आखिर समाज से कब समाप्त होगी पकरुआ शादी?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
परिवार न्यायालय ने एक फैसला दिया है कि जबरदस्ती सिंदूर लगाने से शादी की मान्यता नहीं दी जा सकती है. इसके बाद फिर से पकरुआ शादी पर चर्चा तेज हो गयी है. बिहार में ऐसी शादी का चलन रहा है. अक्सर कहा जाता है कि सत्तर और अस्सी के दशकों में पकरुआ शादी दहेज से बचने के लिए होते रहे.
आज भी सामाजिक संगठन या समाज के कुछ दबंग लोग इस कार्य में सक्रिय भूमिका निभाते हैं. पकरुआ शादी मिथिला के लिए कोई नयी घटना नहीं है. यह दो सौ साल पहले भी होती थी. मेरे पिताजी के दादाजी की पकरुआ शादी हुई थी. मेरे पिताजी के परदादा प्रतापपुर सभागाछी गये थे.
साथ में एक सहायक भी था. आज के मधुबनी जिला के सौराठ और प्रतापपुर में विवाह के लिए लड़कों को लेकर लोग पहुंचते थे और वहीं शादियां तय होती थी. बिचौलिया या घटक इस कार्य में सक्रिय भूमिका निभाते थे. आज भी हर साल वैवाहिक लगन के अंतिम दो सप्ताह में यह मेला सौराठ सभा के नाम से लगता है. मेरे पिताजी के परदादा से मिलने तत्कालीन झंझारपुर के एक नामी जमींदार पहुंचे. उस समय खाना बनाने के लिए चावल का पानी गरम हो रहा था.
बातचीत के बाद वे जाने लगे, तो परदादा जी ने सहायक से चावल का पानी बदलने को कहा क्योंकि जमींदार जायवार कोटि के ब्राह्मण थे. जमींदार को यह बात नागवार लगी. उन्होंने पारिवारिक संबंध के जरिये बदले की ठानी और मेरे परदादा जी का अपहरण कर अपने घर में शादी करा दी. मेरे परदादा जी को इस कृत्य की सजा मिली और उन्हें अछूत की तरह अलग कर दिया गया.
मिथिला में इसका एक दूसरा रूप भी था. अक्सर गरीब परिवार की लड़कियों की शादी इस प्रकार होती थी, जो बाद में सामान्य हो जाती थी. धनी परिवार में भी यदि लड़की पढ़ी-लिखी नहीं होती थी, तो उसके लिए समाज के लोग पकरुआ शादी को अंजाम देते थे. जब शादी हो जाती थी, तो अक्सर उसे अपना लिया जाता था. समय के साथ इसमें बदलाव भी आया. ऐसी भी घटनाएं सामने आने लगीं कि जबरदस्ती शादी को लड़कों ने ही लड़कियों को अपनाना छोड़ दिया.
तब दबंगों की भूमिका बढ़ी और डर से भी कई शादियां सामान्य हुई हैं. लेकिन कई लड़कियों को लड़कों के परिवार ने नहीं भी अपनाया. लड़की की दूसरी शादी मुश्किल हो गयी, तो अंतरजातीय शादी में तब्दील हो गयी. इस कारण ऐसी घटनाओं में कमी भी आयी है. अब लड़कियां भी अपनी पसंद और नापसंद बोलने लगी हैं. यद्यपि दहेज विरोधी कानून 1961 में ही बना था, किंतु यह प्रभावी तरीके से लागू नहीं हो पाया. बढ़ते दहेज के कारण भी पकरुआ शादी कराने की घटना संगठित गिरोह के द्वारा होने की बात सामने आने लगी है.
पकरुआ शादी के शिकार सामान्यतः पढ़े-लिखे और नौकरीशुदा नौजवान होते रहे हैं. राज्य अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 2020 में 7,194, 2019 में 10,295, 2018 में 10,310 और 2017 में 8,927 ऐसे मामले सामने आये. शादियां तो हो जाती हैं, पर लड़कियों को ससुराल में ताना सुनना पड़ता है और पति की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है. इस सामाजिक घटना से बचने के लिए लड़कियों का शिक्षित होना और आत्मनिर्भर होना जरूरी है.
इसका दूसरा पक्ष भी है कि अधिक पढ़-लिख लेने पर उतना ही योग्य जीवनसाथी मिलने की चुनौतियां भी होती हैं. दहेज की सामाजिक बीमारी सबसे बड़ी बाधा है. अक्सर पितृसत्तात्मक सोच और पुत्र का मोह मां को भी इसमें शामिल कर लेती है. यह तब हो रहा है, जब बिहार में लिंगानुपात बेहतर होने के बाद भी प्रतिकूल है. बेटियों को शिक्षित बनाने की कई पहलें सरकारों द्वारा की जाती रही हैं, पर पुरुष समाज और लड़कों को भी शिक्षित और संवेदनशील बनाने की जरूरत है. कानून और अदालत की भूमिका महत्वपूर्ण है, लेकिन महज कानून के अनुपालन से समाधान नहीं दिखता है.
संदर्भित मामले में लड़के को राहत मिली है, पर लड़कियों के लिए यह फैसला मानवीय पक्ष को और सामाजिक परिस्थितियों का समाधान नहीं देती है. लड़कियों के पिताओं को भी यह सोचने की जरूरत है कि लड़की बोझ नहीं है, बल्कि घर की शान है. लड़कियों को यूं ही कहीं किनारे लगाने की बात सोचना अन्याय और अपराध है. इस विषय पर 2019 में ‘जबरिया जोड़ी’ नामक फिल्म भी बनी है और ‘भाग्य विधाता’ धारावाहिक भी दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ है.
बाल विवाह जैसी कुप्रथा को बंद करने के लिए शारदा अधिनियम तो 1929 में ही बनाया गया था. सामाजिक चेतना में जब तक लड़कियों को बराबरी का दर्जा नहीं मिल जाता, तब तक यह गंभीर सामाजिक बुराई सभी कानूनों के बावजूद बदस्तूर जारी रहेगी. इसके खिलाफ सामाजिक संघर्षों को प्रभावी रखने की जरूरत है. समाज कानून का पालन करें, इससे भी ज्यादा जरूरी यह है कि लड़कियों को बराबरी का दर्जा हासिल हो. कानून में लड़कियों को संपत्ति में बराबरी का अधिकार मिला है, लेकिन इसे लागू कर पाना आसान नहीं है. लड़कियों को स्वयं आगे आने की जरूरत है.