उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में हम क्यों पिछड़ते जा रहे हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

आजादी के अमृत काल में जब चहूं ओर से अनेक गौरवान्वित करने वाली खबरें आती हैं, वहीं कभी-कभी कुछ निराश करने वाली खबरें भी आत्म-मूल्यांकन को प्रेरित करती हैं। ऐसी ही एक खबर भारत की उच्च-शिक्षा को लेकर है। हमारे देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में संख्यात्मक दृष्टि से काफी तरक्की हुई है लेकिन बात गुणात्मक दृष्टि की करते हैं तो निराशा ही हाथ लगती है।

नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआइआरएफ) 2023 की ओवरऑल रैंकिंग सूची को देखकर भी ऐसा ही लगता है। एक बड़ा सवाल है कि हम गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा की सूची में क्यों नहीं अव्वल आ पा रहे हैं। यह सवाल सत्ता के शीर्ष नेतृत्व को आत्ममंथन करने का अवसर दे रहा है, वहीं शिक्षा-निर्माताओं को भी सोचना होगा कि कहां उच्च-शिक्षा के क्षेत्र में त्रुटि हो रही है कि हम लगातार गुणवत्ता पूर्ण उच्च शिक्षा की सूची में सम्मानजनक स्थान नहीं बना पा रहे हैं।

शिक्षा मंत्रालय हर साल शिक्षा संस्थानों की रैंकिंग जारी करता है। इस बार एनआईआरएफ रैंकिंग के मुताबिक आईआईटी मद्रास को देश का सर्वेश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान घोषित किया गया है। जबकि दूसरे नम्बर पर भारतीय विज्ञान संस्थान बैंगलुरु है। इंजीनियरिंग कैटेगरी में आईआईटी मद्रास की रैंक लगातार आठवें वर्ष भी बरकार रही है। इसके बाद आईआईटी दिल्ली दूसरे नम्बर पर और तीसरे नम्बर पर आईआईटी मुम्बई है। इसी तरह मैनेजमैंट कालेज, फार्मेसी कालेज, लॉ कालेजों की भी रैंकिंग की गई।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में शिक्षा सुधार लगातार जारी है। उच्च शिक्षा उद्योग पर्याप्त शिक्षण क्षमता प्रदान करने के लिए संघर्ष कर रहा है लेकिन विडम्बना यह है कि भारत का कोई भी संस्थान वैश्विक शीर्ष सौ संस्थानों में अपनी जगह नहीं बना पाया। वैश्विक टॉप 200 में केवल तीन भारतीय संस्थान ही जगह बना पाए हैं। कुल मिलाकर 41 भारतीय संस्थान और विश्वविद्यालय हैं जिन्होंने इस वर्ष क्यूएस विश्वविद्यालय रैंकिंग सूची में जगह बनाई है।

आइआइटी हो या आइआइएम या फिर कॉलेज और विश्वविद्यालय, रैंकिंग के टॉप टेन में जगह बनाने वाली शिक्षण संस्थाओं में पिछले सालों से एक से नाम ही नजर आते हैं। यह तो लगता है कि ये संस्थाएं अपनी गुणवत्ता बनाए हुए हैं पर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि दूसरी उच्च शिक्षण संस्थाएं आखिर टॉप सूची में आने से क्यों वंचित रहती हैं? हम क्या कहकर विदेशी छात्रों को आकर्षित करेंगे? भारत प्राचीन समय में उच्च शिक्षा एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का केन्द्र रहा है, फिर आजादी के बाद इस विरासत को क्यों नहीं कायम रख पाये?

किसी भी शिक्षण संस्थान की गुणवत्ता उसकी फैकल्टी पर निर्भर करती है। फैकल्टी में योग्य और प्रशिक्षित शिक्षक चाहिए। निजी क्षेत्र युवा स्नातकों को ऐसे प्रोफेसरों के रूप में भर्ती करते हैं जिनके पास कोई अनुभव या ज्ञान नहीं होता। वह ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना चाहता है। निजी क्षेत्र को छात्रों में रचनात्मकता, नए शोध और नए कौशल को सीखने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देने में कोई रुचि नहीं है। देश में आरक्षण प्रणाली बहुत ही विवादास्पद है।

उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में आरक्षण प्रणाली अभी भी बाधक बनी हुई है। युवा पीढ़ी को सिर्फ नौकरी और भारी-भरकम वेतन पैकेज लेने में ही अधिक रुचि है। इसलिए अभिभावक भी बच्चों को देश की सेवा के लिए प्रेरित करने की बजाय अच्छी नौकरी तलाश करने के लिए ही प्रेरित करते हैं।

नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा घोषित नई शिक्षा नीति की उपयोगिता एवं प्रासंगिकता धीरे-धीरे सामने आने लगी है एवं उसके उद्देश्यों की परतें खुलने लगी है। आखिरकार उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति की शुरुआत करते हुए अगस्त तक डिजिटल यूनिवर्सिटी के शुरू होने और विदेशों के ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज और येल जैसे उच्च स्तरीय लगभग पांच सौ श्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थानों के भारत में कैंपस खुलने शुरू हो जायेंगे। अब भारत के छात्रों को विश्वस्तरीय शिक्षा स्वदेश में ही मिलेगी और यह कम खर्चीली एवं सुविधाजनक होगी।

