जिसने हर किरदार को जिया: रेखा
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
लेखन सदैव से ही अभिव्यक्ति की सशक्त विधा रही है क्योंकि अगर आप नहीं चाहते कि आपके बाद आपकी स्मृति को भुला दिया जाए तो कुछ ऐसा कीजिए जो देखने-सुनने-पढ़ने व लिखने लायक हो। जी हां जिस ग्लैमर की चमक आपको मुंबई खींचती है, वह बहुत ही कम लोगों के हिस्से में आता है। सब कुछ दाव पर लगा देने के बाद भी हजारों में एकाध को ही मौका मिल पाता है। दया-माया-ममता तो बिरलों को ही नसीब हो पाती है। इन्हीं में से एक अभिनेत्री थी रेखा। अर्थात रेखा की प्रशंसा हो या निंदा, अतिरेक हमेशा मौजूद रहा है इसका उनका अपना व्यक्तित्व भी है जो अफवाहों को और हवा देता है। वह अपनी भूमिकाओं में गंभीर और करुणा मिश्रित शारीरिक मुद्राओं का बारीक सहारा लेती है।
सिने अभिनेत्री के बारे में लिखने पर किसी भी व्यक्ति को कभी पूरी सफलता नहीं मिल सकती क्योंकि यह कलात्मक कार्यों की भांति अत्यंत व्यक्तिगत विषय है। विद्वानों की मान्यता है कि हम अपनी लेखनी और भाषा के माध्यम से किसी भी अभिनेत्री के सत्कार का सत्यापन नहीं करा सकते, एक आत्मा या व्यक्ति का दूसरी आत्मा में एक प्रकार से उपरोक्त संपर्क के द्वारा ही ज्ञान ज्योति जला सकते हैं।
तमिल अभिनेता जैमिनी गणेशन और तेलुगू अभिनेत्री पुष्पवल्ली के घर मद्रास (चेन्नई) में पैदा हुई भानुरेखा गणेशन उर्फ रेखा का बचपन दूसरे बच्चों की तरह नहीं बिता। माता-पिता विवाहित नहीं थे और शायद इसलिए जैमिनी गणेशन ने एक पिता की भूमिका का गंभीरता से निर्वहन नहीं किया। बचपन में मिले उपेक्षा के इस दंश ने रेखा के जीवन पर इतना गहरा प्रभाव डाला कि वह कभी इससे अपने को अलग नहीं कर पाई।
रेखा तेलुगू फिल्म रंगुला रत्नम 1966 से बाल कलाकार के रूप में अपने अभिनय की यात्रा प्रारंभ की। बतौर नायिका पहली कन्नड़ फिल्म गोवा डल्ली सीआईडी 999 (1969) में नायिका के रूप में काम किया लेकिन हिंदी में पहली फिल्म 1970 में ‘सावन भादो’ नायक नवीन निश्चल के साथ रिलीज हुई।
कई फिल्म करने के बाद रेखा के फिल्मी कैरियर में जबरदस्त मोड़ तब आया जब उन्हें अभिनेता अमिताभ बच्चन का साथ मिला। रेखा ने अमिताभ बच्चन के साथ निर्देशक दुलाल गुहा की फिल्म ‘दो अंजाने’ में काम किया, लेकिन कैरियर में अहम मोड़ वर्ष 1978 में तब आया जब फिल्म ‘मुकद्दर का सिकंदर’ रिलीज हुई। प्रकाश मेहरा की इस फिल्म में रेखा और अमिताभ की जोड़ी ने पहली बार शोहरत के आसमान को छुआ। रातों-रात यह जोड़ी कामयाबी की गारंटी बन गई। रेखा और अमिताभ ने इसके बाद सुहाग, मिस्टर नटवरलाल और सिलसिला जैसी फिल्मों में साथ काम किया।
संवेदना के साथ सिनेमा
सत्य यही है कि रेखा ने अपने अधिकांश फिल्मों में हमें मानसिक रूप से झकझोरा ही हैं। सत्यता की जो शिक्षा अवचेतन में उन्होंने घर में देखी-सुनी-समझी उसका प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर भी रहा। मध्य और निम्न वर्ग की किरदार उनके अभिनय का प्रबल पक्ष रहा। फिर वह अभिनेत्री यदि हर एक वय के दर्शक वर्ग का चहेता कलाकार हो तो जीवन की पेचीदगियों और सफलताओं के बीच सामंजस्य बिठाकर कोई संतुलित बात कह पाना उल्लेखनीय माना जाएगा।
रेखा ने पीढ़ी की अंतराल को भी खूबसूरत बना दिया,जी हाॅ ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म ‘खूबसूरत’ (1980) को रेखा के कैरियर के लिहाज से अहम फिल्म माना जाता है। ‘खूबसूरत’ को उस समय सर्वश्रेष्ठ फिल्म का सम्मान तो मिला ही, रेखा ने भी पहली बार सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के फिल्म फेयर ट्रॉफी हासिल की। इसके बाद वर्ष 1981 में मुजफ्फर अली की फिल्म ‘उमराव जान’ आई, जिसमें खय्याम के सुरीले संगीत आशा भोंसले की सुमधुर गायकी और रेखा की उम्दा अदाकारी आज भी उनके फिल्मी कैरियर में उच्च शिखर माना जाता है। इस वर्ष जब राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों की घोषणा कि गई तो ‘उमराव जान’ के खाते में चार अवार्ड दर्ज हुए, जिनमें एक रेखा के नाम था सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए।
यह कहां आ गए हम यूं ही साथ….
