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क्या राज्यपाल का पद राज्यों के विकास में बाधक है? - श्रीनारद मीडिया

क्या राज्यपाल का पद राज्यों के विकास में बाधक है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत के कई राज्यों में विधेयकों के पारित होने के संबंध में मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच बातचीत को लेकर मुद्दे सामने आए हैं। मुख्यमंत्रियों ने चिंता व्यक्त की है कि राज्यपालों ने उनकी सहमति के लिये प्रस्तुत विधेयकों पर कार्रवाई करने में देरी की है।

  • यह स्थिति लोकतंत्र के कामकाज़ और विधायी प्रक्रिया में बाधा डालने के संभावित परिणामों के बारे में महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाती है।

राज्यपाल से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 के तहत प्रत्येक राज्य के लिये एक राज्यपाल का प्रावधान किया गया है। एक व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जा सकता है।
    • राज्यपाल को राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर एवं मुहर सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त किया जाता है और वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है (अनुच्छेद 155 और 156)
  • अनुच्छेद 161 में कहा गया है कि राज्यपाल के पास क्षमा आदि की और कुछ मामलों में दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति है।
    • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह निर्णय दिया गया था कि किसी बंदी को क्षमा करने की राज्यपाल की संप्रभु शक्ति वास्तव में स्वयं उपयोग किये जाने के बजाय राज्य सरकार के साथ आम सहमति से प्रयोग की जाती है।
    • सरकार की सलाह राज्य प्रमुख (राज्यपाल) पर बाध्यकारी है।
  • कुछ विवेकाधीन शक्तियों के अतिरिक्त राज्यपाल को उसके अन्य सभी कार्यों में सहायता करने और सलाह देने के लिये मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद का गठन किये जाने का प्रावधान है। (अनुच्छेद 163)
    • विवेकाधीन शक्तियों में शामिल हैं:
      • राज्य विधानसभा में किसी भी दल का स्पष्ट बहुमत न होने पर मुख्यमंत्री की नियुक्ति।
      • अविश्‍वास प्रस्‍ताव के दौरान।
      • राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता के मामले में (अनुच्छेद 356)
  • अनुच्छेद 200:
    • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 200 किसी राज्य की विधानसभा द्वारा पारित विधेयक को सहमति के लिये राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रक्रिया को रेखांकित करता है, जो या तो सहमति दे सकता है, सहमति को रोक सकता है या राष्ट्रपति के विचार के लिये विधेयक को आरक्षित कर सकता है।
    • राज्यपाल सदन या सदनों द्वारा पुनर्विचार का अनुरोध करने वाले संदेश के साथ विधेयक को वापस भी कर सकता है।
      • पुरुषोत्तम नंबुदिरी बनाम केरल राज्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया कि राज्यपाल की सहमति के लिये लंबित विधेयक सदन के भंग होने पर व्यपगत नहीं होता है।
        • न्यायालय ने अनुच्छेद 200 और 201 में समय-सीमा की अनुपस्थिति से यह निष्कर्ष निकाला कि निर्माताओं का इरादा राज्यपाल की सहमति की प्रतीक्षा करने वाले बिलों के समाप्त होने का जोखिम नहीं था।
    • अनुच्छेद 200 का दूसरा प्रावधान राज्यपाल को किसी विधेयक को राष्ट्रपति को संदर्भित करने का विवेकाधिकार देता है यदि वह मानता है कि इसके पारित होने से उच्च न्यायालय की शक्तियों का उल्लंघन होगा। राष्ट्रपति की सहमति की प्रक्रिया अनुच्छेद 201 में उल्लिखित है।
      • शमशेर सिंह मामले में न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति के विचारार्थ विधेयकों को आरक्षित रखने की राज्यपाल की शक्ति विवेकाधीन प्राधिकार का एक उदाहरण है।
  • अनुच्छेद 201:
    • इसमें कहा गया है कि जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित होता है, तो राष्ट्रपति विधेयक पर सहमति दे सकता है या उस पर रोक लगा सकता है।
    • राष्ट्रपति राज्यपाल को विधेयक पर पुनर्विचार के लिये सदन या राज्य के विधानमंडल के सदनों को वापस करने का निर्देश भी दे सकता है।
  • अनुच्छेद 361:
    • संविधान के अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को अपनी शक्तियों द्वारा किये गए किसी भी कार्य हेतु न्यायालयी कार्यवाही से पूर्ण छूट प्राप्त है।

भारत में विधेयकों पर राज्यपाल द्वारा अनुमति रोके जाने के हाल के उदाहरण:  

  • अप्रैल 2020 में छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने वर्ष 2019 में राज्य विधानसभा द्वारा पारित एक विधेयक पर सहमति रोक दी, जिसमें छत्तीसगढ़ लोकायुक्त अधिनियम, 2001 की धारा 8(5) में संशोधन करने की मांग की गई थी।
  • सितंबर 2021 में तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें केंद्र सरकार और राष्ट्रपति से आग्रह किया गया है कि सदन में लाए गए विधेयकों पर राज्यपाल की सहमति के लिये एक समय-सीमा निर्धारित की जाए। तमिलनाडु के राज्यपाल ने राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) से छूट वाले विधेयक को काफी विलंब के बाद राष्ट्रपति को भेजा।
  • फरवरी 2023 में केरल में राज्यपाल द्वारा लोकायुक्त संशोधन विधेयक और केरल विश्वविद्यालय संशोधन विधेयक को स्वीकृति नहीं देने की सार्वजनिक रूप से की गई घोषणा की वजह से अजीब स्थिति उत्पन्न हो गई है।
  • राज्यपाल ने इन विधेयकों की संवैधानिकता और वैधता पर आपत्ति जताई है।

विधेयकों पर अनुमति रोकने की राज्यपाल की शक्ति के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का पक्ष और आयोगों की सिफारिशें:

  • सर्वोच्च न्यायालय का पक्ष: नबाम रेबिया और बामंग फेलिक्स बनाम उपाध्यक्ष मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल का विवेकाधिकार यह तय करने तक सीमित है कि किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार हेतु आरक्षित किया जाना चाहिये या नहीं।
    • न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि अनुच्छेद 163(2) को अनुच्छेद 163(1) के साथ पढ़ा जाना चाहिये, यह सुझाव देते हुए कि केवल ऐसे मामले जो स्पष्ट रूप से राज्यपाल को स्वायत्तता से कार्य करने की अनुमति देते हैं, न्यायिक चुनौती के दायरे से बाहर हैं।
    • इसलिये अनिश्चित काल हेतु विधेयक पर सहमति रोकना असंवैधानिक है और इस संबंध में राज्यपाल की कार्रवाई या निष्क्रियता न्यायिक समीक्षा के अधीन हो सकती है।
  • पुंछी आयोग (2010): इस आयोग ने यह सुझाव दिया कि एक ऐसी समय-सीमा का निर्धारण किया जाना आवश्यक है जिसके भीतर राज्यपाल विधेयक के संबंध में सहमति जताने अथवा इसे राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखने का निर्णय ले सके।
  • राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग (National Commission to Review the Working of the Constitution- NCRWC): इस आयोग ने चार महीने की एक समय-सीमा निर्धारित की जिसके भीतर राज्यपाल को निर्णय ले लेना चाहिये कि विधेयक को अनुमति देनी है या इसे राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित रखना है

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