क्या आर्थिक विकास से प्रजनन दर के अंतराल को पाटा जा सकता है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक इस सप्ताहांत में भारत चीन को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन चुका होगा। इसका कई लोगों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भारत जनसंख्या-विस्फोट के दौर से गुजर रहा है और इस पर अंकुश लगाने की जरूरत है। लेकिन ऐसा मानने वाले भूल कर रहे हैं।
भारत जनसंख्या-विस्फोट के दौर से नहीं गुजर रहा है। वास्तव में, आजादी के बाद से भारत में जनसंख्या-वृद्धि आज अपने सबसे न्यूनतम स्तर पर है। भारत की प्रजनन-दर प्रति-महिला 2.0 है। जनसांख्यिकी के जानकारों ने जिसे रिप्लेसमेंट लेवल माना है, जिस पर आकर जनसंख्या स्थिर हो जाती है, यह दर उससे कम है।
रिप्लेसमेंट रेट को सामान्यतया प्रति-महिला 2.1 माना जाता है। पांच ही राज्यों की प्रजनन दर रिप्लेसमेंट लेवल से अधिक है और इनमें भी तीन ही बड़े हैं- बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश। दो राज्य छोटे हैं- मणिपुर और मेघालय। इनमें से भी चार ऐसे हैं, जो रिप्लेसमेंट लेवल से थोड़ा ही अधिक हैं और उनकी प्रजनन दर तेजी से घट रही है।
भारत के सभी राज्यों में बिहार की प्रजनन दर सबसे अधिक 3 है, लेकिन उसमें भी गिरावट दर्ज की जा रही है। संक्षेप में, भारत को जनसंख्या-नियंत्रण के लिए कोई कदम उठाने की जरूरत नहीं है। कुछ दशकों में आबादी वृद्धि दर स्वत: स्थिर हो जाएगी और 2050 के बाद उसमें गिरावट आने लगेगी।
आज अनेक लोग देश की वर्तमान जनसांख्यिकी को अत्यंत खतरे की स्थिति की तरह देखते हैं। इनमें संघ प्रमुख मोहन भागवत और यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ उल्लेखनीय हैं। वैसे अंदेशे न केवल निराधार हैं, बल्कि वे इतिहास का एक ऐसा दृष्टिकोण भी सामने रखते हैं, जो त्रुटिपूर्ण है।
यह ऐसा दृष्टिकोण है, जो लोगों को खाने वाले मुंह के रूप में गिनता है। यानी जितने लोग होंगे, उतने लोगों को हमें खिलाना होगा। लेकिन इसका वैकल्पिक विचार यह है कि लोग इनोवेशन करने वाला दिमाग, उत्पादन करने वाले हाथ, सृजन करने वाली प्रतिभा और परवाह करने वाला दिल भी होते हैं। दूसरे शब्दों में लोगों को ह्यूमन कैपिटल की तरह देखा जा सकता है। ऐतिहासिक डाटा और शोध इस दूसरे नजरिए की पुष्टि करते हैं।
जनसंख्या वृद्धि को खतरे की घंटी की तरह देखने का एक साम्प्रदायिक कोण भी है। संघ प्रमुख जनसंख्या नियंत्रण के साथ ही जनसंख्या संतुलन की भी बात करते हैं। यहां पर कुछ तथ्यों को सामने रखा जा सकता है। पहली बात तो यह कि जहां मुस्लिमों की प्रजनन दर हिंदुओं से अधिक है, वहीं इन दोनों के बीच का अंतराल अब तेजी से घट रहा है।
इसका यह मतलब है कि मुस्लिमों की प्रजनन दर हिंदुओं की प्रजनन दर की तुलना में अधिक तेजी से घट रही है। वर्ष 1992 में मुस्लिमों की प्रजनन दर हिंदुओं की प्रजनन दर की तुलना में प्रति-महिला एक शिशु अधिक की थी। लेकिन वर्ष 2021 में यह आंकड़ा एक के बजाय 0.4 तक पहुंच गया है।
दूसरी बात यह है कि भारत में प्रजनन दर को समझने की कुंजी देश के भूगोल और आर्थिक स्थिति में निहित है। इसकी तुलना में धर्म प्रजनन का एक कमजोर निर्धारक-तत्व है। मिसाल के तौर पर, जम्मू-कश्मीर, पश्चिम बंगाल और असम- इन तीन राज्यों में सघन मुस्लिम आबादी है, इसके बावजूद इन राज्यों में मुस्लिमों की प्रजनन दर बिहार और यूपी के हिंदुओं की तुलना में कम है।
इसका कारण धार्मिक अंतर नहीं है। वास्तव में इसके मूल में भौगोलिक भेद है। तीसरे, देश के जिन पांच राज्यों या केंद्रशासित प्रदेशों में मुस्लिमों की सघन आबादी (20 प्रतिशत से अधिक) है, वहां प्रजनन दर रिप्लेसमेंट रेट से बहुत नीचे है, जिसका मतलब है कि इनमें से कुछ राज्यों की आबादी वास्तव में कम हो रही है।
जम्मू-कश्मीर और लक्षद्वीप में यह 1.4 प्रति-महिला है, जो कि अत्यंत कम है। पश्चिम बंगाल में यह 1.6, केरल में 1.8 और असम में 1.9 प्रति-महिला है और ये सभी कम दरें हैं। चौथी बात यह कि हिंदुओं और मुस्लिमों की प्रजननशीलता में जो अंतर है, उसकी तुलना एक ही आर्थिक स्तर पर करने पर वह लगभग विलीन हो जाता है।
इसका यह मतलब है कि अगर दोनों समूहों की प्रजनन दर के अंतराल को पाटना है तो इसके लिए आर्थिक विकास करना होगा- सबका विकास। जैसे ही आर्थिक समृद्धि के फल निम्न आय समूहों तक पहुंचेंगे और स्त्रियों की शैक्षिक दशा सुधरेगी, हिंदुओं और मुस्लिमों की प्रजनन दर का अंतर समाप्त हो जाएगा।
भारत को जनसंख्या-नियंत्रण के लिए कोई कदम उठाने की जरूरत नहीं है। कुछ दशकों में भारत की आबादी वृद्धि दर स्वत: स्थिर हो जाएगी और 2050 के बाद तो उसमें गिरावट भी आने लगेगी।
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