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सतलुज-यमुना लिंक नहर विवाद क्या है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब सरकार को उसके आदेश का अनुपालन करने की सलाह देते हुए कहा है कि वह अपने हिस्से के सतलुज-यमुना लिंक नहर के निर्माण कार्य को यथाशीघ्र पूरा करे।

  • न्यायालय ने केंद्र सरकार को इस विषय पर पंजाब और हरियाणा सरकारों के बीच संवादों के अनुवीक्षण का निर्देश दिया है; हालाँकि हरियाणा सरकार ने नहर के अपने आधे हिस्से का निर्माण पूरा कर लिया है।
  • इस मुद्दे की मूल जड़ वर्ष 1966 में हरियाणा को पंजाब से अलग किये जाने के बाद वर्ष 1981 का एक विवादास्पद जल-बँटवारा समझौता है।

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 1960:
    • इस विवाद की शुरुआत भारत तथा पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि से होती है, जिसके अंतर्गत भारत को रावी, ब्यास और सतलुज नदी के ‘मुक्त एवं अप्रतिबंधित उपयोग’ की अनुमति दी गई थी।
  • वर्ष 1966:
    • अविभाजित/पुराने पंजाब से हरियाणा के निर्माण के बाद हरियाणा को उसके हिस्से का नदी जल प्राप्त करने में काफी समस्याएँ हुई।
    • हरियाणा को सतलुज और उसकी सहायक नदी ब्यास के जल का हिस्सा प्रदान करने के लिये, सतलुज को यमुना से जोड़ने वाली एक नहर (SYL नहर) की योजना तैयार की गई थी।
    • पंजाब ने हरियाणा के साथ जल साझा करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि जल साझाकरण का यह निर्णय तटवर्ती सिद्धांत के खिलाफ है, जिसके अनुसार किसी नदी का जल केवल उस राज्य/राज्यों एवं देश/ देशों का है जहाँ से होकर नदी बहती है।
  • वर्ष 1981:
    • दोनों राज्यों ने आपसी सहमति से जल के पुनः आवंटन पर सहमति जताई।
  • वर्ष 1982:
    • पंजाब के कपूरी गाँव में 214 किलोमीटर लंबी सतलुज-यमुना लिंक (SYL) का निर्माण शुरू किया गया।
    • इसी समय राज्य में आतंक का माहौल बनाने तथा राष्ट्रीय सुरक्षा को मुद्दा बनाने के विरोध में आंदोलन, विरोध प्रदर्शन और हत्याएँ हुई।
  • वर्ष 1985:
    • इस दौरान प्रधानमंत्री राजीव गांधी और तत्कालीन अकाली दल के प्रमुख ने जल साझाकरण मामले के आकलन के लिये एक नए प्राधिकरण के निर्माण पर सहमति व्यक्त करते हुए एक समझौते पर हस्ताक्षर किये थे।
    • जल की उपलब्धता और बँटवारे का पुनर्मूल्यांकन करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. बालकृष्ण इराडी की अध्यक्षता में इराडी प्राधिकरण की स्थापना की गई।
    • वर्ष 1987 में इस प्राधिकरण ने पंजाब और हरियाणा के हिस्सों को क्रमशः 5 MAF व 3.83 MAF तक विस्तृत करने की सिफारिश की।
  • वर्ष 1996:
    • हरियाणा ने सतलुज-यमुना लिंक का काम पूरा करने के लिये पंजाब को निर्देश देने की मांग करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया।
  • वर्ष 2002 और 2004:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब को अपने क्षेत्र में कार्य पूर्ण करने का निर्देश दिया।
  • वर्ष 2004:
    • पंजाब विधानसभा ने पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट्स एक्ट पारित किया, जिससे जल-साझाकरण समझौता निरस्त हो गया और इस तरह पंजाब में सतलुज-यमुना लिंक का निर्माण बाधित हो गया।
  • वर्ष 2016:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2004 के पंजाब टर्मिनेशन ऑफ एग्रीमेंट्स एक्ट की वैधता पर निर्णय लेने के लिये राष्ट्रपतीय संदर्भ (अनुच्छेद 143) पर सुनवाई शुरू की और पंजाब द्वारा नदी जल को साझा करने की वचनबद्धता के उल्लंघन को देखते हुए उक्त अधिनियम को संवैधानिक रूप से अवैध करार दिया गया।
  • वर्ष 2020:
    • इस वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को केंद्र की मध्यस्थता में उच्चतम राजनीतिक स्तर पर सतलुज-यमुना लिंक नहर मुद्दे पर संवाद करने और हल निकालने का निर्देश दिया।
    • पंजाब ने जल की उपलब्धता के समयबद्ध आकलन के लिये एक न्यायाधिकरण की मांग की है।
      • पंजाब राज्य के अनुसार, आज तक राज्य में नदी जल का कोई न्यायनिर्णयन अथवा वैज्ञानिक मूल्यांकन नहीं किया गया है।
      • रावी-ब्यास जल की उपलब्धता भी वर्ष 1981 में अनुमानित 17.17 MAF से घटकर वर्ष 2013 में 13.38 MAF हो गई है। एक नया न्यायाधिकरण इन सभी की जाँच सुनिश्चित करेगा।

