भारत को इजराइल के प्रति सहानुभूति जताने का अधिकार है,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
कांग्रेस की आत्मघाती-गोल करने की प्रवृत्ति जानी-पहचानी है। सबसे ताजा मामला यह है कि इजराइल-हमास संघर्ष पर कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव में जहां फिलिस्तीनियों के अधिकारों का तो उल्लेख किया गया, वहीं हमास के आतंकी हमले का जिक्र करना वो रहस्यपूर्ण तरीके से भूल गए।
भाजपा ने तुरंत इसे लपका और कांग्रेस पर आतंक की पैरोकार होने का आरोप लगाया। इसके बाद कांग्रेस को स्पष्टीकरण देने पर मजबूर होना पड़ा कि वह हमास के द्वारा निर्दोष इजराइलियों पर हमले की स्पष्ट शब्दों में निंदा करती है।
लेकिन सवाल उठता है कि वैश्विक आतंकवाद के मामले घरेलू राजनीति को कैसे प्रभावित करते हैं? आतंकवादी घटनाओं पर भारत के राजनीतिक दल ऐतिहासिक रूप से एकस्वर में ही बोलते रहे हैं। लेकिन भाजपा की धुर-राष्ट्रवादी राजनीति ने जमीनी नियमों को बदला है।
2019 के चुनाव-प्रचार के दौरान बालाकोट सर्जिकल-स्ट्राइक का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था- ‘घर में घुसकर मारा!’ उन्होंने पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद से लड़ाई को चुनाव-प्रचार का मुख्य मुद्दा बनाया। 26/11 के मुम्बई हमलों के बाद डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने जैसा सावधानीपूर्ण रवैया अपनाया था, उसकी तुलना में यह जवाबी-स्ट्राइक बहुत भिन्न थी।
पिछले साल गुजरात में हुए चुनावों के लिए प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा था, कांग्रेस और उस जैसी पार्टियों से सावधान रहें, जो बड़े आतंकी हमलों पर इसलिए चुप्पी साधे रहती हैं, ताकि अपने वोटबैंक को आहत न कर बैठें।
कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद के इस अपुष्ट दावे- कि 2008 के बाटला हाउस एनकाउंटर के दौरान इंडियन मुजाहिदीन के आतंकवादियों की लाशें देख सोनिया गांधी रो पड़ी थीं- को आधार बनाकर कहा गया कि आतंक से संघर्ष के बजाय कांग्रेस अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करती है।
यूपीए के कार्यकाल में हुई आतंकी वारदातों को हाईलाइट करते हुए कांग्रेस को बैकफुट पर आने पर मजबूर कर दिया गया। जबकि यह कांग्रेस-नीत सरकार ही थी, जिसने टाडा और यूएपीए जैसे आतंकरोधी कानून बनाए थे। इन कठोर कानूनों के तहत न केवल आतंकवाद के आरोपियों, बल्कि किसानों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को भी गिरफ्तार किया गया है।
जब कांग्रेस नेताओं ने 2016 में उड़ी हमले के बाद हुई सर्जिकल स्ट्राइक्स को ‘खून की दलाली’ कहकर प्रश्नांकित किया और बालाकोट ऑपरेशन की वास्तविकता पर संदेह जताया तो उसने खुद को भाजपा के बिछाए जाल में उलझा लिया था। उस पर फौज की बहादुरी पर सवाल उठाने के इल्जाम लगे।
लेकिन आतंकवाद पर की जाने वाली राजनीति तब कुरूप शक्ल अख्तियार कर लेती है, जब वह वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद और स्थानीय धार्मिक-समूहों के बीच एक लिंक की तलाश करने लगती है। भारतीय मुस्लिम फिलिस्तीन के प्रति सहानुभूति जता सकते हैं, लेकिन इजराइल पर हमास के हमलों पर या जैश के आतंकियों और तालिबानियों के लिए उनसे सामूहिक अपराध-बोध का परिचय देने की अपेक्षा क्यों की जाए? वोटबैंक राजनीति के इस ध्रुवीकृत चरित्र के कारण ही विदेश में हुए हमले पर घरेलू राजनीति गरमाने लगती है।
सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव और मोबाइल पर इंस्टैंट मैसेजिंग टूल्स के चलते भी अनेक खतरनाक रीयल-टाइम नैरेटिव निर्मित होते हैं, जिनका इस्तेमाल लोगों को बांटने वाले औजारों की तरह किया जाता है। किसी आतंकी वारदात के बाद दक्षिणपंथी इंटरनेट-योद्धा मुस्लिमों को बदनाम करने वाला भड़काऊ कंटेंट फैलाने लगते हैं।
फैक्ट-चेकिंग वेबसाइट बूम की रिपोर्ट बताती है कि अनेक भारतीय ट्विटर यूजर्स ने फिलिस्तीनियों को अमानवीय ठहराने के लिए गलत सूचनाओं और फर्जी वीडियो के माध्यम से इस्लामोफोबिया का प्रचार किया। पाकिस्तान के मामले में तो इंटरनेट-योद्धा प्रोपगंडा के खेल में बच निकल सकते हैं, क्योंकि पाकिस्तान-प्रायोजित सीमापार आतंकवाद पर देश में व्यापक सर्वसम्मति है, लेकिन इजराइल-हमास युद्ध कहीं अधिक जटिल है। भारत को इजराइल के प्रति सहानुभूति जताने का अधिकार है, लेकिन वह अरब-जगत में निर्मित अपने नए दोस्तों को भी अपने विरुद्ध नहीं कर सकता।
पुनश्च : कांग्रेस कार्यसमिति के प्रस्ताव से शर्मिंदा एक युवा कांग्रेस नेता ने इसकी दिलचस्प व्याख्या की। उन्होंने कहा, हमारे कुछ नेता उस समय के हैं, जब यासेर अराफात का इंदिरा गांधी से मैत्रीपूर्ण-संवाद था और भारत के इजराइल से कूटनीतिक सम्बंध बहुत विकसित नहीं थे। आगे उन्होंने जोड़ा, हमारे नेता आज भी अतीत में जी रहे हैं, वर्तमान में नहीं!
वैश्विक इस्लामिक आतंकवाद और स्थानीय धार्मिक-समूहों के बीच लिंक की तलाश करना ठीक नहीं। अगर कांग्रेस पर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण का आरोप लगता है तो भाजपा भी हिंदू वोटबैंक की राजनीति की दोषी ठहराई जा सकती है।
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