एक दूसरे की आंखों में झिलमिलाते स्वप्न जैसे अमिताभ और रेखा ने पर्दे पर प्रेम के कई रंग बिखेरे। इश्क का सलाम पेश करती रेखा और एक एहसान की दुआ मांगते अमिताभ की परदे के बाहर की जिंदगी उन्हें पर्दे पर कामयाब करने का एक कारण मानी जाती रही है, लेकिन किरदार में डूब कर कहानी को जी लेने का उनका हुनर कभी कमतर नहीं आंका जा सकता। यही कारण था कि इन दोनों ने फिल्म ‘दो अंजाने’, ‘आलाप’, ‘खून पसीना’, ‘मुकद्दर का सिकंदर’, ‘नटवरलाल’, और सिलसिला में साथ काम किया लेकिन ‘सिलसिला’ जैसा कोई नहीं, कोई नहीं।
रेखा सहज संवाद की प्रतिमूर्ति रहीं….
रेखा की फिल्में संवाद गानों की तरह गुनगुनाए जाते हैं, इतने वर्षों में दर्शकों की दो-तीन पीढ़ियां बदल गई लेकिन इनके संवादों का नशा आज भी बरकरार है। फिल्म आती है और चली जाती हैं लेकिन इसके संवाद मानस पटल पर हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं, बाद में यही संवाद एक धरोहर के रूप में अगली पीढ़ी तक सौंप दिए जाते हैं और यह सफर निरंतर जारी रहता है। याद कीजिए फिल्म ‘मुकद्दर का सिकंदर’ का वह संवाद…..। रेखा(जोहरा बेगम)- इस कोठे पर लोग चोट खाकर आते हैं या चोट खाकर जाते हैं,ये पहला शख्स है जो मुझे चोट देकर जा रहा है। “अब तू दे दे दवा या तू दे दे जहर”
दिल चीज क्या है आप मेरी जान लीजिए…..
नृत्य हमेशा से भारतीय सिनेमा की आत्मा रही है। यह पूरे विमर्श का हिस्सा भी रहा है और कई बार एकदम से अलग भी।नृत्य कौशल के जरिए ही हिंदी सिनेमा ने दुनिया के लोगों के दिलों में अपनी खास जगह बनाई है। रेखा की फिल्मों में नृत्य विशेष आकर्षण का केंद्र रहे हैं उसे आप फिल्म ‘उमराव जान’, ‘मुकद्दर मुकद्दर का सिकंदर’ सहित कई फिल्मों के गीतों में देख सकते हैं।
रेखा ने अपने जीवन में सैकड़ों फिल्में की, जिनमें से कुछ फिल्में सफल हुई और कुछ में वे असफल भी रही, किन्तु वे फिल्म करती रही. रेखा ने अपने फिल्म जगत के सफर में हर तरह के किरदार के रूप में अभिनय किया, फिर चाहे वह मुख्य किरदार हो या सहायक किरदार, सभी किरदारों में उन्हें बहुत सराहा गया।
जिन फिल्मों में रेखा का जादू सर चढ़ कर बोला वह थी उमराव जान, खूबसूरत, सिलसिला, मुकद्दर का सिकंदर, खूब भरी मांग, खिलाड़ियों का खिलाड़ी. उमराव जान में रेखा का अभिनय अपने शिखर पर था. इस फिल्म में उनके नृत्य कला की सबने तारीफ की. खूबसूरत के लिए रेखा को पहली बार फिल्मफेयर की तरफ से सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब मिला।
रेखा की कुछ प्रसिद्ध फिल्में-
सावन भादो, ऐलान, रामपुर का लक्ष्मण, धर्मा, कहानी किस्मत की, नमक हराम, प्राण जाए पर वचन ना जाए, धर्मात्मा, दो अंजाने, खून पसीना, गंगा की सौगंध, घर, मुकद्दर का सिकंदर, सुहाग, मिस्टर नटवरलाल, खूबसूरत, सिलसिला, उमराव जान, निशान, अगर तुम ना होते, उत्सव, खून भरी मांग, इजाजत, बीवी हो तो ऐसी, भ्रष्टाचार, फूल बने अंगारे, खिलाडि़यों का खिलाड़ी, आस्था, बुलंदी, जुबैदा, लज्जा, दिल है तुम्हारा, कोई मिल गया, क्रिश, सदियां, सुपर नानी, शमिताभ।
मुझे तुम तो नजर से गिरा रहे हो….
