न्याय में देरी अन्याय कहलाती है,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सुप्रीम कोर्ट की हीरक जयन्ती एक अवसर है भारतीय न्याय प्रणाली की कमियों पर मंथन करते हुए उसे अधिक चुस्त, त्वरित एवं सहज सुलभ बनाना। मतलब यह सुनिश्चित करने से है कि सभी नागरिकों के लिये न्याय सहज सुलभ महसूस हो, वह आसानी से मिले, जटिल प्रक्रियाओं से मुक्त होकर सस्ता हो। इस दृष्टि से यह अकल्पित उपलब्धियों से भरा-पूरा अवसर भारत न्याय प्रक्रिया को एक नई शक्ति, नई ताजगी, और नया परिवेश देने वाला साबित हो रहा है।

क्योंकि आजादी के अमृतकाल में पहुंचने तक भारत की न्याय प्रणाली अनेक कंटिली झाड़ियों में उलझी रही है। भारतीय न्यायिक व्यवस्था का छिद्रान्वेषण करें तो हम पाते हैं कि न्यायाधीशों की कमी, न्याय व्यवस्था की खामियाँ और लचर बुनियादी ढाँचा जैसे कई कारणों से न्यायालयों में लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है तो वहीं दूसरी ओर न्यायाधीशों व न्यायिक कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है। न्याय में देरी अन्याय कहलाती है लेकिन देश की न्यायिक व्यवस्था को यह विडंबना तेज़ी से घेरती जा रही है।

सुप्रीम कोर्ट की 75वं वर्षगांठ पर आयोजित समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सरकार द्वारा न्यायिक व्यवस्था को प्रभावी, आधुनिक, तकनीकी बनाने के लिये उठाये कदमों की चर्चा की। उन्होंने अप्रासंगिक हो चुके कानूनों को बदलने एवं आधुनिक अपेक्षाओं के नये कानून बनाने की आवश्यकता पर बल दिया। जैसा कि खुद प्रधानमंत्री ने जिक्र किया औपनिवेशिक दौर के पुराने पड़ चुके कानूनों की जगह भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, भारतीय न्याय संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम जैसे नए कानून लाना बड़ा कदम है।

हालांकि ये कानून अभी लागू नहीं हुए हैं और इनसे जुड़े कुछ पहलुओं पर पुनर्विचार की जरूरत भी महसूस की जा रही है, लेकिन फिर भी इस कदम की अहमियत को कम करके नहीं आंका जा सकता। इस कार्यक्रम में उपस्थित अन्य गणमान्य व्यक्तियों में भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल, अटॉर्नी जनरल वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता शामिल थे। अनेक कानूनविद् यहां उपस्थित थे।

सुप्रीम कोर्ट की पहली बैठक 28 जनवरी, 1950 को हुई थी, देश की न्याय प्रणाली सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्देशित होती है। इसी बात का उल्लेख करते हुए मोदी ने कहा कि यह सुनिश्चित करना हमारा काम है कि न्याय की पहुंच इस देश के हर कौने एवं हर नागरिक तक पहुंचे। इसी सोच के साथ ई-कोर्ट के तीसरे चरण को मंजूरी दी गई। पिछले साल केंद्रीय बजट में, सरकार ने ई-कोर्ट परियोजना के तीसरे चरण के लिए 7,000 करोड़ रुपये के आवंटन की घोषणा की थी- जो कि 1,670 करोड़ रुपये के पिछले आवंटन से चार गुना अधिक है।

मोदी सरकार भारत की न्याय प्रणाली के आधुनिकीकरण के लिये हरसंभव सहयोग दे रही है। निश्चित ही जहां सरकार वर्तमान संदर्भ के अनुरूप कानूनों का आधुनिकीकरण कर रही है वहीं साधन-सुविधाओं को सुलभ कराने में तत्पर है। नये कानून एवं नयी आधुनिक अदालते कल के भारत को और मजबूत करेगी। नये भारत एवं सशक्त भारत को निर्मित करने में इनकी सर्वाधिक सार्थक भूमिका होगी। सरकार अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी या स्थानीय भाषाओं में न्याय-प्रक्रिया को संचालित करने के लिये भी प्रतिबद्ध है।

न्याय की सुलभता की ओर इशारा करते हुए मोदी ने पहले कही गई उस बात को दोहराया कि आदेश सरल भाषा में देने की जरूरत है। उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद शुरू हो गया है और उम्मीद जताई कि देश की अन्य अदालतें भी इसका अनुसरण करेंगी।

