खाद्य सुरक्षा की मौसम के प्रभाव से रक्षा की आवश्यकता क्यों है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
कृषि उत्पादकता (agricultural productivity) और खाद्य सुरक्षा (food security) को निर्धारित करने में तापमान, वर्षा और चरम मौसमी घटनाओं (extreme weather events) सहित विभिन्न मौसमी प्रतिरूप (Weather patterns) प्रमुख कारक की भूमिका निभाते हैं।
- मौसमी प्रतिरूप में परिवर्तन से फसल विफलता, खाद्य की कमी एवं उनमें मूल्य वृद्धि जैसी स्थिति बन सकती है, जिसका विश्व भर के लाखों लोगों की आजीविका पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है।
- उदाहरण के लिये, सूखा और बाढ़ फसलों को नष्ट कर सकते हैं, जिससे खाद्य की कमी एवं उनके मूल्यों में वृद्धि हो सकती है, जबकि अत्यधिक तापमान फसल की पैदावार एवं गुणवत्ता को कम कर सकता है। विकासशील देशों में ये प्रभाव विशेष रूप से तीव्र हैं, जहाँ बहुत से लोग अपनी आजीविका के लिये कृषि पर निर्भर हैं और जिनके पास भोजन या आय के वैकल्पिक स्रोतों तक पहुँच की कमी हो सकती है।
खाद्य सुरक्षा क्या है?
- खाद्य सुरक्षा (Food security)—जैसा कि विश्व खाद्य सुरक्षा पर संयुक्त राष्ट्र समिति (United Nations’ Committee on World Food Security) द्वारा परिभाषित किया गया है, का अभिप्राय है सभी लोगों की सभी समय पर्याप्त, सुरक्षित एवं पौष्टिक खाद्य तक भौतिक, सामाजिक एवं आर्थिक पहुँच, जो एक सक्रिय एवं स्वस्थ जीवन के लिये उनकी खाद्य प्राथमिकताओं एवं आहार संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करता हो।
- खाद्य सुरक्षा निम्नलिखित तीन तत्वों का संयोजन है:
- खाद्य उपलब्धता (Food availability); अर्थात् खाद्य पर्याप्त मात्रा में और निरंतर उपलब्ध होना चाहिये। यह क्षेत्र विशेष में भंडार (स्टॉक) एवं उत्पादन और व्यापार या सहायता (aid) के माध्यम से कहीं और से खाद्य मंगाने की क्षमता पर विचार करता है।
- खाद्य अभिगम्यता (Food accessibility); अर्थात् लोगों को खरीद, घरेलू उत्पादन, वस्तु विनिमय, उपहार, उधार या खाद्य सहायता के माध्यम से नियमित रूप से पर्याप्त मात्रा में खाद्य प्राप्त करने में सक्षम होना चाहिये।
- खाद्य उपयोग (Food utilization); अर्थात् उपभोग किये जाते खाद्य का लोगों पर सकारात्मक पोषण प्रभाव (positive nutritional impact) उत्पन्न होना चाहिये। इसमें घरों में खाना पकाने, भंडारण एवं स्वच्छता अभ्यास, व्यक्तियों के स्वास्थ्य, जल एवं स्वच्छता, आहार प्रदान करने एवं साझा करने के अभ्यास आदि शामिल हैं।
- खाद्य सुरक्षा घरेलू संसाधनों, प्रयोज्य आय और सामाजिक आर्थिक स्थिति से निकटता से संबद्ध है। यह खाद्य कीमतों, वैश्विक पर्यावरण परिवर्तन, जल, ऊर्जा और कृषि विकास जैसे अन्य मुद्दों से भी सुदृढ़ तरीके से जुड़ा हुआ है।
- किसी राष्ट्र के लिये खाद्य सुरक्षा का महत्त्व:
- कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिये।
- खाद्य कीमतों पर नियंत्रण रखने के लिये।
- आर्थिक विकास और रोज़गार सृजन के लिये, जो फिर निर्धनता में कमी लाए
- व्यापार अवसरों के लिये
- संवृद्ध वैश्विक सुरक्षा और स्थिरता के लिये
- बेहतर स्वास्थ्य और स्वास्थ्य देखभाल के लिये
खाद्य सुरक्षा की मौसम के प्रभाव से रक्षा (Weather-Proofing Food Security) की आवश्यकता क्यों है?
