क्यों महत्वपूर्ण है जलवायु सम्मेलन?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
दुबई (संयुक्त अरब अमीरात) में 30 नवंबर से शुरू हो चुके 28वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (कॉप-28) पर सभी की निगाहें टिकी हैं. इसमें 195 देश, 2015 के पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले पक्षकार, राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों, उन्हें पाने के साधनों और ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में वैश्विक प्रगति के आकलन के लिए बातचीत करेंगे. पेरिस समझौते के तहत यह पहला ग्लोबल स्टॉकटेक है, जो कॉप-28 में पूरा होगा. सरल शब्दों में, ग्लोबल स्टॉकटेक पांच वर्ष तक चलने वाली एक समीक्षा प्रक्रिया है, जो एक तरह का रिपोर्ट कार्ड तैयार करती है.
यह रिपोर्ट कार्ड दिखाता है कि जलवायु परिवर्तन का सामना करने की दिशा में सभी देशों की सामूहिक प्रगति कितनी रही है और हम वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम पर सीमित रखने के रास्ते पर हैं या नहीं. कॉप-28 के दौरान होने वाली बातचीत से हमें उम्मीद है कि जीएसटी के नतीजे इन चर्चाओं को प्रेरित करने का काम करेंगे. जलवायु गतिविधियों की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हासिल करने और इस दिशा में जरूरी फैसलों को अगले वर्षों के लिए न टालने के लिए कॉप-28 को चार क्षेत्रों में नतीजे पर पहुंचना होगा.
पहला, सभी देशों को सामूहिक रूप से स्वच्छ प्रौद्योगिकियों और उनके उत्पादन के लिए जरूरी खनिजों की आपूर्ति शृंखला बनाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. जी20 देशों के दीर्घकालिक निम्न उत्सर्जन विकास रणनीतियों का आकलन करने वाली काउंसिल ऑन एनर्जी, इनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीइइडब्ल्यू) की रिपोर्ट बताती है कि इसमें केवल भारत, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने ही कम उत्सर्जन वाली प्रौद्योगिकियों की आपूर्ति शृंखला बनाने का समर्थन करने वाले मिशन इनोवेशन या क्लीन एनर्जी मिनिस्ट्रियल जैसी बहुपक्षीय और द्विपक्षीय साझेदारियों के उदाहरणों का उल्लेख किया है.
इसलिए एक वैश्विक नियम आधारित व्यवस्था बनाने की जरूरत है, जिसमें स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों और ईंधनों के लिए साझे नवाचारों को सक्षम बनाने के लिए विकासशील अर्थव्यवस्थाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व रहना चाहिए. हाल में हुए आइइए क्रिटिकल मिनरल्स एंड क्लीन एनर्जी शिखर सम्मेलन में लगभग 50 देशों ने महत्वपूर्ण खनिजों की विविधतापूर्ण और सतत आपूर्ति की दिशा में प्रगति को तेज करने पर सहमति जतायी है. कॉप-28 को भी महत्वपूर्ण खनिजों की विविधतापूर्ण और सतत आपूर्ति शृंखला बनाने वाले तंत्र की पहचान करनी चाहिए. इस संदर्भ में एक उपाय के रूप में महत्वपूर्ण खनिजों तक पहुंच और प्रोसेसिंग के लिए विभिन्न देशों के बीच व्यापार बढ़ाने के लिए एक सामान्य वर्गीकरण को स्थापित किया जाए.
दूसरा, ऊर्जा परिवर्तन के लिए जरूरी वित्त की मात्रा पर निर्णय लिया जाना चाहिए. ऊर्जा परिवर्तन को पाने में जलवायु वित्त की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है. जी20 के नयी दिल्ली शिखर सम्मेलन में विकासशील देशों को उनके राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों (एनडीसी) के लक्ष्यों को पाने में सहायता करने के लिए 2030 से पहले 5.8-5.9 ट्रिलियन डॉलर जुटाने पर जोर दिया गया है. विकसित देशों की ओर से उपलब्ध करायी गयी वित्तीय सहायता बहुत कम रही है.