पंजाब और हरियाणा राज्यों के तर्क:

  • पंजाब:
    • पंजाब पड़ोसी राज्यों के साथ किसी भी अतिरिक्त जल के बंटवारे का कड़ा विरोध करता है। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि पंजाब में अतिरिक्त जल की कमी है और पिछले कुछ वर्षों में उनके जल आवंटन में कमी हुई है।
    • वर्ष 2029 के बाद पंजाब के कई क्षेत्रों में जल समाप्त हो सकता है और सिंचाई के लिये राज्य पहले ही अपने भूजल का अत्यधिक दोहन कर चुका है क्योंकि गेहूंँ और धान की खेती करके यह केंद्र सरकार को हर साल लगभग 70,000 करोड़ रुपए मूल्य का अन्न भंडार उपलब्ध कराता है।
    • राज्य के लगभग 79% क्षेत्र में पानी का अत्यधिक दोहन है और ऐसे में सरकार का कहना है कि किसी अन्य राज्य के साथ पानी साझा करना असंभव है।
  • हरियाणा:
    • पंजाब, हरियाणा के हिस्से का जल उपयोग कर रहा है, इसलिये हरियाणा बढ़ते जल संकट का हवाला देते हुए नहर के कार्य को पूरा करने की मांग करता है।
    • हरियाणा का तर्क है कि राज्य में सिंचाई के लिये जल उपलब्ध कराना कठिन है और हरियाणा के दक्षिणी हिस्सों में पीने के पानी की समस्या है जहांँ भूजल स्तर 1,700 फीट तक कम हो गया है।
    • हरियाणा केंद्रीय खाद्य पूल (Central Food Pool) में अपने योगदान का हवाला देता रहा है और तर्क देता है कि एक न्यायाधिकरण द्वारा किये गए मूल्यांकन के अनुसार उसे उसके जल के उचित हिस्से से वंचित किया जा रहा है।

सतलुज-यमुना लिंक नहर का महत्त्व:

  • एकसमान जल बंटवारे की सुविधा:
    • SYL नहर का उद्देश्य हरियाणा और पंजाब के बीच नदी जल के समान बंटवारे को सुविधाजनक बनाना है। एक बार पूरा होने पर यह नहर क्षेत्र के प्रमुख जल स्रोतों रावी और ब्यास नदियों से जल के वितरण को सक्षम करेगी। जल संसाधनों तक उचित पहुँच सुनिश्चित करने और असमान वितरण से उत्पन्न होने वाले संभावित संघर्षों को रोकने के लिये यह दोनों राज्यों के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • दीर्घकालिक जल विवादों का समाधान:
    • यह हरियाणा और पंजाब के बीच लंबे समय से चले आ रहे जल विवादों का समाधान कर सकता है। इसका उद्देश्य जल हस्तांतरण के लिये एक सुगम मार्ग प्रदान करके, जल आवंटन और उपयोग से संबंधित असहमति को सुलझाना है जो दशकों से चली आ रही है तथा कई बार कानूनी लड़ाई व राजनीतिक तनाव का कारण बनी है।
  • कृषि उत्पादकता में वृद्धि:
    • SYL नहर बेहतर जल वितरण की सुविधा प्रदान करके, कृषि उत्पादकता और स्थिरता को बढ़ाने में योगदान कर सकती है।
    • यह किसानों को उनकी भूमि पर प्रभावी ढंग से खेती करने में सहायता कर सकती है, जिससे बेहतर पैदावार तथा सामाजिक-आर्थिक विकास हो सकता है।
  • सामाजिक-आर्थिक विकास:
    • SYL नहर दोनों राज्यों में समग्र सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
    • शहरीकरण, औद्योगीकरण और समग्र विकास के लिये जल तक निर्बाध पहुँच आवश्यक है, जिससे विभिन्न क्षेत्रों को लाभ होता है तथा लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है।

विभिन्न राज्यों के बीच जल बंटवारे के विवादों का कारण:

