राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
राम, कृष्ण और शिव भारत में पूर्णता के तीन महान स्वप्न हैं। सबका रास्ता अलग-अलग है। राम की पूर्णता मर्यादित व्यक्तित्व है, कृष्ण की उन्मुक्त या संपूर्ण व्यक्तित्व में और शिव की असीमित व्यक्तित्व में, लेकिन हर एक पूर्ण है। किसी एक का एक या दूसरे से अधिक या कम पूर्ण होने का कोई सवाल नहीं उठता। पूर्णता में विभेद कैसे हो सकता है? पूर्णता में केवल गुण और किस्म का विभेद होता है।
हर आदमी अपनी पसंद कर सकता है या अपने जीवन के किसी विशेष क्षण से संबंधित गुण या पूर्णता चुन सकता है। कुछ लोगों के लिए यह भी संभव है कि पूर्णता की तीनों किस्में साथ-साथ चले, मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व साथ-साथ रह सकते हैं। हिंदुस्तान के महान ऋषियों ने सचमुच इसकी कोशिश की है। वे शिव को राम के पास और कृष्ण को शिव के पास ले आए हैं और उन्होंने यमुना के तीर पर राम को होली खेलते बताया है।
राम आठ कलाओं से बने थे, इसलिए मर्यादित पुरुष थे
लोगों के पूर्णता के ये स्वप्न अलग किस्मों के होते हुए भी एक दूसरे में घुल-मिल गए हैं, लेकिन अपना रूप भी अक्षुण्ण बनाए रखे हैं। राम और कृष्ण, विष्णु के दो मनुष्य रूप हैं, जिनका अवतार धरती पर धर्म का नाश और अधर्म के बढ़ने पर होता है। राम धरती पर त्रेता में आए जब धर्म का रूप इतना अधिक नष्ट नहीं हुआ था। वह आठ कलाओं से बने थे, इसलिए मर्यादित पुरुष थे। कृष्ण द्वापर में आए जब अधर्म बढ़ती पर था। वे सोलहों कलाओं से बने हुए थे और इसलिए एक संपूर्ण पुरुष थे। जब विष्णु ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया तो स्वर्ग में उनका सिंहासन बिल्कुल सूना था। लेकिन जब राम के रूप में आए तो विष्णु अंशत: स्वर्ग में थे और अंशत: धरती पर।
चंद्रमा राम पर हंसा था, कृष्ण रूप में दिया ताना
इन मर्यादित और उन्मुक्त पुरुषों के बारे में दो बहुमूल्य कहानियां कही जाती हैं। राम ने अपनी दृष्टि केवल एक महिला तक सीमित रखी, उस निगाह से किसी अन्य महिला की ओर कभी नहीं देखा। यह महिला सीता थीं। उनकी कहानी बहुलांश राम की कहानी है, जिनके काम सीता की शादी, अपहरण और कैद-मुक्ति और धरती (जिसकी वे पुत्री थीं) की गोद में समा जाने के चारों ओर चलते हैं। जब सीता का अपहरण हुआ तो राम व्याकुल थे।
वे रो-रोकर कंकड़, पत्थर और पेड़ों से पूछते थे कि क्या उन्होंने सीता को देखा है। चंद्रमा उन पर हंसता था। विष्णु को हजारों वर्ष तक चंद्रमा का हंसना याद रहेगा। जब बाद में वे धरती पर कृष्ण के रूप में आए तो उनकी प्रेमिकाएं असंख्य थीं। एक आधी रात को उन्होंने वृंदावन की सोलह हजार गोपियों के साथ रास-नृत्य किया। यह महत्त्व की बात नहीं कि नृत्य में साठ या छ: सौ गोपियां थीं और रास लीला में हर गोपी के साथ कृष्ण अलग-अलग नाचे।
सबको थिरकाने वाला स्वयं अचल था। आनंद अटूट और अभेद्य था, उसमें तृष्णा नहीं थी। कृष्ण ने चंद्रमा को ताना दिया कि हंसो। चंद्रमा गंभीर था। इन बहुमूल्य कहानियों में मर्यादित और उन्मुक्त व्यक्तियों का रूप पूरा उभरा है और वे संपूर्ण हैं।
