भारतीय शिक्षा में दीर्घकालिक दृष्टिकोण क्या है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
वर्ष 2030 तक भारत में विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी मौजूद होगी। जनसंख्या का यह वृहत आकार तभी वरदान सिद्ध होगा जब ये युवा कार्यबल में शामिल हो सकने के लिये पर्याप्त कुशल होंगे। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा इसमें प्रमुख भूमिका निभाएगी। लेकिन शिक्षा की वर्तमान स्थिति को पर्याप्त अवसंरचना की कमी, शिक्षा पर निम्न सरकारी व्यय (जीडीपी के 3.5% से भी कम) और प्राथमिक विद्यालयों में निम्न छात्र-शिक्षक अनुपात—जो शिक्षा के लिये एकीकृत जिला सूचना प्रणाली (Unified District Information System For Education- UDISE) के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर 24:1 है, जैसी कई प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
इस परिदृश्य में यह उपयुक्त समय होगा कि भारतीय शिक्षा प्रणाली को वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाया जाए और आधुनिक शिक्षण दृष्टिकोण अपनाए जाएँ जो उत्तरदायी एवं प्रासंगिक हों। इसके अलावा, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को भी जीवंत बनाया जाए ताकि इसके उद्देश्य साकार हो सकें।
भारत में शिक्षा व्यवस्था की स्थिति
- इतिहास:
- प्राचीन भारत में ‘गुरुकुल’ शिक्षा परंपरा पाई जाती थी जहाँ शिष्य गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे। नालंदा में विश्व की प्राचीनतम विश्वविद्यालय शिक्षा प्रणाली पाई जाती थी। तब विश्व भर के छात्र भारतीय ज्ञान प्रणालियों की ओर आकर्षित हुए थे।
- ब्रिटिश सरकार मैकाले समिति अनुशंसा, वुड्स डिस्पैच, हंटर कमीशन रिपोर्ट, इंडियन यूनिवर्सिटी एक्ट (1904) आदि के माध्यम से शिक्षा प्रणाली में विभिन्न सुधार लेकर आई जिनका समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा।
- भारत में शिक्षा की वर्तमान स्थिति:
- भारत में साक्षरता में लैंगिक अंतराल वर्ष 1991 से कम होना शुरू हुआ जहाँ तेज़ी से सुधार के रास्ते पर आगे बढ़ा गया। हालाँकि भारत में वर्तमान महिला साक्षरता दर अभी भी वैश्विक औसत 87% से पर्याप्त कम है, जैसा कि वर्ष 2015 में यूनेस्को (UNESCO) द्वारा रिपोर्ट किया गया था।
- इसके अलावा, भारत की कुल साक्षरता दर 74.04% है जो वैश्विक औसत 86.3% से कम है। भारत में कई राज्य इस औसत सीमा के भीतर आते हैं जहाँ साक्षरता दर राष्ट्रीय साक्षरता स्तर से कुछ ऊपर है।
- विभिन्न विधिक एवं संवैधानिक प्रावधान:
- विधिक प्रावधान:
- सरकार ने प्राथमिक स्तर (6-14 वर्ष) के लिये शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम के एक भाग के रूप में सर्व शिक्षा अभियान(SSA) को कार्यान्वित किया है।
- माध्यमिक स्तर (आयु वर्ग 14-18) की ओर बढ़ते हुए सरकार ने राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान के माध्यम से SSA का विस्तार माध्यमिक शिक्षा तक किया है।
- उच्चतर शिक्षा—जिसमें स्नातक, स्नातकोत्तर और एमफिल/पीएचडी स्तर शामिल हैं, को सरकार द्वारा राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (RUSA) के माध्यम से संबोधित किया जाता है ताकि उच्चतर शिक्षा की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
- इन सभी योजनाओं को ‘समग्र शिक्षा अभियान’ की छत्र योजना के अंतर्गत शामिल किया गया है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- राज्य की नीति के निदेशक तत्व (DPSP) के अनुच्छेद 45 में आरंभ में यह निर्धारित किया गया था कि सरकार को संविधान के लागू होने के 10 वर्षों के भीतर 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करनी चाहिये।