इसका एक लाभ होगा कि कुछ सालों में भारतीय शिक्षा एवं उसके उच्च मूल्य मानक विश्वव्यापी होंगे। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की यह अनूठी एवं दूरगामी सोच से जुड़ी सराहनीय पहल है। यह शिक्षा के क्षेत्र में नई संभावनाओं का अभ्युदय है। भारत में दम तोड़ रही उच्च शिक्षा को इससे नई ऊर्जा मिलेगी। बुझा दीया जले दीये के करीब आ जाये तो जले दीये की रोशनी कभी भी छलांग लगा सकती है। खुद को विश्वगुरु बताने वाले भारत का एक भी विश्वविद्यालय दुनिया के 100 विश्वविद्यालयों में शामिल नहीं है।

भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलुरु ने 155वां वैश्विक रैंक हासिल किया है जो पिछले साल 186वें स्थान से ऊपर है और भारतीय संस्थानों में पहले स्थान पर है। आईआईएससी बेंगलुरु साइटेशन पर फैकल्टी इंडिकेटर में विश्व स्तर पर शीर्ष संस्थानों में भी उभरा है। यह संस्थानों द्वारा उत्पादित अनुसंधान के वैश्विक प्रभाव को इंगित करता है। शीर्ष 200 में अन्य दो स्थानों पर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) बॉम्बे और आईआईटी दिल्ली वैश्विक 172वें और 174वें स्थान पर हैं।

विशेष रूप से, आईआईटी बॉम्बे और आईआईटी दिल्ली दोनों ने पिछले साल से आईआईटी बॉम्बे को 177वें और आईआईटी दिल्ली को पिछले साल 185वें स्थान से अपग्रेड किया। इससे पता चलता है कि शीर्ष 300 वैश्विक विश्वविद्यालयों/संस्थानों में छह भारतीय संस्थान अपनी पहचान बना सकते हैं। इन त्रासद उच्च स्तरीय शिक्षा के परिदृश्यों में बदलाव लाने लाते हुए यह देखना है कि गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा में हम कैसे सम्मानजनक स्थान बनायें।

भारत में उच्च शिक्षा की इस दयनीय स्थिति के कारण ही वर्ष 2017 से 2022 के दौरान 30 लाख से अधिक भारतीय छात्र उच्च शिक्षा के लिए विदेश गए थे। अकेले वर्ष 2022 में ही 7.5 लाख भारतीयों ने विदेश जाने का अपना उद्देश्य अध्ययन करना बताया था। एक बात साफ है कि विश्व स्तरीय रैंकिंग में भारतीय उच्च शिक्षण संस्थाओं का काफी नीचे के पायदान पर होना भी इसकी एक महत्त्वपूर्ण वजह है।

भारत की रैंकिंग में टॉप टेन पर रहने वाली उच्च शिक्षण संस्थाएं जब वैश्विक रैंकिंग में शीर्ष सौ की सूची में भी नहीं आएं तो चिंता होनी चाहिए। यह चिंता इसलिए भी क्योंकि लगातार ये सवाल उठते रहे हैं कि क्या हमारे उच्च शिक्षण संस्थान इनमें पढ़ने वालों को जीवन दृष्टि देने और बेहतर रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने में सफल हो रहे हैं? युवा पीढ़ी को हमारे देश में अध्ययन की वह गुणवत्ता क्यों नहीं मिले जिसे पाने के लिए वह विदेश जाने को आतुर रहती है।

जाहिर है इसके लिए हमें वैश्विक रैंकिंग में सम्मानजनक जगह बनाने वाली शिक्षण संस्थाओं को तैयार करना होगा। वास्तविकता यह भी है कि उच्च शिक्षा का उद्देश्य केवल डिग्री देना ही नहीं है बल्कि चिंतन, मनन और शोध की नई धारा को प्रवाहित करना एवं गुणवान नागरिकों का निर्माण करना भी इस उद्देश्य में शामिल है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2035 तक स्कूल में दाखिला लेने वाले पचास फीसदी छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षा का मार्ग भी चुनेंगे। ऐसे में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की उच्च शिक्षण संस्थाओं को वैश्विक मुकाबले में आने योग्य बनाना होगा।

यह चुनौती इसलिये भी बड़ी है कि हमने विदेशी विश्वविद्यालयों के लिये भी भारत के दरवाजे खोल दिये हैं। इसलिये भारत के उच्च-शिक्षण संस्थानों के लिये यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वे संख्यात्मक नहीं, बल्कि गुणात्मक दृष्टिकोण लिए हों। वैसे ही उच्च शिक्षा भटकी हुई प्रतीक होती है, हमारा मूल उद्देश्य ही कहीं भटकाव एवं गुमराह का शिकार न हो जाये।

आज देश में बहुत चमचमाते एवं भव्यतम विश्वविद्यालय परिसरों की बाढ़ आ गई है। ये निजी विश्वविद्यालयों के परिसर हैं जिनकी इमारतें शानो-शौकत का नमूना लगती हैं, लेकिन ज्यादातर विश्वविद्यालय छात्रों से भारी फीस वसूलने एवं शिक्षा के व्यावसायिक होने का उदाहरण बन रहे हैं, जो शिक्षकों को कम पैसे देने, पढ़ाई का ज्यादा दिखावा करने, राजनीतिक एवं साम्प्रदायिक विष पैदा करने एवं हिंसा- अराजकता के केन्द्र बने हुए हैं।

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