उत्तर भारत में बाढ़ के कारणों की चर्चा करें

उत्तर भारत में बाढ़ के कारणों की चर्चा करें

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत को भारी वर्षा या अतिवृष्टि की लगातार घटनाओं का सामना करना पड़ा है जो देश के विभिन्न हिस्सों में व्यापक विनाश, भूस्खलन, ‘फ्लैश फ्लड’ और जान-माल की हानि का कारण बने हैं।

वर्षा का वितरण और इसकी तीव्रता विभिन्न कारकों से प्रभावित हुई है, जैसे कि मानसूनपश्चिमी विक्षोभ (western disturbance)अल नीनो-दक्षिणी दोलन (El Nino-Southern Oscillation- ENSO), हिंद महासागर द्विध्रुव (Indian Ocean Dipole- IODऔर जलवायु परिवर्तन

उत्तर भारत में भारी वर्षा के क्या कारण हैं?

  • पश्चिमी विक्षोभ और मानसूनी गर्त के बीच अंतःक्रिया:
    • उत्तर भारत में भारी वर्षा मुख्य रूप से पश्चिमी विक्षोभ (भूमध्यसागरीय क्षेत्र से उत्पन्न एक निम्न दाब तंत्र) और मानसून गर्त (Monsoon Trough) (मानसून पवन पट्टी के साथ एक निम्न दाब क्षेत्र) के बीच अंतःक्रिया के कारण होती है।
    • इस अंतःक्रिया के कारण हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा जैसे क्षेत्रों में तीव्र वर्षा होती है
  • अधिक वर्षा और अल्प वितरण:
    • जून के अंत तक वर्षा में 10% की कमी का अनुभव करने के बाद उत्तर भारत में मानसून गतिविधि में वृद्धि देखी गई है, जिसके परिणामस्वरूप देश भर में 2% अधिक वर्षा हुई है।
    • विशेष रूप से उत्तर-पश्चिम भारत में 59% अधिक वर्षा हुई है, जबकि प्रायद्वीपीय भारत और पूर्वी/पूवोत्तर भारत में क्रमशः 23% और 17% वर्षा की कमी का सामना करना पड़ा है।
  • समकालिक दशाएँ और जलवायु परिवर्तन:
    • उत्तराखंड में हाल में हुई भारी वर्षा और फ्लैश फ्लड की घटनाओं के लिये वैसी ही समकालिक दशाएँ (Synoptic Conditions) ज़िम्मेदार ठहराई गईं हैं, जैसी दशाएँ वर्ष 2013 के प्रलयंकारी बाढ़ के दौरान रही थीं।
      • इन दशाओं में एक सक्रिय मानसून (पर्याप्त नमी लाने वाली प्रबल निचले स्तर की पूर्वी पवनों के साथ) के साथ ही पूर्व की ओर आगे बढ़ते गर्त के कारण उत्पन्न ऊपरी स्तर का विचलन शामिल है।
    • जलवायु परिवर्तन भी एक भूमिका निभाता है, क्योंकि इससे अतिरिक्त नमी और पर्वतीय उत्थापन (orographic lifting) के कारण पहाड़ी क्षेत्रों और उसके आसपास भारी वर्षा होती है।
      • हिमालय की तलहटी और पश्चिमी घाट जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में पर्वतीय उत्थापन के कारण अत्यधिक वर्षा होती है।
      • पहाड़ियाँ नमी के प्रवाह को बाधित करती हैं, जिससे नमी जमा हो जाती है और भारी वर्षा का कारण बनती है।
  • फ्लैश फ्लड’ और ‘क्लाउडबर्स्ट’:
    • बादल फटने या ‘क्लाउडबर्स्ट’ (Cloudbursts) और अत्यधिक वर्षा की घटनाओं के कारण अचानक आने वाली बाढ़ या ‘फ्लैश फ्लड’ की भविष्यवाणी करना चुनौतीपूर्ण है।
    • ऐसी घटनाओं की निगरानी एवं पूर्वानुमान के लिये रडार तंत्र और फ्लैश फ्लड के लिये प्रवण क्षेत्रों के सतर्क अवलोकन की आवश्यकता होती है।
    • भूमि उपयोग परिवर्तन और विकास संबंधी गतिविधियाँ फ्लैश फ्लड की गंभीरता को बढ़ा सकती हैं।

