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संज्ञेय अपराधों में FIR का प्रावधान क्या है?

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श्रीनारद  मीडिया सेंट्रल डेस्क

सर्वोच्च न्यायालय ने पहलवानों द्वारा दायर याचिका पर दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी किया है, जिसमें यौन उत्पीड़न के आरोपों पर भारतीय कुश्ती महासंघ (WFI) के अध्यक्ष के खिलाफ प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने की मांग की गई है।

  • सॉलिसिटर जनरल ने न्यायालय से कहा कि दिल्ली पुलिस को लगता है कि प्राथमिकी दर्ज करने से पहले एक ‘प्रारंभिक जाँच’ करने की आवश्यकता है।
  • भारतीय दंड संहिता (IPC) की यौन उत्पीड़न एवं यौन हमले से संबंधित धाराएँ संज्ञेय अपराधों की श्रेणी में आती हैं।
  • चूँकि शिकायतकर्त्ताओं में एक नाबालिग शामिल है, इसलिये लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम 2012 के तहत FIR के प्रावधान लागू होते हैं।

प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR):

  • परिचय:
    • प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) पुलिस द्वारा तैयार किया गया एक लिखित दस्तावेज़ है, जिसे एक संज्ञेय अपराध के किये जाने की सूचना पर दर्ज किया जाता है।
    • FIR दर्ज करना जाँच की दिशा में पहला कदम है।
    • यह जाँच को गति प्रदान करता है जिसके तहत पुलिस निम्नलिखित कार्यवाही कर सकती है:
      • आरोपी को हिरासत में लेकर पूछताछ
      • साक्ष्यों के आधार पर चार्जशीट दायर करना
      • यदि प्राथमिकी में लगाए गए आरोपों की जाँच से कोई परिणाम नहीं निकलता है तो क्लोज़र रिपोर्ट दर्ज करना
  • संज्ञेय अपराधों में FIR का पंजीकरण:
    • धारा 154 (1), CrPC एक संज्ञेय अपराध के बारे में सूचना प्राप्त होने के बाद पुलिस को प्राथमिकी दर्ज करने में सक्षम बनाती है।
      • एक संज्ञेय अपराध/मामला वह अपराध है जिसमें पुलिस अधिकारी बिना वारंट के गिरफ्तारी कर सकता है।
    • इस कानून में ‘ज़ीरो एफआईआर’ दर्ज करने का भी प्रावधान है।
      • ऐसे मामले जिसमें कथित अपराध संबंधित थाने के अधिकार क्षेत्र में नहीं किया गया है, वहाँ भी पुलिस प्राथमिकी दर्ज कर सकती है और इसे संबंधित पुलिस थाने में स्थानांतरित कर सकती है।
  • प्राथमिकी दर्ज करने में विफलता:
    • न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति (2013) की सिफारिश के आधार पर भारतीय दंड संहिता में धारा 166A शामिल की गई थी।
    • इस धारा में कहा गया है कि अगर कोई लोक सेवक जान-बूझकर कानून के किसी भी निर्देश की अवज्ञा करता है, जैसे कि संज्ञेय अपराध के संबंध में उसे दी गई किसी भी जानकारी को रिकॉर्ड करने में विफल होना, तो उसे दो वर्ष तक की कैद हो सकती है व उस पर जुर्माना लगाया जा सकता है।

POCSO अधिनियम, 2012 के तहत प्राथमिकी का प्रावधान:

  • अधिनियम की धारा 19 में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जिसे यह आशंका है कि POCSO अधिनियम के तहत अपराध किया गया है, ऐसी जानकारी विशेष किशोर पुलिस इकाई या स्थानीय पुलिस को प्रदान करेगा।
    • अनुभाग को लिखित रूप में प्राथमिकी दर्ज करने की भी आवश्यकता होती है।
  • अधिनियम की धारा 21 में यह भी कहा गया है कि किसी अपराध की रिपोर्ट या रिकॉर्डिंग नहीं करने पर छह महीने तक की कैद, जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
    • इसलिये अधिनियम कोई शिकायत प्राप्त होने पर, जिसमें एक बच्चा भी शामिल है, रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य बनाता है।

प्राथमिकी दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जाँच:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने ललिता कुमारी बनाम यूपी सरकार एवं अन्य (2013) मामले में कहा कि अगर संज्ञेय अपराध की सूचना मिलती है तो CrPC की धारा 154 के तहत प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है।
  • FIR दर्ज करने के चरणो में अन्य विचार प्रासंगिक नहीं हैं जैसे कि कौन-सी सूचना गलत दी गई है, कौन-सी सूचना वास्तविक है, कौन-सी सूचना विश्वसनीय है आदि।
  • उसने यह भी कहा, “प्रारंभिक जाँच का दायरा प्राप्त सूचनाओं की सत्यता या अन्यथा की पुष्टि करना नहीं है, बल्कि केवल यह पता लगाना है कि कौन-सी सूचना किसी संज्ञेय अपराध का खुलासा करती है।”
  • उसने उन मामलों की श्रेणियों की एक विस्तृत सूची दी, जहाँ इस तरह की जाँच की जा सकती है, जिसमें पारिवारिक विवाद, व्यावसायिक अपराध, चिकित्सकीय लापरवाही और भ्रष्टाचार के मामले या ऐसे मामले शामिल हैं, जहाँ मामले की सूचना देने में असामान्य देरी हुई है।
  • न्यायालय ने कहा कि सात दिन से अधिक जाँच नहीं होनी चाहिये।

पुलिस द्वारा प्राथमिकी न दर्ज करने पर किये जाने योग्य उपाय:

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