समसामयिक सामाजिक सरोकार का सशक्त माध्यम रहा है चकचंदा
* शिक्षकों के छात्रों के घरों तक पहुंचने का अवसर था चकचंदा
श्रीनारद मीडिया, सीवान(बिहार):
हमारे लोकजीवन से कुछ लोकपर्व व लोक परंपराएं अप्रसांगिक होकर विलुप्त हो चुके हैं। इन्हीं में शामिल हैं चकचंदा की मीठी यादें। चकचंदा 70 के दशक तक हमारे लोकजीवन में इस कदर शामिल था कि गुरुजी व छात्र दोनों सालभर इसकाल इंतजार करते थे। आज की पीढ़ी के लिए यह कौतुहल का विषय हो सकता है।
अलबत्ता,चकचंदा भादो के शुक्ल पक्ष के चौथ को बिहार में मनाया जानेवाला एक महत्वपूर्ण त्योहार है, किसी जमाने में जिसका सीधा संबंध शिक्षकों,अभिभावकों और छात्रों के बीच था।यू कहें कि इसके तीसरे कोण के रुप में बच्चों के अभिभावक थे। चकचंदा शिक्षकों का अभिभावकों से संपर्क का एक सशक्त माध्यम था। जब शिक्षक बच्चे के घर पहुंचते तो बच्चों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक स्थिति का पता चलता था। सहज रुप से शिक्षकों का अभिभावकों से परिचय हो जाता था। यूं कहें कि चकचंदा सामाजिक सरोकार स्थापित करने एक सहज माध्यम था।
आज सरकार शिक्षकों को अभिभावकों से जोड़ने के प्रयास के तहत कई योजनाएं ला चुकी है। लेकिन आज से दशकों पूर्व यह व्यवस्था शिक्षकों ने बना रखी थी। हालांकि आज भी भादो महीने की शुक्ल चतुर्थी को चकचंदा मनाया जाता है। लेकिन अब लोग इस दिन भगवान गणेश की पूजा करते हैं। लेकिन गुरुजी बच्चों के साथ गांवों का भ्रमण नहीं करते।
उस दौर की बात है जब स्कूली शिक्षा व्यवस्था सरकारी दायरे के बाहर थी। हालांकि विद्यालय के सरकारी होने के बाद भी बनी रही। उस जमाने में गुरुजी को बहुत कम वेतन मिलता था। ऐसे में गुरुजी जीविकोपार्जन के साधन के रुप में छात्रों से गुरुदक्षिणा प्राप्त कर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत करते थे।
भादो के महीने में तब चकचंदा को समारोहपूर्वक मनाया जाता था।भाद्रपद चतुर्थी से आरम्भ कर अगले दस दिनों में गांव के सभी घरों में जाकर विद्यार्थी गणेश वंदना गाते और चकचंदा के गीत गाकर चकचंदा मांगते थे। माँगी हुई चंदा गुरूजी को ससम्मान पहुंचा दिया जाता था। यह गुरुदक्षिणा अनाज और वस्त्र के रुप में होती थी। दरअसल ग्रामीण संस्कृति में परस्पर जीने की कला का उल्लासमय आयोजन नाम था चकचंदा। भादो के चौथ यानी गणेश चतुर्थी पर आयोजित होने वाला चकचंदा अब हमारी लोकसंस्कृति का हिस्सा नहीं रहा। गुरुजी और समाज के बीच भावनात्मक लगाव का प्रतीक चकचंदा विलुप्त- सा हो गया है।
हां,इसकी थोड़ी-बहुत यादें हमारे समाज के बुजर्ग लोगों के दिलोदिमाग में जरुर रची-बसी हैं। सामाजिक चिंतक भगरासन यादव बताते हैं कि इस दौरान संसाधन कम थे और श्रद्धा और उत्साह ज्यादा। गुरु के प्रति श्रद्धा अगाध थी। स्कूली जिंदगी का जिक्र होते ही श्री यादव चहक जाते हैं। बचपन के किस्से और यादें उन्हें गुदगुदाने लगते हैं।
श्री यादव के संस्मरण से ये दो पंक्तियां-‘गुरुजी के देहला से धन नाही घटी,होई जईहें रउवो बड़ाई मोर बाबूजी’ गुनगुनाते हैं। वे कहते हैं कि हमारे संसाधन भले कम थे,लेकिन हौसले बुलंद थे।वहीं सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश पांडेय उन दिनों को याद करते रोमांचित हो जाते हैं।कहते हैं बच्चे घर-घर और गुरुजी द्वार-द्वार होते थे।
श्री पांडेय चकचंदा का गीत सुनाते हैं-‘चौदह बरिस बीत गईले रामचंद्र घरे अईनी, घरे-घरे बाजेला बधाई रे बलकवा’। वे कहते हैं कि बच्चों का शिक्षक के प्रति अटूट श्रद्धा थी और शिक्षकों में बच्चों के लिए वात्सल्य का भाव। चकचंदा के बहाने शिक्षकों का बच्चों के अभिभावकों से सुखद और सकारात्मक मुलाकात होती थी। इसका दूरगामी प्रभाव भी था।
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