भारत में वर्षा को प्रभावित करने वाले कारक 

  • वर्षा पर मानसून का प्रभाव:
    • मानसून पवनों का एक मौसमी उत्क्रमण है जो भारत में आर्द्र जलवायु और मूसलाधार वर्षा का कारण बनता है।
      • मानसून आमतौर पर जून से सितंबर माह तक रहता है, जहाँ जुलाई और अगस्त में अधिकतम वर्षा दर्ज़ की जाती है।
      • भारतीय मानसून बंगाल की खाड़ी और अरब सागर के बीच वायुदाब में अंतर के कारण उत्पन्न होता है
      • भारत में वर्षा का वितरण थार मरुस्थल एवं हिमालय के साथ ही हिंद महासागर, अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और प्रशांत महासागर के दक्षिणी भाग में तापमान एवं दाब में परिवर्तन से प्रभावित होता है।
  • पश्चिमी विक्षोभ का वर्षा पर प्रभाव:
    • पश्चिमी विक्षोभ एक निम्न दाब प्रणाली है जो भूमध्य सागर या पश्चिम एशिया के ऊपर उत्पन्न होता है और पूर्व की ओर (भारत की ओर) आगे बढ़ता है।
      • यह आमतौर पर शीत ऋतु (दिसंबर से फ़रवरी) के दौरान उत्तर-पश्चिमी भारत को प्रभावित करता है और हिमालयी क्षेत्रों में बर्फबारी तथा मैदानी इलाकों में वर्षा का कारण बनता है।
      • हालाँकि, कभी-कभी यह ग्रीष्म ऋतु में (जून से सितंबर) मानसूनी गर्त के साथ भी अंतःक्रिया कर सकता है और उत्तर भारत में भारी वर्षा ला सकता है।
    • पश्चिमी विक्षोभ स्थान, तीव्रता और समय के आधार पर मानसून गतिविधि को प्रबल या दुर्बल कर सकता है।
      • जब यह उत्तर-पश्चिमी भारत या पाकिस्तान के ऊपर स्थित होता है तो यह वातावरण में नमी लाकर और अस्थिरता उत्पन्न कर मानसून गतिविधि को प्रबल कर सकता है।
      • जब यह मध्य या पूर्वी भारत में स्थित होता है तो यह एक उच्च दाब प्रणाली का निर्माण कर मानसून गतिविधि को दुर्बल बना सकता है जो फिर मानसूनी पवनों को अवरुद्ध कर देती है।
  • ENSO का वर्षा पर प्रभाव:
    • ENSO भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर के ऊपर समुद्री सतह के तापमान (SST) और वायुमंडलीय दाब का एक आवधिक उतार-चढ़ाव है।
    • ENSO हिंद महासागर, अरब सागर, बंगाल की खाड़ी और प्रशांत महासागर के दक्षिणी भाग पर वायुमंडलीय परिसंचरण पैटर्न को बदलकर भारत में वर्षा को प्रभावित कर सकता है।
      • अल नीनो (El Nino) भारत पर एक उच्च दाब प्रणाली का निर्माण कर मानसून को कमज़ोर या विलंबित कर देता है जो नमीयुक्त पवनों को भारत तक पहुँचने से रोकता है।
      • ला नीना (La Nina) भारत पर एक निम्न दाब प्रणाली का निर्माण कर मानसून के उभार को प्रबल या उन्नत करता है, जो नमीयुक्त पवनों को भारत की ओर आकर्षित करता है।
  • IOD का वर्षा पर प्रभाव:
    • IOD हिंद महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी के ऊपर नमी संचरण और संवहन को नियंत्रित करके भारत में वर्षा को प्रभावित कर सकता है।
    • IOD अपनी शक्ति, अवधि और समय के आधार पर भारत के विभिन्न क्षेत्रों को अलग-अलग तरीके से प्रभावित कर सकता है।
      • सकारात्मक IOD ग्रीष्म ऋतु में उत्तर-पश्चिमी भारत और शरद ऋतु में मध्य भारत में वर्षा की वृद्धि कर सकता है
      • नकारात्मक IOD ग्रीष्म ऋतु में उत्तर-पश्चिमी भारत में वर्षा की मात्रा कम कर सकता है और शरद ऋतु में प्रायद्वीपीय भारत में वर्षा की वृद्धि कर सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन:
    • जलवायु परिवर्तन समय और स्थान के विभिन्न पैमानों पर तापमान, आर्द्रता, वायुदाब, पवन और बादल के पैटर्न में परिवर्तन करके भारत में वर्षा को प्रभावित कर सकता है।
    • जलवायु परिवर्तन मानसून के उभार, अवधि, तीव्रता और स्थानिक वितरण को बदलकर इसे प्रभावित कर सकता है। कुछ अध्ययन सुझाव देते हैं कि-
      • जलवायु परिवर्तन भूमि-समुद्र तापमान विसंगति को बढ़ाकर मानसून के उभार में विलंब उत्पन्न कर सकता है, जो मानसूनी पवनों की उत्तर दिशा की ओर गमन को अवरुद्ध करता है।
      • जलवायु परिवर्तन हिंद महासागर में SST को बढ़ाकर मानसून के उभार को आगे बढ़ा सकता है, जिससे वातावरण में नमी की आपूर्ति बढ़ जाती है।
      • जलवायु परिवर्तन से अल नीनो घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता में वृद्धि हो सकती है, जिससे भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा (ISMR) में कमी आ सकती है और सूखे की वृद्धि हो सकती है।
      • जलवायु परिवर्तन से ला नीना घटनाओं की आवृत्ति एवं तीव्रता बढ़ सकती है, जिससे ISMR और बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि हो सकती है।
    • जलवायु परिवर्तन हिमालय और पश्चिमी घाट पर हिम आवरण, ग्लेशियर पिघलाव और मृदा की नमी में परिवर्तन लाकर भारत में पर्वतीय वर्षा को भी प्रभावित कर सकता है