सीता का अपहरण अपने में मनुष्य जाति की कहानियों की महानतम घटनाओं में से एक है। इसके बारे में छोटी-से-छोटी बात लिखी गई है। यह मर्यादित, नियंत्रित और वैधानिक अस्तित्व की कहानी है। निर्वासनकाल के परिभ्रमण में एक मौके पर जब सीता अकेली छूट गई थीं तो राम के छोटे भाई लक्ष्मण ने एक घेरा खींच कर सीता को उसके बाहर पैर न रखने के लिए कहा। राम का दुश्मन रावण उस समय तक अशक्त था जब तक कि एक विनम्र भिखमंगे के छद्मवेश में सीता को उसने उस घेरे के बाहर आने के लिए राजी नहीं कर लिया।
राम मर्यादा पुरुष थे, नियमों का उल्लंघन कभी नहीं किया
मर्यादित पुरुष हमेशा नियमों के दायरे में रहता है। उन्मुक्त पुरुष, नियम और कानून को तभी तक मानता है जब तक उसकी इच्छा होती है और प्रशासन में कठिनाई पैदा होते ही उनका उल्लंघन करता है। राम के मर्यादित व्यक्तित्व के बारे में एक और बहुमूल्य कहानी है। उनके अधिकार के बारे में, जो नियम और कानून से बंधे थे, जिनका उल्लंघन उन्होंने कभी नहीं किया और जिनके पूर्ण-पालन के कारण उनके जीवन में तीन या चार धब्बे भी आए।
राम और सीता अयोध्या वापस आकर राजा और रानी की तरह रह रहे थे। एक धोबी ने कैद में सीता के बारे में शिकायत की। शिकायती केवल एक व्यक्ति था और शिकायत के पीछे कोई न कोई दुख होता है और उसकी उचित दवा या सजा होनी चाहिए। इस मामले में सीता का निर्वासन ही एकमात्र इलाज था। नियम अविवेकपूर्ण था, सजा क्रूर थी और पूरी घटना एक कलंक थी, जिसने राम को जीवन के शेष दिनों में दुखी बनाया। लेकिन उन्होंने नियम का पालन किया, उसे बदला नहीं। वे पूर्ण मर्यादा पुरुष थे। नियम और कानून से बंधे हुए थे और अपने बेदाग जीवन में धब्बा लगने पर भी उसका पालन किया।
सिंहासन त्याग राम सीता के साथ फिर जा सकते थे
मर्यादा पुरुष होते हुए भी एक दूसरा रास्ता उनके लिए खुला था। सिंहासन त्याग कर वे सीता के साथ फिर प्रवास कर सकते थे। शायद उन्होंने यह सुझाव रखा भी हो, लेकिन उनकी प्रजा अनिच्छुक थी। उन्हें अपने आग्रह पर कायम रहना चाहिए था। प्रजा शायद नियम में ढिलाई करती या उसे खत्म कर देती। लेकिन कोई मर्यादित पुरुष नियमों का खत्म किया जाना पसंद नहीं करेगा जो विशेष काल में या किसी संकट से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है।
विशेषकर जब स्वयं उस व्यक्ति का उससे कुछ न कुछ संबंध हो। इतिहास और किंवदंती दोनों में अटकलबाजियों या क्या हुआ होता, इस सोच में समय नष्ट करना निरर्थक और नीरस है। राम ने क्या किया या क्या कर सकते थे, यह एक मामूली अटकलबाजी है, इस बात की अपेक्षा कि उन्होंने नियम का यथावत पालन किया, जो मर्यादित पुरुष की एक बड़ी निशानी है। आजकल व्यक्ति नेतृत्व और सामूहिक नेतृत्व के बारे में एक दिलचस्प बहस छिड़ी हुई है।
