राम शब्द सत्य, शौर्य, दया, तप और त्याग का वाचक है,कैसे?

राम शब्द सत्य, शौर्य, दया, तप और त्याग का वाचक है,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्‍क

विश्व महानायक राम का नाम युगो-युगो से जन के मन पर छाया हुआ है। राम का नाम चिरंजीवी रहेगा तथा अपनी गरिमा के समस्त वैभवों से विश्व मानस को संत अर्पण प्रदान करता रहेगा। सचमुच राम का नाम कल्पवृक्ष है। वाल्मीकि ने राम पर काव्य रचना की और आदिकवि की संज्ञा प्राप्त कर अमर हो गए।

आचार्य रविषेण, आचार्य गुणभद्र, आचार्य विमलसूरि तथा स्वयंभू और पम्प ने एक से एक उत्तम भाव प्रवण पुराण एवं काव्य साहित्य में रामचरित लिखे हैं। संस्कृत के स्वतंत्र महाकवियों तथा मैथिलीशरण गुप्त ने राम पर काव्य रचना की है। एक हजार से अधिक दुनिया भर की विविध भाषाओं में राम की गाथा को पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि काल की समस्त सत्ता को ललकार कर और विस्मृति के संपूर्ण उत्पादनों को निरस्कृत कर राम का यह अद्भुत चरित्र लोक मानस में प्रतिक्षण नवीन होकर चिरजीवी हो रहा है।

श्रीराम का चरित्र

श्रीराम का चरित्र वस्तुतः साकार और निराकार, निर्गुण एवं सगुण, अलख तथा लख, अव्यक्त एवं व्यक्त परमेश्वर ‘ब्रह्म’ का संशयरहित आभामय साकार प्रकटीकरण ही है। गोस्वामी तुलसीदास ने परमेश्वर के इन दोनों शाश्वत स्वरूपों का अत्यन्त स्पष्ट और पुष्ट रेखांकन प्रभु श्रीराम के अवतार वर्णन में किया है-

 

ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद।

सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद।।

 

सनातन धर्म में निर्गुण और सगुण तथा निराकार एवं साकार परमेश्वर के भ्रम का निराकरण मजबूत आध्यात्मिक तर्कशक्ति से किया गया है और यह निराकरण इस धर्म की विशाल वैचारिक पृष्ठभूमि एवं उदारता के साथ इसकी अद्भुत विलक्षण विशेषता भी कही जा सकती है। तत्वतः निराकार परमेश्वर ही भक्तों के प्रेमवश उसके कल्याण हेतु साकार रूप में प्रकट होते हैं-

अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।

निराकार ‘ब्रह्म’ भक्तों के प्रेमवश तो साकार स्वरूप में प्रकट होते ही हैं लेकिन वह परमेश्वर लोकरक्षा के लिए भी साकार रूप ग्रहण करते हैं एवं विविध अवतार के माध्यम से अपनी मनोरम लीला के साथ विभिन्न कालखण्ड में इस लोक में अवतरित होते रहते हैं। रामचरितमानस के बालकाण्ड में भगवान शिव माँ पार्वती से इस सत्य को उद्घाटित करते हुए कहते हैं-

जब जब होइ धरम कै हानी। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।

करहिं अनीति जाई नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी।।

तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन यही कहता है कि लोकमंगल एवं सज्जनों की रक्षा हेतु निराकार परमेश्वर साकार स्वरूप में अवतार लेकर जगत के कल्याण के साथ अपने लोक-चरित्र से धर्म और मर्यादा की पुनर्स्थापना करते हैं। भारतीय आध्यात्मिक चिन्तन के अनुरूप ही प्रभु श्रीराम अपने अवतार की सार्थकता के प्रति संतों को आश्वस्त करते हैं।