भारत में भारी वर्षा के प्रमुख प्रभाव 

  • कृषि:
    • भारी वर्षा एवं बाढ़ से फसल, मृदा उर्वरता, सिंचाई अवसंरचना और पशुधन को नुकसान हो सकता है।
    • वे फसल की बुआई, कटाई, भंडारण और वितरण को भी प्रभावित कर सकते हैं।
      • इससे खाद्य असुरक्षाकुपोषणनिर्धनता और किसानों के संकटपूर्ण पलायन की स्थिति बन सकती है।
  • जल संसाधन:
    • भारी वर्षा एवं बाढ़ भूजल, सतह जल और मृदा नमी के स्तर का पुनर्भरण कर सकते हैं।
    • वे प्रदूषकों को बाहर बहाकर जल की गुणवत्ता में भी सुधार कर सकते हैं।
      • हालाँकि वे जलभराव, कटाव, अवसादन, भूस्खलन, बांध टूटने और जल स्रोतों के दूषित होने का कारण भी बन सकते हैं।
      • इससे जल की कमी, जल के लिये संघर्ष, जलजनित बीमारियों और लोगों के विस्थापन की स्थिति बन सकती है।
  • ऊर्जा:
    • भारी वर्षा एवं बाढ़ नदी के प्रवाह और जलाशय के स्तर को बढ़ाकर जल विद्युत उत्पादन की वृद्धि कर सकते हैं।
    • वे कोयले की आपूर्ति और शीतलन प्रणालियों को प्रभावित कर तापीय विद्युत उत्पादन को कम कर सकते हैं।
      • वे बिजली संयंत्रों, ट्रांसमिशन लाइनों, सबस्टेशनों और वितरण नेटवर्क को नुकसान भी पहुँचा सकते हैं।
      • इससे पावर आउटेज, ब्लैकआउट, घाटे और दुर्घटनाओं की स्थिति बन सकती है।
  • यातायात:
    • भारी वर्षा एवं बाढ़ नदियों और झीलों में जल स्तर बढ़ाकर नौवहन में सुधार कर सकते हैं
      • हालाँकि वे भूस्खलन, बाढ़, ट्रैफिक जाम, देरी, सुविधाओं के रद्दीकरण, दुर्घटनाओं और मौतों का कारण बनकर सड़क, रेल, वायु और जल परिवहन को बाधित भी कर सकते हैं।
  • स्वास्थ्य:
    • भारी वर्षा एवं बाढ़ धूल के कणों और एरोसोल को बहाकर वायु प्रदूषण को कम कर सकते हैं।
    • वे तापमान और आर्द्रता को कम करके ‘हीट स्ट्रेस’ को भी कम कर सकते हैं।
      • हालाँकि, वे वेक्टर-जनित बीमारियों को भी बढ़ा सकते हैं।