- बाद में अनुच्छेद 45 को संशोधित करते हुए इसके दायरे का विस्तार छह वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिये आरंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा के लिये किया गया।
- चूँकि यह उद्देश्य साकार नहीं हो सका, 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के माध्यम से अनुच्छेद 21A प्रस्तुत किया गया जिससे प्रारंभिक शिक्षा को निदेशक तत्व के बजाय मूल अधिकार में बदल दिया गया।
- राज्य की नीति के निदेशक तत्व (DPSP) के अनुच्छेद 45 में आरंभ में यह निर्धारित किया गया था कि सरकार को संविधान के लागू होने के 10 वर्षों के भीतर 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करनी चाहिये।
- विधिक प्रावधान:
भारत में स्कूली शिक्षा प्रणाली से संबद्ध प्रमुख मुद्दे
- सरकार का चुनाव-प्रेरित फोकस:
- चुनावों के दौरान गरीबों को सौदेबाजी की शक्ति प्राप्त होती है जहाँ फिर मुफ्त सुविधाओं/फ्रीबीज़ और गारंटी जैसी तात्कालिक ज़रूरतों पर ध्यान केंद्रित हो जाता है। जबकि लोग आय सुरक्षा और बेहतर बुनियादी हक़दारियों (entitlements) की आकांक्षा रखते हैं, वे शिक्षा, स्वास्थ्य, वास दशाओं आदि के संबंध में सरकार की प्रतिबद्धता के बारे में सशंकित होते हैं।
- शिक्षा क्षेत्र का संकट:
- लापरवाह वाणिज्यीकरण और राजनीतिकरण के कारण शिक्षा क्षेत्र संकट में है। इसमें चरण-दर-चरण रणनीति और राष्ट्रीय सहमति का अभाव है तथा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में ठोस निवेश के विकल्प के रूप में प्रौद्योगिकी जैसे आसान समाधानों पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
- एडुटेक (Edutech) की सीमाएँ :
- पुस्तक ‘द लर्निंग ट्रैप’ (The Learning Trap) में बदहाल शिक्षा प्रणाली को बेहतर कर सकने में प्रौद्योगिकी की सीमाओं को उजागर किया गया है। एडुटेक स्टार्ट-अप (जैसे Byju’s) अपने वादों की पूर्ति में विफल रहे हैं जो प्रौद्योगिकीय समाधानों के बजाय अच्छे शिक्षकों की आवश्यकता को इंगित करता है।
- ट्यूशन उद्योग का प्रभाव:
- 58 बिलियन रुपए से अधिक मूल्य का ट्यूशन उद्योग तेज़ी से विस्तार कर रहा है। हाई स्कूल परीक्षाओं का अवमूल्यन और पेशेवर करियर के प्रवेश द्वार के रूप में राष्ट्रीय परीक्षाओं पर ध्यान केंद्रित करने वाली सरकारी नीतियाँ इस समानांतर शिक्षा प्रणाली के विकास में योगदान देती हैं।
- ट्यूशन केंद्रों को प्राथमिकता:
- माता-पिता द्वारा नियमित स्कूलों के बजाय ट्यूशन केंद्रों को प्राथमिकता दी जा रही है, जिससे छात्रों के बीच मानसिक स्वास्थ्य समस्या और तनाव के कारण आत्महत्या जैसी घटनाओं की वृद्धि हो रही है। सुशिक्षित और कम-शिक्षित छात्रों के बीच का विभाजन बढ़ता जा रहा है।
- स्कूलों में गुणवत्ता की भिन्नता:
- भारत के सार्वजनिक और निजी स्कूलों में गुणवत्ता के अलग-अलग स्तर पाए जाते हैं, जहाँ अपर्याप्त प्रशिक्षित एवं वेतनभोगी शिक्षक ट्यूशन केंद्रों के उभार में योगदान दे रहे हैं। स्वयं के स्कूल संचालन पर सरकार का ध्यान निगरानी एवं गुणवत्ता सुधार की उपेक्षा करता है।
- शैक्षिक विभाजन का विस्तार:
- अमीर और गरीब के बीच शैक्षिक विभाजन बढ़ रहा है, जहाँ छात्रों की दूसरी श्रेणी एक असफल प्रणाली के भीतर संघर्ष कर रही है। शिक्षण सामग्री के प्रति सरकार के दृष्टिकोण में नवीनता का अभाव है और यह बढ़ती चुनौतियों का समाधान करने में विफल है।