एक अन्य कोण से देखा जाए तो राम एक बहुत ही सौभाग्यशाली व्यक्तित्व है। उन्हें पिता, माता, पत्नी, भ्राताओं, गुरुजनों और  मित्रों से भरपूर स्नेह व प्रेम मिला था। पिता उन्हें युवराज पद पर आसीन करना चाहते थे। माता कौशल्या का तो उन पर असीम स्नेह था ही। भ्राताओं पर राम का प्रगाढ़ स्नेह है तो भ्राताओं की उन पर परम भक्ति है। वचनबद्धता और आज्ञापालन राम के व्यक्तित्व के अन्य शाश्वत रेशे है। यही वजह है कि उनके द्वारा किया हुआ हां अथवा न स्वीकार और निषेध व अमिट वचन है। जब पिता की आज्ञा पाकर राम वनवासी हो गए, तब उन्हें लौटाने के भरत ने कई प्रयत्न किए, परंतु राम अपनी मर्यादा से कतई विचलित नहीं हुए।

उन्होंने भरत को समझाते हुए यहां तक कह दिया कि पूज्य पिता का आदेश मेरे लिए अक्षरशः पालनीय है और तुम्हें भी उसका वैसे ही पालन करना चाहिए।राम का आर्यसूत्र है- शरणागत को अभय इसीलिए वे सीता अपहरणकर्ता रावण के प्रति भी बड़े उदारमत थे। जब रावण द्वारा तिरस्कृत होकर विभीषण राम की शरण में आया, उस समय वाल्मीकि रामायण के अनुसार सुग्रीव ने राम से कहा, वह शत्रु का अनुज जै, इसे शरण नहीं दे।

तब राम ने कहा, हे वानर राज! द्वार पर आकर जो शरण मांग रहा है उसे मैं अभय देता हूं। तुम बाहर जाकर उसे ले आओ। चाहे वह विभीषण हो अथवा स्वयं रावण ही क्यों न हो। रावण की मृत्यु के बाद राम ने विभीषण को कहा कि रावण से अब मेरा कोई वैर नहीं। उनका विधि पूर्वक संस्कार करो। जैसा यह तुम्हारा अग्रज होने से आदरणीय है वैसा ही मेरे लिए भी समादरणीय है। इससे स्पष्ट है कि राम का रावण के साथ युद्ध धर्मार्थ था। अपनी स्त्री की रक्षा सामान्य जन का भी धर्म है और फिर राम तो सर्वसमर्थ थे, सुक्षत्रिय थे।

राजधर्म की सुरक्षा, प्रजा का हित एवं स्थापित आदर्शों का अनुरुप राम के लिए परम प्राथमिकता की चीजें थीं। इसीलिए कठोर राजधर्म का परीक्षण करने के लिए राम ने वैदेही परित्याग किया। यह भी राम ने सीता की निर्दोषता और अपने कृत्य की घोरता को जानते हुए भी एक राजमहिषी को त्याग दिया ताकि राजपद अमानुषिक अमर्यादा से लांछित न हो। राम समझते थे कि प्रजाजनों का हित करने तथा उनको सत्यमार्ग प्रवर्तित रखने के लिए राजा धर्मशासन का नेतृत्व करने के लए उत्तरदायी है।

राम यह भी जानते थे कि प्रजा यदि राजा में अथवा उसके परिवार में कोई दोष देखती है तो राजा को कठोरता के साथ उसकी शल्यक्रिया करनी पड़ती है। इसलिए जो राजा अपने आदर्शों का स्वरूप समझता है, वह प्रजा के मत की अवहेलना नहीं कर सकता कहना न होगा कि इस बिंदु पर राम की तस्वीर प्रजा की मान-मर्यादाओं के रक्षक के रूप में उभरती है।वात्सल्य एवं स्नेह शीलता की मूर्ति है। राम प्रजा के सभी वर्गों से उनका सरल स्वभाव है। निषादराज का आतिथ्य, ऋषियों, महर्षियों के आश्रम दर्शन, वन्यजातियों से मिलना आदि प्रसंग उनके जीवन की निरूपित भूमि हैं।