- जलवायु परिवर्तन संवेदनशील या भेद्य आबादी के लिये संकट को बढ़ाने वाला और खतरे को सघन करने वाला कारक है। खाद्य उत्पादन, आजीविका और स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव से वर्ष 2080 तक 600 मिलियन अतिरिक्त लोगों के खाद्य असुरक्षा की ओर धकेले जाने और बाल कुपोषण में वृद्धि होने का आकलन किया जाता है।
- जलवायु परिवर्तन से प्रेरित फसल विफलता एवं भुखमरी से सर्वाधिक खतरा रखने वाली वैश्विक आबादी की लगभग 80% उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया में निवास करती है, जहाँ कृषक परिवार असंगत रूप से निर्धन एवं भेद्य हैं।
- अल नीनो (El Nino) मौसम प्रतिरूप या जलवायु परिवर्तन से प्रेरित चरम सूखे की स्थिति लाखों अतिरिक्त लोगों को गरीबी की ओर धकेल सकती है।
खाद्य सुरक्षा पर मौसम के प्रभाव
- फसल पैदावार और उत्पादन:
- बढ़ते तापमान, वर्षा के बदलते प्रतिरूप और सूखा, बाढ़ एवं तूफान जैसी चरम मौसमी घटनाओं का फसल की पैदावार पर हानिकारक प्रभाव पड़ सकता है।
- ग्रीष्म लहर (Heatwaves) एवं सूखा उत्पादकता को कम कर सकते हैं और फसल विफलता का कारण बन सकते हैं, जबकि अत्यधिक वर्षा एवं बाढ़ फसलों को और आधारभूत संरचना को नष्ट कर सकते हैं।
- कृषि उत्पादन में इन व्यवधानों के परिणामस्वरूप खाद्य उपलब्धता में कमी और उनके मूल्यों में वृद्धि की स्थिति बन सकती है।
- फसल उगाने की दशाओं में परिवर्तन:
- जलवायु परिवर्तन विशिष्ट फसलों के लिये कुछ क्षेत्रों की उपयुक्तता को बदल देता है।
- तापमान और वर्षा के प्रतिरूप में परिवर्तन के कारण किसानों को अपने फसल अभ्यासों को अनुकूलित करने या दूसरी फसलों की ओर आगे बढ़ने की आवश्यकता पड़ सकती है।
- इससे खाद्य उत्पादन में व्यवधान और क्षेत्रीय खाद्य असंतुलन की स्थिति बन सकती है।
- पशुधन और मत्स्य पालन:
- बढ़ते तापमान, वर्षा के बदलते प्रतिरूप और महासागरीय अम्लीकरण से पशुधन एवं मत्स्य उत्पादन प्रभावित होता है।
- हीट स्ट्रेस (Heat stress) पशुधन उत्पादकता को कम कर सकता है और उनकी मृत्यु दर को बढ़ा सकता है, जबकि जल के तापमान एवं अम्लता में परिवर्तन समुद्री पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित कर सकता है और मछली की आबादी को कम कर सकता है।
- खाद्य वितरण और पहुँच:
- जलवायु परिवर्तन परिवहन और अवसंरचना को बाधित कर सकता है, जिससे उत्पादन क्षेत्रों से बाज़ारों तक खाद्य पदार्थों का परिवहन करना चुनौतीपूर्ण बन सकता है।
- चरम मौसमी घटनाएँ सड़कों, पुलों एवं बंदरगाहों को नष्ट कर सकती हैं, जिससे परिवहन में देरी और उच्च परिवहन लागत की स्थिति बन सकती है।
- ये व्यवधान लोगों की खाद्य तक पहुँच को सीमित कर सकते हैं, विशेष रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में या ऐसे क्षेत्रों में जो आयातित खाद्य पर अत्यधिक निर्भर होते हैं।