  • न केवल भारत में अपितु विश्व के कई हिस्सों में विभिन्न राज्यों के बीच जल बंटवारे के मुद्दे जटिल और बहुआयामी हैं, जिनमें अमूमन कई कारक शामिल होते हैं। कुछ सामान्य कारक जो राज्यों के बीच जल बंटवारे के मुद्दों का कारण बनते हैं:
    • जल उपलब्धता में भौगोलिक भिन्नताएँ: विभिन्न राज्यों में उनकी भौगोलिक स्थिति, स्थलाकृति और नदियों, झीलों या पानी के अन्य स्रोतों से निकटता के कारण जल संसाधनों तक पहुँच का स्तर अलग-अलग है।
      • कुछ राज्यों में स्वाभाविक रूप से जल संसाधन अधिक प्रचुर हो सकते हैं जबकि अन्य को जल की कमी का सामना करना पड़ सकता है।
    • जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग: जलवायु परिवर्तन तथा ग्लोबल वार्मिंग मौसम के पैटर्न को बदल रहे हैं और वर्षा के स्तर को प्रभावित कर रहे हैं, जिससे जल की उपलब्धता एवं वितरण में बदलाव आ रहा है।
      • अनियमित वर्षा, लंबे समय तक सूखा और बदलते मानसून पैटर्न से जल की कमी की समस्या बढ़ सकती है तथा जल वितरण संबंधी संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।
    • नदियों और जल स्रोतों का असमान वितरण: राज्यों में नदियों और अन्य जल स्रोतों का वितरण प्रायः असमान होता है, जिससे जल के अभिगम व उपयोग पर विवाद होता है।
      • नदी के ऊर्ध्वप्रवाह वाले भाग में स्थित राज्यों का नदी के स्रोत पर प्रभावी नियंत्रण हो सकता है जबकि अधोप्रवाह वाले हिस्से में स्थित राज्यों को जल का उचित भाग प्राप्त करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है।
    • बाँधों और जलाशयों का निर्माण कार्य: विभिन्न उद्देश्यों के लिये बाँधों और जलाशयों का निर्माण नदियों के प्रवाह को महत्त्वपूर्ण रूप से परिवर्तित कर सकता है तथा अधोप्रवाह वाले हिस्से की ओर जल की उपलब्धता को प्रभावित कर सकता है।
    • जनसंख्या वृद्धि और बढ़ी हुई मांग: कुछ राज्यों में तेज़ी से जनसंख्या वृद्धि से कृषि, उद्योग और घरेलू उपयोग सहित विभिन्न उद्देश्यों के लिये जल की मांग बढ़ जाती है।
      • यह बढ़ी हुई मांग उपलब्ध जल संसाधनों पर दबाव डालती है, जिससे आवंटन और वितरण पर संघर्ष होता है।
    • राजनीतिक और अंतर-राज्य संबंध: राजनीतिक कारक, अंतर्राज्यीय संबंध और राज्यों के बीच अलग-अलग प्राथमिकताएँ जल वितरण से संबंधित वार्ता एवं समझौतों को प्रभावित कर सकती हैं।
      • राजनीतिक विचार, सत्ता की गतिशीलता और चुनावी हित जल विवादों के समाधान को जटिल बना सकते हैं।

जल वितरण के मुद्दों का स्थायी समाधान:

  • जल संरक्षण एवं दक्षता उपाय:
    • जल-बचत प्रौद्योगिकियों को लागू करने और कृषि, उद्योग एवं घरों में जल संरक्षण प्रथाओं को बढ़ावा देने से जल की मांग में काफी कमी आ सकती है।
  • सिंचाई प्रणालियों का आधुनिकीकरण:
    • सिंचाई के बुनियादी ढाँचे को ड्रिप सिंचाई जैसी अधिक कुशल प्रणालियों में अपग्रेड करने से कृषि (एक ऐसा क्षेत्र जो अधिकांश जल संसाधनों का उपभोग करता है) में जल की बर्बादी को कम किया जा सकता है।
  • वास्तविक समय की निगरानी और पूर्वानुमान:
    • जलाशय के स्तर, नदी के प्रवाह और मौसम के पैटर्न की वास्तविक समय की निगरानी के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग प्रभावी जल प्रबंधन तथा विशेषकर जलवायु अनिश्चितताओं के दौरान समय पर निर्णय लेने में सहायता कर सकता है।
  • संघर्ष समाधान तंत्र:
    • संभवतः कानूनी संरचना के परे कुशल संघर्ष समाधान तंत्र स्थापित करने से राज्यों को जल-वितरण विवादों को अधिक तेज़ी और सहयोगात्मक ढंग से हल करने में मदद मिल सकती है।
      • जल विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझाने के लिये पड़ोसी राज्यों के बीच सहयोग और समझ का की भावना विकसित होना आवश्यक है।
  • नदी बेसिन पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली:
    • नदी बेसिन पारिस्थितिकी तंत्र को बहाल करने और संरक्षित करने पर ध्यान केंद्रित करने से जल संसाधनों की संधारणीयता में वृद्धि हो सकती है। स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र जल की गुणवत्ता और उपलब्धता में योगदान देता है।
    • किसी भी जल-संबंधित परियोजना को शुरू करने से पहले व्यापक पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) सुनिश्चित करने से जल स्रोतों और पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभावों को रोका या नियंत्रित किया जा सकता है।

आगे की राह

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