हुआ कि अधिकांश भारतीयों के पास क्रय शक्ति की भारी कमी है।
    • एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में हम व्यवस्था को बलपूर्वक उखाड़ नहीं फेंक सकते बल्कि हमें इसे लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ तरीके से संबोधित करने की आवश्यकता है।
  • संवैधानिक जनादेश: हमारा संविधान भी जाति आधारित जनगणना आयोजित कराने का पक्षधर है।
  • अनुच्छेद 340 सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की दशाओं के अन्वेषण के लिये और सरकारों द्वारा इस दिशा में किये जा सकने वाले उपायों की सिफारिशें करने के लिये एक आयोग की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
  • मिथकों को तोड़ना: ऐसे बहुत से मिथक हैं जो वास्तव में बड़ी संख्या में लोगों को, विशेषकर हाशिये में स्थित लोगों को वंचित करते हैं।
    • जैसे हम कर्नाटक का उदाहरण लें। लंबे समय से यह दावा किया जाता रहा है कि वहाँ जातियों में लिंगायत जाति की संख्या सर्वाधिक है।
    • लेकिन कई अन्य अध्ययनों ने इस पर संदेह व्यक्त किया है। इस तरह के मिथक इस तर्क को जन्म देते हैं कि चूँकि किसी जाति विशेष के लोगों की संख्या अधिक है, उसकी तुष्टि किया जाना आवश्यक है। ऐसे मिथकों को जाति आधारित जनगणना के माध्यम से दूर किया जा सकता है।
  • समावेशन और बहिर्वेशन की त्रुटियों को कम करना: जातियों के सटीक आँकड़ों के साथ अधिकांश पिछड़ी जातियों की पहचान की जा सकती है।
    • कुछ लोग वर्षों से लाभ उठा रहे हैं जबकि देश में ऐसे लोग भी हैं जिन्हें कोई भी लाभ नहीं मिला।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने बार-बार सरकारों से जातियों से संबंधित आँकड़े उपलब्ध कराने को कहा है; लेकिन इस तरह के आँकड़े की अनुपलब्धता के कारण यह संभव नहीं हो पाया है।
    • परिणामस्वरूप, हमारा राष्ट्रीय जीवन विभिन्न जातियों के बीच आपसी अविश्वास और गलत धारणाओं से ग्रस्त है।
    • विभिन्न आयोगों को पिछली जाति आधारित जनगणना (1931) के आँकड़ों पर निर्भर रहना पड़ा है।

जाति आधारित जनगणना से संबद्ध चुनौतियाँ

  • जाति आधारित जनगणना के दुष्प्रभाव: जाति में एक भावनात्मक तत्व निहित होता है और इस प्रकार जाति आधारित जनगणना के राजनीतिक और सामाजिक दुष्प्रभाव भी उत्पन्न हो सकते हैं।
    • ऐसी आशंकाएँ प्रकट होती रही हैं कि जाति संबंधित गणना से उनकी पहचान की सुदृढ़ता या कठोरता को मदद मिल सकती है।
    • इन दुष्प्रभावों के कारण ही सामाजिक, आर्थिक और जातिगत जनगणना, 2011 के लगभग एक दशक बाद भी इसके आँकड़े के बड़े अंश अप्रकाशित रहे हैं या ये केवल अंशों में ही जारी किये गए हैं।
  • जाति संदर्भ-विशिष्ट होती है: जाति कभी भी भारत में वर्ग या वंचना का छद्म रूप नहीं रही; यह एक विशिष्ट प्रकार के अंतर्निहित भेदभाव का गठन करती है जो प्रायः वर्ग के भी पार चला जाता है। उदाहरण के लिये:
    • दलित उपनाम वाले लोगों को नौकरी हेतु साक्षात्कार के लिये बुलाए जाने की संभावना कम होती है, भले ही उनकी योग्यता उच्च जाति के उम्मीदवार से बेहतर हो।
    • ज़मींदारों द्वारा उन्हें पट्टेदारों के रूप में स्वीकार किये जाने की संभावना भी कम होती है।
    • एक पढ़े-लिखे, संपन्न दलित व्यक्ति से विवाह अभी भी उच्च जाति की महिलाओं के परिवारों में हिंसक प्रतिशोध को जन्म देता है।

आगे की राह  

  • भारत को आँकड़ों के माध्यम से जाति के प्रश्न से निपटने के लिये उसी प्रकार साहसिक और निर्णयात्मक होने की आवश्यकता है, जिस प्रकार संयुक्त राज्य अमेरिका नस्ल, वर्ग, भाषा, अंतर-नस्लीय विवाह आदि के आँकड़े एकत्र कर नस्ल की समस्या से निपटता है।
    • यह आँकड़ा अमेरिका के राज्य और समाज को एक दर्पण प्रदान करता है जिसमें वे स्वयं को देख सकते हैं और अपने पथ में सुधार के लिये निर्णय ले सकते हैं।
  • राष्ट्रीय डेटा बैंक की स्थापना: सच्चर समिति की रिपोर्ट में एक राष्ट्रीय डाटा बैंक स्थापित करने की सिफारिश की गई थी।
    • अन्य पिछड़ी जातियों के उप-वर्गीकरण की जाँच के लिये वर्ष 2017 में न्यायमूर्ति रोहिणी समिति का गठन किया गया था; हालाँकि, डेटा के अभाव में किसी डेटा-बैंक की स्थापना या किसी उपयुक्त उप-वर्गीकरण का होना संभव नहीं है।

निष्कर्ष

हाल ही में बढ़ती सामाजिक जागरूकता के साथ जाति व्यवस्था की समाप्ति की तात्कालिकता तेज़ी से महसूस की जा रही है। डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने कहा था कि यदि भारत को राष्ट्रों के समूह में गौरव का स्थान प्राप्त करना है तो सर्वप्रथम जाति को मिटाना होगा।

21वीं सदी भारत के जातिगत प्रश्न को हल करने का सही समय है, जो अन्यथा न केवल सामाजिक रूप से बल्कि राजनीतिक और आर्थिक रूप से भी भारी कीमत की माँग करेगा और हमें विकास सूचकांक में पीछे धकेल देगा।

 

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