बाढ़ से निपटने के लिये प्रमुख सरकारी पहलें 

  • राष्ट्रीय बाढ़ जोखिम शमन परियोजना (National Flood Risk Mitigation Project- NFRMP):
    • इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कमज़ोर समुदायों के बीच जागरूकता पैदा करने के अलावा आपदाओं से राहत, पुनर्वास, पुनर्निर्माण और पुनर्प्राप्ति के लिये संसाधन एवं क्षमता जुटाने की व्यवस्था की जाए।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (National Disaster Management Plan- NDMP): 
    • यह आपदा प्रबंधन चक्र के सभी चरणों- जैसे रोकथाम, शमन, तैयारी, प्रतिक्रिया, पुनर्प्राप्ति और पुनर्निर्माण के लिये एक रूपरेखा एवं दिशा प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA): 
    • यह प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में भारत में आपदा प्रबंधन के लिये शीर्ष निकाय है।
    • यह आपदा प्रबंधन के लिये नीतियाँ, योजनाएँ और दिशानिर्देश तय करता है तथा उनके कार्यान्वयन का समन्वय करता है।
  • भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department- IMD): 
    • यह वर्षा या चक्रवाती घटना का पूर्वानुमान प्रदान करता है जिसका उपयोग सभी एजेंसियाँ बाढ़ से निपटने की तैयारी के लिये करती हैं।
    • यह भारी वर्षा, फ्लैश फ्लड, भूस्खलन और क्लाउडबर्स्ट के लिये चेतावनी एवं सलाह भी जारी करता है।
  • केंद्रीय जल आयोग (Central Water Commission- CWC): 
    • यह प्रमुख नदियों और जलाशयों के जल स्तर की निगरानी करता है तथा बाढ़ और अंतर्वाह के संबंध में पूर्वानुमान जारी करता है।
    • यह बाढ़ क्षति का आकलन और बाढ़ मैदान क्षेत्रीकरण (flood plain zoning) भी करता है। यह बाढ़ प्रबंधन के लिये राज्य सरकारों को तकनीकी मार्गदर्शन और सहायता भी प्रदान करता है।
  • राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केंद्र (National Remote Sensing Centre- NRSC):
    • यह बाढ़ की निगरानी, मानचित्रण, क्षति आकलन और राहत योजना के लिये उपग्रह-आधारित जानकारी प्रदान करता है।
    • यह बाढ़ आप्लावन मॉडल (flood inundation models) और बाढ़ जोखिम मानचित्र (flood risk maps) भी विकसित करता है।

आगे की राह

  • संस्थागत और विधिक ढाँचे को सशक्त बनाना:
    • राष्ट्रीय, राज्य और स्थानीय स्तर पर बाढ़ एवं भूस्खलन प्रबंधन के लिये संस्थागत और विधिक ढाँचे को सशक्त करना।
    • इसमें बाढ़ एवं भूस्खलन प्रबंधन के लिये समर्पित एजेंसियों या विभागों की स्थापना करना; विभिन्न हितधारकों के बीच समन्वय एवं सहयोग बढ़ाना; भूमि उपयोग, निर्माण, खनन आदि के लिये नियमों एवं मानकों को लागू करना और आपदा प्रबंधन गतिविधियों में जवाबदेही एवं पारदर्शिता सुनिश्चित करना शामिल है।
  • वैज्ञानिक और तकनीकी क्षमताओं को बढ़ाना:
    • इसमें खतरे, भेद्यता और जोखिम का आकलन करना; बाढ़ एवं भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की मैपिंग एवं ज़ोनिंग करना; पूर्व-चेतावनी प्रणाली एवं पूर्वानुमान मॉडल विकसित करना; संरचनात्मक एवं गैर-संरचनात्मक शमन उपायों को लागू करना; अनुसंधान एवं नवाचार को बढ़ावा देना और मानव संसाधनों एवं क्षमताओं का निर्माण करना शामिल है।
  • आपदा तैयारी में सुधार लाना:

Leave a Reply

error: Content is protected !!