टेक्नोलॉजी के बढ़ते महत्व पर उन्होंने कहा, “न्याय की सुगमता में टेक्नोलॉजी किस प्रकार सहायक हो सकती है, यह आज इस कार्यक्रम से ही पता चल रहा है। मेरा संबोधन अभी कृत्रिम बुद्धिमत्ता की सहायता से अनुवादित किया जा रहा है और लोगों द्वारा सुना जा रहा है। शुरुआत में कुछ रुकावटें आ सकती हैं, लेकिन हम केवल कल्पना ही कर सकते हैं कि तकनीक कितने बड़े काम कर सकती है। इसी तरह, हमारी अदालतें हमारे नागरिकों के जीवन को आसान बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग कर सकती हैं।

सुप्रीम कोर्ट से अन्य हितधारकों की क्षमता निर्माण की दिशा में काम करना जरूरी है। सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण का काम शुरू कर दिया है। निश्चित तौर पर एक मजबूत न्यायपालिका विकसित भारत की नींव के रूप में काम करेगी। मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि जन विश्वास विधेयक न्यायपालिका पर अनावश्यक बोझ को कम करने के लिए उठाया गया कदम है।

एक सशक्त न्यायिक प्रणाली विकसित भारत का एक हिस्सा है। सरकार एक भरोसेमंद न्याय व्यवस्था बनाने के लिए लगातार काम कर रही है और कई फैसले ले रही है। जन विश्वास विधेयक इसी दिशा में एक कदम है। सुप्रीम कोर्ट की अगुआई में पिछले कुछ समय से न्यायपालिका में डिजिटाइजेशन पर खासा जोर दिया जा रहा है। इसी क्रम में ईकोर्ट्स मिशन के तीसरे फेज को भी मंजूरी मिल गई है, जिसमें कोर्ट के रिकॉर्ड्स के डिजिटाइजेशन समेत कई और क्षेत्रों में तकनीक का इस्तेमाल बढ़ाने का इरादा है।

‘ईज ऑफ जस्टिस’ से जुड़े कुछ अन्य बेहद अहम पहलू हैं, जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। सबसे बड़ा मसला है अदालतों में लंबित पड़े मुकदमों का। 2023 में पेंडिंग केसों की संख्या 5 करोड़ को पार कर गई। इनमें 1,69,000 मुकदमे ऐसे हैं, जो 30 साल से भी ज्यादा समय से हाईकोर्टों और जिला कोर्टों में लंबित हैं।

वर्तमान में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 18 न्यायाधीश ही है। ऐसे में किसी भी न्यायपालिका से समय पर न्याय देने की उम्मीद करना उचित नहीं हो सकता है। विधि आयोग की सिफारिश के अनुसार इन पदों की संख्या में वृद्धि किया जाना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट में जजों के खाली पद भरने का काम हुआ है, लेकिन हाईकोर्टों में अभी भी काफी पद खाली पड़े हैं। डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक देश के सभी 25 हाईकोर्टों में जजों के कुल 1,114 पद मंजूर हैं, लेकिन इन कोर्टों की मौजूदा न्यायाधीशों की संख्या 784 है यानी हाईकोर्टों में जजों के 330 पद खाली हैं।

न्याय प्रणाली में आमूल-चूल-परिवर्तन, परिवर्तन जरूरी है और उसे अधिक प्रभावी बनाने की अपेक्षा है। इसके लिये यह भी जरूरी है कि विशेष श्रेणी के मामलों के समाधान के लिये समय-सीमा तय की जानी चाहिये तथा लोक अदालतों और ग्राम न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिये। इससे न केवल विचाराधीन मामलों की संख्या में आनुपातिक कमी आएगी बल्कि न्यायपालिका के मूल्यवान समय की बचत होगी। अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर सर्वोत्तम उपलब्ध प्रतिभा को आकर्षित करने के लिये अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन किया जा सकता है।

यह जजों की योग्यता व गुणवत्ता में सुधार करेगा। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के कुशलतापूर्वक उपयोग से न्यायिक डेटाबेस बनाया जा सकता है। अधिवक्ताओं के लिये आचार संहिता के अनुपालन को प्रभावी बनाया जाना चाहिये ताकि मामलों को जानबूझकर विलंबित न किया जा सके। उपर्युक्त सभी बातों को देखते हुए स्पष्ट है कि भारतीय न्याय तंत्र में विभिन्न स्तरों पर सुधार की दरकार है।

यह सुधार न सिर्फ न्यायपलिका के बाहर से बल्कि न्यायपालिका के भीतर भी होने चाहिये। ताकि किसी भी प्रकार के नवाचार को लागू करने में न्यायपालिका की स्वायत्तता बाधा न बन सके। न्यायिक व्यवस्था में न्याय देने में विलंब न्याय के सिद्धांत से विमुखता है, अतः न्याय सिर्फ होना ही नहीं चाहिये बल्कि दिखना भी चाहिये।

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