- सामाजिक भागीदारी का अभाव:
- शिक्षा को केवल सरकारी उत्तरदायित्व के बजाय एक सामाजिक सरोकार बनना चाहिये, जिसका भारतीय संदर्भ में अभाव पाया जाता है।
- समाधानों में सामाजिक भागीदारी को व्यापक बनाना, नागरिक समाज को संलग्न करना और स्वयंसेवा को प्रोत्साहित करना शामिल है; इसमें शिक्षकों को परिणामों के लिये जवाबदेह बनाना भी शामिल है।
- शिक्षा को केवल सरकारी उत्तरदायित्व के बजाय एक सामाजिक सरोकार बनना चाहिये, जिसका भारतीय संदर्भ में अभाव पाया जाता है।
- शिक्षा पर अपर्याप्त व्यय:
- भारत का शिक्षा व्यय अपर्याप्त है जो सकल घरेलू उत्पाद के 2.61% पर गतिहीन बना हुआ है। यह ‘एजुकेशन 2030 फ्रेमवर्क फॉर एक्शन’ द्वारा अनुशंसित 6% से पर्याप्त कम है। वास्तविक वृद्धि एवं विकास के लिये पर्याप्त ध्यान और बजट आवंटन में वृद्धि का अभाव है।
- राजनीतिक नेतृत्व और राजकोषीय कल्पना:
- वास्तविक वृद्धि और विकास राजनीतिक नेतृत्व की प्रतिबद्धता और राजकोषीय कल्पना पर निर्भर करता है। शिक्षा पर भारत का व्यय कम बने रहने के कारण एक ऐसा बुनियादी बदलाव घटित नहीं हो रहा जो चुनौतियों का सामना कर सके और शिक्षा में वैश्विक नेतृत्व हासिल कर सके।
- स्कूलों में अपर्याप्त अवसंरचना:
- UDISE (2019-20) के अनुसार, केवल 12% स्कूलों में इंटरनेट सुविधाएँ और 30% में कंप्यूटर मौजूद हैं।
- इनमें से लगभग 42% स्कूलों में फर्नीचर की कमी थी, 23% में बिजली की कमी थी, 22% में शारीरिक रूप से दिव्यांगजनों के लिये रैंप की कमी थी और 15% में ‘वॉश’ (WASH) सुविधाओं—जिसमें पेयजल, शौचालय और हाथ धोने के बेसिन शामिल हैं, की कमी थी।
- UDISE (2019-20) के अनुसार, केवल 12% स्कूलों में इंटरनेट सुविधाएँ और 30% में कंप्यूटर मौजूद हैं।
- उच्च ड्रॉपआउट दर:
- प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर ड्रॉपआउट दर अत्यंत उच्च है। 6-14 आयु वर्ग के अधिकांश छात्र अपनी शिक्षा पूरी करने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। इससे वित्तीय और मानव संसाधनों की बर्बादी होती है।
- राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5) के अनुसार, वर्ष 2019-20 स्कूल वर्ष से पहले स्कूल छोड़ने के लिये 6 से 17 वर्ष की आयु वर्ग की 21.4% बालिकाओं और 35.7% बालकों द्वारा पढ़ाई में रुचि न होने को कारण बताया गया।
- प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर ड्रॉपआउट दर अत्यंत उच्च है। 6-14 आयु वर्ग के अधिकांश छात्र अपनी शिक्षा पूरी करने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। इससे वित्तीय और मानव संसाधनों की बर्बादी होती है।
- अनुभवात्मक अधिगम दृष्टिकोण (Experiential Learning Approach) की ओर आगे बढ़ना:
- छात्रों को व्यावहारिक अधिगम अनुभव प्रदान करने और कार्यबल में प्रवेश करने पर बाहरी दुनिया का सामना कर सकने में उन्हें तैयार करने के लिये स्कूली पाठ्यक्रम में समस्या-समाधान और निर्णय-निर्माण से संबंधित विषयों को शामिल करने की आवश्यकता है।
- अनुभवात्मक अधिगम प्रत्येक छात्र से सक्रिय भागीदारी प्राप्त कर सकने की अपनी क्षमता के माध्यम से अधिकतम लाभ प्राप्त कर सकती है, जो बदले में उनकी भावनात्मक बुद्धिमत्ता (emotional intelligence) को उत्प्रेरित करती है और उन्हें स्व-अधिगम के (self-learning) मार्ग पर आगे बढ़ाती है।
- कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) को शैक्षिक क्षेत्र से संबद्ध करने से अनुभवात्मक अधिगम की सुविधा भी मिलेगी।