बहस सतही है। व्यक्ति और सामूहिक नेतृत्व दोनों बुनियादी तौर पर उन्मुक्त व्यक्तित्व के वर्ग के हो सकते हैं, जो नियम-कानून नहीं मानते। सारा फर्क इनमें पड़ता है कि एक व्यक्ति या नौ या पंद्रह व्यक्तियों का समूह अपने अधिकार के चारों ओर खींचे गए नियम के दायरे में रहता है या नहीं। एक व्यक्ति की अपेक्षा नौ व्यक्तियों के समूह के लिए मर्यादा तोड़ना अधिक कठिन होता है, लेकिन जीवन एक निरंतर चाल है और इस तरह की परस्पर-विरोधी शक्तियों की बदलती मात्रा के धंधलकी में चलता रहता है।
राम की मर्यादा और कृष्ण की उन्मुक्तता का अंतर
इस क्रम में व्यक्ति और समूह की उन्मुक्तता में बराबर अदला-बदली चल रही है। संपूर्ण व्यक्ति समूह के लिए जगह छोड़ता है और इसका उल्टा भी होता है। लेकिन एक बड़ी अदला- बदली भी चलती रहती है जिसके चौखटे में व्यक्ति और समूह का आगे-पीछे होना लगा रहता है और वह है मर्यादित और उन्मुक्त पुरुष के बीच अदला-बदली। राम मर्यादित पुरुष थे जैसे कि वास्तविक वैधानिक प्रजातंत्र, कृष्ण एक उन्मुक्त पुरुष थे, लगभग वैसे ही जैसे नेताओं की उच्चस्तरीय समिति, जो अपनी बुद्धि से हर नियम का अतिक्रमण करती है।
यह एक उन्मुक्त समूह है। इन दो सवालों में, कि व्यक्ति या समूह के पास शक्ति है या कि अधिकार एक सीमा और दायरे में या खुला और छूट वाला है, दूसरा सवाल अधिक महत्वपूर्ण है। क्या अधिकार नियम और कानून के ऊपर चल सकता है, जब इस बड़े सवाल का हल मिल जाएगा तब छोटा सवाल उठेगा कि मर्यादित अधिकारी व्यक्ति है या समूह। बेशक सर्वोत्तम अधिकारी मर्यादित समूह है।
रावण के आखिरी क्षणों की कहानी और लक्ष्मण को सीख
राम मर्यादा पुरुष थे। ऐसा रहना उन्होंने जान-बूझकर और चेतन रूप से चुना था। बेशक नियम और कानून आदेशपालन के लिए एक कसौटी थे। लेकिन यह बाहरी दबाव निरर्थक हो जाता यदि उसके साथ-साथ अंदरूनी प्रेरणा भी न होती। विधान के बाहरी नियंत्रण और मन की अंदरूनी मर्यादा एक-दूसरे को पुष्ट और मजबूत करती है। किसी भी प्रेरक की प्राथमिकता का तर्क देना निरर्थक होगा। किसी मर्यादित पुरुष के लिए विधान की बाहरी जंजीरें मन की अंदरूनी प्रेरणा का दूसरा नाम होंगी।
मर्यादित पुरुष का काम दोनों में मेल-जोल और समानांतर का निर्णय करना है। मर्यादाएं बाहरी नियंत्रण तो हैं ही लेकिन अंदरूनी सीमाओं को भी वे छूती हैं। मर्यादित नेतृत्व वास्तव में नियंत्रित नेतृत्व है, लेकिन साथ-साथ वह मन के क्षेत्र में भी पहुंचता है। राम सचमुच एक नियंत्रित व्यक्ति थे लेकिन उनका केवल इतना ही वर्णन करना गलत होगा। क्योंकि वे साथ-साथ मर्यादित पुरुष थे और नियम के दायरे में चलते थे।
रावण के आखिरी क्षणों के बारे में एक कहानी है। अपने जमाने का निस्सन्देह वह सर्वश्रेष्ठ विद्वान था। हालांकि उसने अपनी विद्या का गलत प्रयोग किया, फिर भी बुरे उद्देश्य परे रख कर मनुष्य-जाति के लिए उस विद्या का संचय आवश्यक था। इसलिए राम ने लक्ष्मण को रावण के पास अंतिम शिक्षा मांगने के लिए भेजा। रावण मौन रहा। लक्ष्मण वापस आए। उन्होंने अपने भाई से असफलता का बयान किया और इसे रावण का अहंकार बताया। राम ने उनसे जो हुआ था उसका पूरा ब्योरा पूछा। तब पता चला कि लक्ष्मण रावण के सिरहाने खड़े थे। लक्ष्मण पुन: भेजे गए कि रावण के पैताने खड़े होकर निवेदन करें। फिर रावण ने राजनीति की शिक्षा दी।