वन में सीता हरण के पश्चात विचरते हुए वे शबरी के आश्रम में जाते हैं। शबरी तपस्विनी है। राम ने उसे अतीत अनागत का ज्ञान रखने वाली कहा है। उसने राम को पम्पा तट पर उत्पन्न होने वाले विविध प्रकार के फल संचित कर भेंट किए। इससे न केवल नगर जनपदों में, अपितु सुदूर गहन वन्य भूमियों में भी राम के प्रति लोगों का स्नेहभाव सूचित होता है। यदि एक रावण ने उनके साथ वैर-विरोध किया तो क्या? संपूर्ण मानव जाति, वीर जटायु और देवगण भी राम के मित्रत्व को गर्व योग्य समझते थे।

सचमुच राम शब्द सत्य, शौर्य, दया, तप और त्याग का वाचक है। वाल्मीकि उनके लिए छन्द लिखते है और वशिष्ठ उन्हें इक्ष्वाकु कुल शिरोमणि कहते हैं। राम के राज्य का स्मरण भारतीयों के आदर्श शासनकला की अविलुप्त स्मृति है। जहां चोर नहीं, विधवा नहीं, मूर्ख नहीं। आत्महत्या नहीं और न ही अल्पायु लोगों के मानस में राम राज्य का खींचा हुआ ऐसा अमार्जनीय चित्र है, जिसकी प्राप्ति के लिए भारतीयों के मन-प्राण उत्कंठित है। राम प्रजा के सांस्कृतिक जनक हैं। वे अपना सुख-चैन प्रजा के सुख पर उत्सर्ग करने को सदा तत्पर हैं। लेकिन आश्चर्य सत्य यह है कि जानकी और राम के जीवन में सुख-शांति है कहीं दिखाई नहीं देती।

केवल दुख ही दुख है, विषाद ही विषाद है। इस पर भी उनकी महानता यह है कि उन्होंने विषाद को प्रसाद के रूप में स्वीकार किया है। विषाद को प्रसाद बनाने को लोकोत्तर साधना में सीता का तो संपूर्ण जीवन ही समर्पित रहा। यदि राम की जीवन-यात्रा का सूक्ष्म विश्लेषण किया जाए तो स्पष्ट किया होता है कि उनके जीवन में गति ही गति है। बाल्यकाल में ही महर्षि विश्वमित्र के यज्ञ की रक्षा करने उनके साथ चल पड़ना इस गतिशीलता का शुभारंभ है।

वनवास की आज्ञा को राम लोक कल्याण के उदात्त परिप्रेक्ष्य में आकर जीवन का स्वर्णिम अवसर मानते हैं। राज्य और वनवास में अयनशील राम को कोई अंतर दिखाई नहीं देता। उनके अनुसार वनवास में लोक कल्याण की जो संभावना है, वह संभवत राज्य के पालन में नहीं है। यही गतिशीलता राम के जीवन की मौलिक चेतना है, जिसे आदिकवि ने राम काव्य लिखा। राम का व्यक्तित्व करुणा का सागर है।

उनके हाथ में शस्त्र का होना इस बात का प्रमाण है कि वह शस्त्र केवल लोक कल्याण और लोक मर्यादा के लिए है, न कि अन्य कार्य के लिए। राम का तो कोई भी कार्य जनहित में ही होगा इसलिए उनके कंधे पर तीर कमान का होना अत्याचारों से लोगों को छुटकारा दिलाने के लिए है। राम जब अत्याचारी पर बाण चलाते है। तब भी उनका हृदय करुणा से भरा होता है। लेकिन रावण का वध करके राम ने त्रेता युग के लोगों अत्याचार, और बुराई से मुक्ति अवश्य दिलायी। राम 168 महीने से बाहर रहे लेकिन अयोध्या का भूगोल विवाद शून्य रहा और पत्थर आपस में टकराए नहीं थे। शरणागत को वह अभय प्रदान करता है राम के आदर्श प्रवाहमान हैं।

राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, इसलिए राम का स्मरण भारतीय संस्कृति के देवी अंशों का कीर्तन है। यह आत्मा को प्रसन्न-विमल करने की क्षार रहित महौषधि है और मंगल स्तुतियों का प्रथम पाठ है। अतः यदि हम राम के आदर्शों को जीवन में डालकर अपने अंतर प्रदेश में प्रकाश का सच्चा संधि स्थल बना लेते ह तो जीवन मंगलमय हो जाता है।

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