- छात्रों को व्यावहारिक अधिगम अनुभव प्रदान करने और कार्यबल में प्रवेश करने पर बाहरी दुनिया का सामना कर सकने में उन्हें तैयार करने के लिये स्कूली पाठ्यक्रम में समस्या-समाधान और निर्णय-निर्माण से संबंधित विषयों को शामिल करने की आवश्यकता है।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) का कार्यान्वयन:
- NEP का कार्यान्वयन शिक्षा प्रणाली की तंद्रा को तोड़ने में मदद कर सकता है।
- वर्तमान 10+2 प्रणाली से हटकर 5+3+3+4 प्रणाली में आगे बढ़ने से प्री-स्कूल आयु समूह को औपचारिक रूप से शिक्षा व्यवस्था में लाया जा सकेगा, जिसे अभी सभी राज्यों में समान रूप से लागू नहीं किया जा रहा है।
- शिक्षा-रोज़गार गलियारा (Education-Employment Corridor):
- व्यावसायिक शिक्षा को मुख्यधारा शिक्षा के साथ एकीकृत कर और स्कूल में (विशेषकर सरकारी स्कूलों में) सही मार्गदर्शन प्रदान कर भारत की शैक्षिक व्यवस्था को उन्नत बनाने की ज़रूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि छात्रों को आरंभ से ही सही दिशा में निर्देशित किया जाए और वे करियर के अवसरों के बारे में जागरूक हों।
- ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों में भी पर्याप्त क्षमताएँ मौजूद हैं और वे पढ़ाई के लिये प्रेरित भी होते हैं, लेकिन उनके पास सही मार्गदर्शन का अभाव है। यह न केवल बच्चों के लिये बल्कि उनके माता-
- भाषाई अवरोध को कम करना:
- अंतर्राष्ट्रीय समझ के लिये शिक्षा (Education for International Understanding- EIU) के साधन के रूप में अंग्रेज़ी को रखते हुए भी अन्य भारतीय भाषाओं को समान महत्त्व देना अत्यंत आवश्यक है।
- संसाधनों को विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करने के लिये विशेष प्रकाशन एजेंसियों की स्थापना की जा सकती है ताकि सभी भारतीय छात्रों को, वे किसी भी भाषाई पृष्ठभूमि के हों, समान अवसर मिल सके।
- भविष्य के लिये अतीत के अनुभवों से प्रेरणा ग्रहण करना:
- अपनी लंबे समय से स्थापित जड़ों को ध्यान में रखते हुए भविष्य की ओर देखना महत्त्वपूर्ण है।
- प्राचीन भारत की ‘गुरुकुल’ परंपरा से बहुत कुछ सीखा जा सकता है, जो आधुनिक शिक्षा में चर्चा का विषय बनने के सदियों पहले से अकादमिक शिक्षा से परे समग्र विकास पर ध्यान केंद्रित करता था।
- प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली में नीतिशास्त्रीयता एवं मूल्य शिक्षा (Ethics and value education) शिक्षा के मूल में रही थी। आत्मनिर्भरता, समानुभूति, रचनात्मकता और अखंडता जैसे मूल्य प्राचीन भारत में एक प्रमुख क्षेत्र बने रहे थे, जिनकी आज भी प्रासंगिकता है।
- शिक्षा का प्राचीन मूल्यांकन विषयगत ज्ञान की ग्रेडिंग तक ही सीमित नहीं था। छात्रों का मूल्यांकन उनके द्वारा सीखे गए कौशल और व्यावहारिक ज्ञान को वास्तविक जीवन की स्थितियों में सफलतापूर्वक लागू कर सकने की उनकी क्षमता के आधार पर किया जाता था।
- आधुनिक शिक्षा प्रणाली भी मूल्यांकन की ऐसी ही एक प्रणाली विकसित कर सकती है।
शैक्षिक सुधारों से संबंधित प्रमुख सरकारी पहलें:
माता-पिता के लिये भी आवश्यक है जो एक तरह से शिक्षा में लैंगिक अंतराल को भी कम करेगा।
- नेशनल प्रोग्राम ऑन टेक्नोलॉजी एन्हांस्ड लर्निंग (NPTEL)
- समग्र शिक्षा अभियान
- प्रज्ञाता (PRAGYATA)
- मध्याह्न भोजन योजना
- बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
- पीएम श्री स्कूल (PM SHRI School)
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