उम्मीद है कि विकसित देश वित्त उपलब्ध कराने के इरादे को सामने रखेंगे. एक सफल और समावेशी वैश्विक ऊर्जा परिवर्तन अपनी नींव में साझेदारी को रखता है. इसलिए, यह महत्वपूर्ण है कि विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में बाजार के लिए उपलब्ध अवसरों की जानकारी को स्पष्टता से प्रसारित किया जाए, ताकि विकासशील देशों में ऊर्जा परिवर्तन के वित्तपोषण के लिए विकसित दुनिया से निवेश लाया जा सके.
तीसरा, जलवायु वित्त की परिभाषा को स्पष्ट किया जाना चाहिए, ताकि धन के लिए उचित और पर्याप्त स्रोतों को अनुमति देने के साथ वितरण को सुविधाजनक बनाया जा सके. विकसित अर्थव्यवस्थाओं को जलवायु वित्त के तहत हानि एवं क्षति, जलवायु अनुकूलन और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में ऊर्जा परिवर्तन के लिए आवश्यक कोष में अंतर करना चाहिए.
हमें उम्मीद है कि कॉप-28 में वितरण की एक संरचना, एक मेजबान संस्था (उदाहरण के लिए, विश्व बैंक अस्थायी रूप से हानि और क्षति कोष की देखभाल करने जा रहा है), और पारदर्शी शर्तों के माध्यम से इन अलग-अलग श्रेणियों का निर्धारण कर दिया जायेगा. जैसे-जैसे विकसित अर्थव्यवस्थाएं 2024 में प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर के आधार से आगे न्यू कलेक्टिव क्वांटिफाइड गोल्स निर्धारित करने के लिए तैयार हो रही हैं, उन्हें इन ‘कोषों’ में प्राथमिक योगदानकर्ता बनना चाहिए और इन कोषों को विस्तार देने के लिए इनमें बहुपक्षीय विकास बैंकों को शामिल करना चाहिए.
चौथा, विकसित देशों को अपने-अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों और दीर्घकालिक जलवायु लक्ष्यों को विस्तार देना चाहिए. विकसित देशों को औद्योगिक युग के बाद अपने बेलगाम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के कारण हुए जलवायु परिवर्तन की ऐतिहासिक जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए. सीइइडब्ल्यू के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, वर्तमान में विकसित देश अपने 2030 लक्ष्यों को पाने के रास्ते पर नहीं है और 2030 में ही उनका उत्सर्जन लक्ष्य से लगभग 3.7 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड ज्यादा हो जायेगा. इसलिए, विकसित देशों को अपनी प्रतिबद्धता बढ़ाना चाहिए, ताकि वे जलवायु कार्रवाई के लिए रास्ता बना सकें.
इस साल पहला ग्लोबल स्टॉकटेक पूरा होने के कारण कॉप-28 जलवायु लक्ष्यों की दिशा में वैश्विक प्रगति को सबके सामने रखेगा और सभी देशों को अपनी प्रतिबद्धताओं के बारे में विचार करने का मौका देगा. सभी देशों के सामने यह सवाल होना चाहिए कि क्या हम ग्लोबल वार्मिंग में बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम पर सीमित रख सकते हैं.
जी20 अध्यक्षता के साथ भारत पहले ही जलवायु क्षेत्र में अपने नेतृत्व को दुनिया के सामने रख चुका है, जिसने ऊर्जा परिवर्तन को विकास एजेंडे के केंद्र में रखा है. उभरती अर्थव्यवस्थाएं आगे भी विकास करती रह सकें, इसके लिए जरूरी है कि उन्हें शेष कार्बन बजट में उचित हिस्सेदारी मिले. ऐसे में जलवायु कार्रवाई पर उद्देश्यपूर्ण अंतरराष्ट्रीय सहयोग पाने के लिए तीन टी- विश्वास (ट्रस्ट), पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) और परिवर्तन (ट्रांसफॉर्मेशन) को अपनाना जरूरी है, जो नेट-जीरो विश्व के लिए आगे की राह दिखायेगा.