शिष्टाचार की श्रेष्ठतम कहानी के रचियता राम हैं
शिष्टाचार की यह कहानी अद्वितीय और अब तक की कहानियों में सर्वश्रेष्ठ है। शिष्टाचार निश्चय ही उतना महत्त्वपूर्ण है जितनी नैतिकता। क्योंकि व्यक्ति कैसे खाता है, या चलता है, या उठता-बैठता है या कैसा दीख पड़ता है, कैसे कपड़े पहनता है,अपने लोगों से कैसे बात करता है, या उसके साथ कैसे रहता है, दूसरों की सुविधा का हमेशा खयाल रखता है या नहीं, या हर प्राणी से कैसे बर्ताव करता है, यह शिष्टाचार का सवाल जरूर है, लेकिन किसी दूसरी चीज से कम महत्वपूर्ण नहीं। कृष्ण शिष्टाचार के उतने बड़े नमूने थे जितना कोई मर्यादित पुरुष हो सकता है।
उन्होंने सद्व्यवहारी पुरुष या स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की परिभाषा दी है। ऐसा व्यक्ति अपने ऊपर वैसा नियंत्रण रखता है जैसे कछुआ अपने शरीर पर, अपने नियंत्रण के कारण जब चाहे अपने अंग समेट सकता है। अन्य क्षेत्र में चाहे जो भी भेद हो, लेकिन शिष्टाचार के क्षेत्र में सचमुच अपने निखरे रूप में उन्मुक्त पुरुष मर्यादित होता है। जो भी हो, मरणासन्न और श्रेष्ठ विद्वान के साथ शिष्टाचार की श्रेष्ठतम कहानी के रचियता राम हैं।
राम श्रोता थे, चुप्पी का जादू जानते थे
राम अक्सर श्रोता रहते थे। न केवल उस व्यक्ति के साथ जिससे वे बातचीत करते थे, जैसा हर बड़ा आदमी करता है, बल्कि दूसरे लोगों की बातचीत के समय भी। एक बार तो परशुराम ने उन पर आरोप लगाया कि वह अपने छोटे भाई को बेरोक और बढ़-चढ़ कर बात करने देने के लिए जानबूझ कर चुप लगाए थे। यह आरोप थोड़ा बहुत सही भी है। अपने लोगों और दुश्मनों के बीच होने वाले वाद-विवाद में वे प्राय: एक दिलचस्पी लेने वाले श्रोता के रूप में रहते थे। इसका परिणाम कभी-कभी बहुत भद्दा और दोषपूर्ण भी हो जाता था, जैसा लक्ष्मण और रावण की बहन शूर्पनखा के बीच हुआ।
ऐसे मौकों पर राम दृढ़ पुरुष की तरह शांत और निष्पक्ष दिखते थे, कभी-कभी अपने लोगों की अति को रोकते थे और अक्सर उनकी ओर से या उन्हें बढ़ावा देते हुए एकाध शब्द बोल देते थे। यह एक चतुर नीति भी कही जा सकती है लेकिन निश्चय ही यह मर्यादित व्यक्ति की भी निशानी है जो अपनी बारी आए बिना नहीं बोलता और परिस्थिति के अनुसार दूसरों को बातचीत का अधिक से अधिक मौका देता है। कृष्ण बहुत वाचाल थे। वे सुनते भी थे। लेकिन वे सुनते केवल इसीलिए थे कि वे और दिलचस्प बात कर सकें। उनके रास्ते पर चलने वालों को उनके शब्द आज भी जादू जैसे खींचते हैं। राम चुप्पी का जादू जानते थे, दूसरों को बोलने देते थे, जब तक कि उनके लिए जरूरी नहीं हो जाता था कि बात या काम के द्वारा हस्तक्षेप करें।
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