साहित्य, अंधकार को मिटा तो नहीं सकता पर उसे मिटाने की प्रेरणा दे सकता है-भीष्‍म साहनी

साहित्य, अंधकार को मिटा तो नहीं सकता पर उसे मिटाने की प्रेरणा दे सकता है-भीष्‍म साहनी

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पुण्यतिथि पर विशेष 

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भीष्‍म साहनी ने कहा है, ‘साहित्य, अंधकार को मिटा तो नहीं सकता पर उसे मिटाने की प्रेरणा दे सकता है, अंधकार मिट सकता है, इसका विश्वास पाठक को दे सकता है उसमें अंधकार से जूझने की चेतना/क्षमता जगा सकता है, इंसान को उसके दायित्व का बोध तो करा सकता है.’

भीष्म साहनी कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार के साथ एक सशक्त अभिनेता भी थे। उन्होंने हिंदी कथा लेखक, नाटककार, अनुवादक और एक शिक्षक के तौर पर हिंदी साहित्य को बहुत बड़ा योगदान दिया है। प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले मशहूर लेखक भीष्म साहनी ने स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया और अपनी जीवन यात्रा से कई लोगों को प्रेरित किया।

सच तो यह है कि दुनिया को बदलने का बीड़ा साहित्य ने कभी नहीं उठाया था;दुनिया को सचेत करने की बात साहित्य में उठती रही है,और आज भी उठ रही है,पर वह केवल सचेत करने तक ही अपनी भूमिका समझता रहा है।प्रेमचंद ने भी जब कहा था कि लेखक,समाज के आगे मशाल लेकर चलने वाला जीव है,कि वह मात्र अनुकरण करने वाला जीव नहीं है,तो प्रेमचंद भी इसी बात पर बल द् रहे थे कि लेखक कीभूमिका सचेत करने की है,रास्ता दिखाने की है,जिंदगी के यथार्थ की तस्वीर आपकी आँखों के सामने लाने की है।लेखक केवल सुझा सकता है। भीष्म साहनी

नामवर सिंह ने सच ही लिखाथा कि ‘होगा कोई ऐसा भी कि भीष्म को न जाने?’नामवरजी तो भीष्म साहनी को साहित्य के’ पितामह ‘की संज्ञा दी।कृषणा सोबती लिखती हैं,”भीष्म साहनी.एक ऐसा व्यक्तित्व,एक ऐसा चेहरा जो दशकों के आर पार बदला नहीं.साधरणतया छोटे-बड़े नये-पुराने लेखकों की भंगिमाएं हर नयी कृति के साथ बदलती है मगर भीष्म साहनी एक अभिनेता और नाटककार होते हुए भी इस बौद्धिक बहुरूपियेपन से बरी रहे।”

आज हम जिस दौर को देख रहे हैं तो पाते हैं कि चारों ओर धार्मिक कट्टरता और रूढ़ीवाद का बोलबाला है। उन्होंने संस्थागत धर्म की आलेचना करते हुए कहा कि वह अपने चरम रूप में मानवता विरोधी है और ये धार्मिक संगठन तानासाहों के पीछे खड़े हो जाते हैं। यह हमलोग देख रहे हैं। भीष्म साहनी धर्म को रूमानी रूप में दिखाए जाने के सख्त विरोधी थे। यह मनुष्य को धर्मान्ध बनाता है।

यह आए दिन हम देख रहे हैं. भीष्मजी मानते थे कि धर्म के प्रति यह नजरिया प्रगति का बाधक है। नामवरजी ने अपनी आलोचना में इस बात को लिखा कि भीष्म साहनी लोगों के मिल जुल कर बैठने की समस्कृति पर बहुत जेड़ देते थे। उन्हीं के शब्दों में,” हमारे देश की संस्कृति, मेल- मिलाप की ही संस्कृति रही है । गांवों कस्बों में विशेष कर।”यह संस्कृति क्षीण हो रही है. नामवरजी की भी यही चिंता थी।

पाकिस्तान में हुआ था साहनी का जन्म

अविभाजित भारत में 8 अगस्त, 1915 को रावलपिंडी (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मे डॉ. साहनी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गृहनगर से ही पूरी की। इसके बाद उन्होंने लाहौर के सरकारी कॉलेज से स्नातक में पढ़ाई की।  डॉ. साहनी अंग्रेजी साहित्य में एमए थे। उन्होंने साल 1935 में लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेजी विषय में एमए की परीक्षा पास की और डॉ इन्द्रनाथ मदान के निर्देशन में ‘कंसेप्ट ऑफ द हीरो इन द नॉवल’ विषय पर शोध कार्य किया। पढ़ाई के अलावा, साहनी को कॉलेज में नाटक, वाद-विवाद और हॉकी में रुचि थी। इतना ही नहीं, वह बहुभाषी थे और हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी, संस्कृत, रूसी और उर्दू भाषाएं जानते थे। साल 1958 में उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की।

विभाजन के बाद भारत में ही बसने का लिया फैसला

अपने जीवन काल में 100 से अधिक लघु कथाएं और कई नाटक लिखने वाले साहनी ने साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। मार्च 1947 में जब रावलपिंडी में सांप्रदायिक दंगे हुए। इस दौरान उन्होंने राहत समिति में भी काम किया। 1947 में देश के विभाजन के बाद 14 अगस्त, 1947 को भारत आने वाली आखिरी ट्रेन से वह रावलपिंडी से आ गए और भारत में ही रहने का फैसला किया।

पद्म भूषण सम्मान से किया गया सम्मानित

मशहूर लेखक भीष्‍म साहनी को उनके अभूतपूर्व लेखन के लिए साल 1979 में शिरोमणि लेखक पुरस्कार, 1975 में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, इसी वर्ष उनको तमस के लिए ही उत्तर प्रदेश सरकार पुरस्कार, उनके नाटक हनुसा के लिए 1975 में मध्य प्रदेश कला साहित्य परिषद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उनको साल 1980 में एफ्रो-एशिया राइटर्स एसोसिएशन के लोटस अवॉर्ड और 1983 में सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। हालांकि, साल 1998 में पद्मभूषण अलंकरण से भी विभूषित होने वाले भीष्म साहनी 11 जुलाई, 2003 को इस संसार को अलविदा कह गए।

‘तमस’ के लिए किए जाते रहेंगे याद

भीष्म साहनी की उनकी सबसे लोकप्रिय और कालजयी रचना ‘तमस’ के लिए उनको पूरा साहित्य जगत याद करता रहेगा। साहनी की यह रचना भारत और पाकिस्तान के विभाजन पर आधारित है। इस उपन्यास का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उनके इस उपन्यास के लिए साल 1975 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। डॉ साहनी ने हमेशा अपने लेखन में मानव मूल्यों को स्थापित किया, जिसके कारण उन्हें साहित्य जगत में आदर्शवादी लेखक भी कहा जाता है। भीष्म साहनी के मन-मस्तिष्क में ‘तमस’ के लेखन बीज पड़वाने में उनके बड़े भाई बलराज साहनी का बहुत बड़ा योगदान था।

प्रमुख रचनाएंः

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