लंदन में बीबीसी को 1986 में दिए गए साक्षात्कार में रेखा ने कहा था कि “मैं केवल एक कलाकार हूं आप सभी मुझे सुपरस्टार समझते हैं”,अब तक यानी बचपन से लेकर अभी तक मैंने 400 से अधिक फिल्मों में काम किया है और मेरे लिए सबसे अच्छे निर्देशक राज साहब यानी राज कपूर जी रहे। आगे मेरा शौक है कि मैं फिल्में बनाऊं और इसकी सारी विधा का निर्देशन करूं।
साक्षात्कार के दौरान ही उन्होंने मेहंदी हसन की एक ग़ज़ल को गुनगुनाया….
“मुझे तुम तो नजर से गिरा तो रहे हो
मुझे तुम कभी भी भुला ना सकोगे
न जाने मुझे क्यों यकीन हो चला है
मेरे प्यार को तुम मिटा ना सकोगे
मुझे तुम तुम नजर से गिरा रहे हो….।
रेखा के साथ जुड़े कुछ विवाद
यासीर उस्मान की किताब ‘रेखा: एन अनटोल्ड स्टोरी’ है में न सिर्फ रेखा के फिल्मी करियर, बल्कि उनकी निजी जिंदगी से जुड़ी कई बातों का विस्तार से वर्णन किया गया है।
यासिर उस्मान ने अपनी किताब में लिखा है, ‘रेखा ने विनोद मेहरा से शादी की थी। यह दोनों की पहली शादी थी मगर दोनों ने ही इस शादी का जिक्र कभी नहीं किया। दोनों ने कोलकाता में शादी की थी। शादी के बाद जब विनोद अपनी नई नवेली दुल्हन रेखा को लेकर घर पहुंचे तो विनोद की मां कमला मेहरा ने रेखा को बहू मानने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं, रेखा जब उनके पैर छूने के लिए झुकीं तो कमला मेहरा ने उन्हें धक्का दे दिया था।’
रेखा और मुकेश अग्रवाल
रेखा ने फिर एक बार अपने साहस को बटोरा और नई जिंदगी शुरू करने के लिए उद्योगपति मुकेश अग्रवाल से 4 मार्च 1990 को विवाह किया, लेकिन विवाहित जीवन कुछ ही महीने चला और रहस्यमय ढंग से उद्योगपति मुकेश अग्रवाल ने अपने दिल्ली स्थित फॉर्म हाउस में 2 अक्टूबर 1990 को फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। इसे लेकर कई तरह की अफवाहें उठी लेकिन रेखा ने उस पर कुछ भी नहीं बोला।
सिमी गरेवाल ने रेखा से अपने शो ‘Rendezvous’ में अमिताभ बच्चन को लेकर सवाल पूछे तो उन्होंने कहा कि, “पूरी दुनिया अमिताभ जी की फैन है। अगर मैं भी उनकी फैन हूं तो यह इतनी बड़ी बात क्यों बन जाती है।”
बरहाल सिनेमा मानव हृदय का विशाल दर्पण है। सिनेमा में एक शिक्षा है शिक्षा में एक सिनेमा है। यह साहित्य की एक विधा है जो समाज में विंध गई है। ऐसे में यह मनोरंजन है मनोविकार नहीं। हमारे जीवन में सिनेमा का अहम स्थान है। दुनिया भर में मनोरंजन का सबसे सुलभ व सस्ता माध्यम फिल्म ही है इसकी लोकप्रियता की वजह यह भी है कि यह हर बार जिंदगी से रू-ब-रू होने जैसा प्रतीत होता है। यह जीवन के प्रत्येक कोने पर अपने वितान से नजर दौड़ा जाती है। प्रत्येक दशक में यह न सिर्फ बदला बल्कि नए तेवर कलेवर के साथ प्रस्तुत भी हुआ है।
रेखा के पांच दशक की सिनेमा यात्रा पर वार्ता करें तो स्पष्ट है कि वे नयनाभिराम शास्त्रीय नृत्य, वेबाक संवाद और अलौकिक भाव-भंगिमा से उन्होंने भारतीय सिनेमा को एक शिखर अवश्य प्रदान किया ।
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