- मूल्य अस्थिरता:
- कृषि उत्पादन में जलवायु परिवर्तन संबंधी व्यवधानों से खाद्य वस्तुओं की मूल्य अस्थिरता (Price Volatility) में वृद्धि हो सकती है।
- फसल विफलता, पैदावार में कमी और आपूर्ति की कमी के कारण खाद्य मूल्यों में वृद्धि हो सकती है, जिससे संवेदनशील आबादी के लिये पर्याप्त आहार का खर्च उठाना कठिन हो जाता है।
- भूमि क्षरण और जल की कमी:
- जलवायु परिवर्तन मृदा के कटाव, मरुस्थलीकरण और कृषि-योग्य भूमि के क्षरण में योगदान देता है।
- भारी वर्षा एवं बाढ़ जैसी चरम मौसमी घटनाएँ कृषि के लिये आवश्यक मृदा के ऊपरी परत को बहा सकती हैं और मृदा की उर्वरता को कम कर सकती हैं।
खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना क्यों महत्त्वपूर्ण है?
- महत्त्व:
- भारतीय CPI में खाद्य और पेय पदार्थों का भारांक 45.86% है, जो G20 देशों में सबसे अधिक है।
- समग्र मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिये इस घटक को लगभग 4% तक प्रबंधित करना अत्यंत आवश्यक है।
- चुनौतियाँ:
- मौद्रिक और राजकोषीय नीति की चुनौतियाँ: मुद्रास्फीति के इस घटक को केवल मौद्रिक नीति के माध्यम से प्रबंधित नहीं किया जा सकता है, न ही राजकोषीय नीति द्वारा।
- इसका सरल कारण यह है कि यह प्रायः बाह्य आघातों से प्रेरित होता है, जैसे सूखे के कारण या आपूर्ति शृंखला के भंग होने से (उदाहरण के लिये जैसा कि कोविड महामारी और रूस-यूक्रेन संघर्ष के दौरान दिखाई पड़ा)।
- अल नीनो: अल नीनो का उभार एक मंडराता संकट है और आशंका है कि यह सामान्य से कम वर्षा या यहाँ तक कि सूखे की स्थिति पैदा कर सकता है।
- अनाज मुद्रास्फीति: अनाज और उत्पादों की समग्र मुद्रास्फीति अभी भी अत्यंत असुविधाजनक स्तर (13.7%) पर है।
- चावल मुद्रास्फीति: खरीफ मौसम की सबसे प्रमुख फसल चावल है और उल्लेखनीय है कि अप्रैल माह में चावल मुद्रास्फीति (non-PDS के लिये) 11.4% थी।
- गेहूँ मुद्रास्फीति: गेहूँ सबसे महत्त्वपूर्ण रबी फसल है जिसकी मुद्रास्फीति अभी भी 15.5% के अत्यंत उच्च स्तर पर बनी हुई है।
- दूध मुद्रास्फीति: अप्रैल में इस श्रेणी में मुद्रास्फीति या महंगाई दर 8% से अधिक थी। लेकिन चूँकि CPI बास्केट में शामिल 299 वस्तुओं में इसका भारांक सबसे अधिक है, इसलिये अप्रैल में CPI मुद्रास्फीति में इसका योगदान लगभग 12% था, जो सभी वस्तुओं में सबसे अधिक था।
- चारा मूल्य मुद्रास्फीति: हाल के महीनों में चारा मूल्य मुद्रास्फीति 20 से 30% के अत्यंत उच्च स्तर पर रही है। इसने दूध मुद्रास्फीति को और बढ़ा दिया है।
- मौद्रिक और राजकोषीय नीति की चुनौतियाँ: मुद्रास्फीति के इस घटक को केवल मौद्रिक नीति के माध्यम से प्रबंधित नहीं किया जा सकता है, न ही राजकोषीय नीति द्वारा।
