भारतीय मुस्लिम आज भी देश का सबसे निर्धन समुदाय हैं,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारतीय मुस्लिम आज भी देश का सबसे निर्धन समुदाय हैं। क्या कारण है कि आजादी के 76 वर्षों के बाद भी यह स्थिति है, जबकि इनमें से 60 साल तक ‘मुस्लिम-फर्स्ट’ वाले सेकुलरिज्म की आजमाइश की गई थी?
पहला अध्ययन ऑल इंडिया डेट एंड इंवेस्टमेंट सर्वे (एआईडीआईएस) द्वारा किया गया है। दूसरा पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) का है। ये दोनों इस असहज कर देने वाली सच्चाई को उजागर करते हैं कि भारत के दल आजादी के बाद से ही मुस्लिमों की उपेक्षा करते आ रहे हैं। ये सर्वेक्षण दिखाते हैं कि सेकुलर होने का दिखावा करने वाली पार्टियां उलटे मुस्लिमों का आर्थिक अहित ही अधिक करती हैं।
सर्वेक्षणों का पहला नतीजा यह है कि भारत के सभी समुदायों में मुस्लिमों का उपभोग-स्तर और घरेलू-सम्पत्तियां सबसे कम हैं। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि तमाम सामाजिक-आर्थिक वर्गों में- अति निर्धन से लेकर अत्यंत धनाढ्य तक- मुस्लिमों की गरीबी अन्य धार्मिक-समूहों की तुलना में अधिक पाई गई है।
मिसाल के तौर पर, भारत के सर्वाधिक आमदनी वाले शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों में मुस्लिमों की संख्या आधे से भी कम है। लेकिन सबसे कम आमदनी वाले निचले 10 प्रतिशत आय-समूहों में मुस्लिमों की संख्या कुल आंकड़े से लगभग दोगुनी है।
इन आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए अभिषेक झा और रोशन किशोर ने हिंदुस्तान टाइम्स में लिखा कि ‘इससे साफ पता चलता है भारतीय मुस्लिमों को शैक्षिक और आर्थिक उन्नयन की सख्त जरूरत है। ये सच है कि भारत के मुस्लिम-नेतृत्व ने भी इसमें अधिक रुचि नहीं दिखाई है, लेकिन पूछा जाना चाहिए कि क्या भारतीय राजनीति के बहुसंख्यकवादी झुकाव के कारण मुस्लिमों की आर्थिक चिंताओं को ताक पर रखते हुए उनकी पहचान की चिंताओं को अधिक बढ़ावा दिया जाने लगा है?’
जबकि इसके बजाय यह पूछा जाना चाहिए कि क्या नकली सेकुलरिज्म ने मुस्लिमों को अधिक नुकसान नहीं पहुंचाया है और क्या उसने उनको और अलग-थलग नहीं कर दिया है, जिससे वे आर्थिक रूप से हाशिए पर चले गए हैं? मुस्लिम समुदाय को प्रबुद्ध नेतृत्व की जरूरत है। धर्मगुरुओं का हित तो इसी में रहेगा कि मुस्लिम गरीब और पिछड़े बने रहें, जिससे उनमें उत्पीड़ित होने का भाव चला आए।
आजादी के बाद से ही सेकुलर राजनीति ने मुस्लिमों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए न के बराबर कोशिशें की हैं। इसके बजाय उसने मुस्लिमों में पृथक होने का भाव पैदा किया है। वे मुस्लिम वोटरों से कहते हैं कि मेरी पार्टी के लिए एकजुट होकर वोट डालो, लेकिन यह मत पूछो कि आपने हमें गरीबी से बाहर लाने के लिए क्या किया? ये पार्टियां मुस्लिम वोटों को एक ऐसी सम्पत्ति की तरह देखती हैं, जिसका दोहन हर चुनाव में किया जा सके, और चुनाव के बाद मुस्लिमों की उपेक्षा पहले की तरह की जाती रहे।
भाजपा भी इसके लिए कम दोषी नहीं है। वह अपने 40 प्रतिशत वोट-शेयर को सुरक्षित रखने के लिए ध्रुवीकरण को बढ़ावा देती है। प्रधानमंत्री स्वयं को देश में हिंदुत्व आइकन और विदेश में समावेशी वैश्विक नेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। अपने दोनों कार्यकालों के दौरान नरेंद्र मोदी ने मध्य-पूर्व और उत्तरी-अफ्रीका के मुस्लिम देशों से मेलजोल बढ़ाने की कोशिशें की हैं।
उन्होंने मिस्र के राष्ट्रपति को गणतंत्र दिवस समारोह पर मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया था। मुस्लिम वर्ल्ड लीग के महासचिव डॉ. मोहम्मद बिन अब्दुल-करीम अल-इस्सा तो हाल ही में भारत-यात्रा पर आए थे और अजित डोभाल ने उनका भावभीना स्वागत किया था।
दिल्ली में खुसरो फाउंडेशन द्वारा आयोजित कार्यक्रम में अल-इस्सा ने कहा, ‘मुस्लिम वर्ल्ड लीग का मकसद है अपने मजहब की सच्ची छवि प्रस्तुत करना, ताकि दुनिया के दूसरे धर्मों से मजबूत सम्बंध बनाए जा सकें। भारत में रहने वाले मुस्लिमों को अपनी राष्ट्रीयता और संविधान पर गर्व है और भारत में धार्मिक जागरूकता सह-अस्तित्व में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।’ लेकिन इन बातों का भारतीय मुस्लिमों की वास्तविकता पर कोई असर नहीं पड़ता।
उनका लम्बे समय से वोटों के लिए शोषण किया जा रहा है। उनके हितों को दरकिनार कर दिया जाता है। प्रबुद्ध मुस्लिमों की आवाजें भी यदा-कदा ही सुनाई देती हैं। डॉ. अब्दुल कलाम और आरिफ मोहम्मद खान सरीखी उदार आवाजें कम ही हैं।
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