अल नीनो
- अल नीनो एक प्राकृतिक रूप से घटित होने वाला जलवायु प्रतिरूप है जो मध्य और पूर्वी उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह के तापमान के गर्म होने से संबद्ध है। यह औसतन प्रत्येक दो से सात वर्षों में उत्पन्न होता है और इसकी अवधि आमतौर पर 9 से 12 माह तक रहती है।
- अल नीनो प्रशांत महासागर में समुद्र की सतह के तापमान को प्रभावित करता है, जो मानसून या व्यापारिक पवनों को दुर्बल बना सकता है और भारत में वर्षा को कम कर सकता है। लेकिन एक सकारात्मक हिंद महासागर द्विध्रुव (Indian Ocean Dipole- IOD) इसे निष्प्रभावी कर सकता है।
आगे की राह
- बफर स्टॉकिंग नीति (अतिरिक्त स्टॉक को खुले बाज़ार संचालन में उतारना) का अधिक सक्रिय रूप से उपयोग करना:
- भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पास चावल का स्टॉक चावल के लिये निर्धारित बफ़र स्टॉक मानदंड से तीन गुना से भी अधिक है। यदि सरकार चावल की महंगाई को काबू में करना चाहती है तो वह चावल को सेंट्रल पूल से खुले बाज़ार संचालन में उतार सकती है और इस तरह सरलता से चावल की महंगाई को लगभग 4% तक नीचे ला सकती है।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये और खुले बाज़ार के संचालन को कुछ अवसर देने के लिये गेहूँ की खरीद पर्याप्त रूप से अच्छी रही है।
- ‘फैट’ पर कम आयात शुल्क: यह नीतिगत साधन अपनाया जा सकता है कि वसा या फैट (Fat) पर आयात शुल्क को कम किया जाए जो वर्तमान में 40% है। स्किम्ड मिल्क पाउडर (SMP) के लिये भी इसे कम किया जा सकता है जो अभी 60% है।
- SMP और फैट (butter) की भारतीय कीमतें वैश्विक कीमतों की तुलना में बहुत अधिक हैं और इसलिये आयात शुल्क को 10 से 15% तक कम करने से फैट एवं SMP का कुछ आयात हो सकेगा।
- इससे दूध और दुग्ध उत्पाद की कीमतों पर लगाम लगाने में मदद मिल सकती है।
- चारा मूल्य मुद्रास्फीति (Fodder Price Inflation) की चुनौती को संबोधित करना: चारा फसलों की खेती को सब्सिडी या प्रोत्साहन कार्यक्रमों के माध्यम से बढ़ावा दिया जाना चाहिये। इसे उपयुक्त फसल संयोजनों को अपनाने और चारा बैंकों को विकसित करने जैसी पहलों के माध्यम से भी संबोधित किया जा सकता है।
- सूखे से निपटने के लिये तैयार रहना: हालाँकि IMD ने अभी तक अल नीनो के प्रभाव के बारे में कोई पूर्वानुमान प्रकट नहीं किया है, लेकिन ‘इलाज से परहेज बेहतर’ के दृष्टिकोण को बनाए रखना चाहिये। सूखा-सहिष्णु फसल किस्मों की खेती करने, सिंचाई का विस्तार करने, चावल के निर्यात को प्रतिबंधित करने, अनाज का भंडारण एवं वितरण करने, सामाजिक सुरक्षा कवरेज का विस्तार करने जैसे नीतिगत हस्तक्षेप से जलवायु के प्रभाव को कम करने में मदद मिल सकती है।
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