इंसान परिस्थितियों का दास नहीं है, कथा आपके मन को झकझोर देगी
श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्क:
संसार में यदि सब ईश्वर की मर्जी से हो रहा है तो ईश्वर गलत क्यों होने देते हैं? यह प्रश्न परेशान करता है न? इस पोस्ट को धैर्य से पढ़कर समझें. फकीर की कथा सुनने के बाद शायद यह प्रश्न उतना परेशान न करे.
एक व्यवहारिक कथा है. पढ़ेंगे तो दो बार पढ़ने का मन करेगा. मन आनंद से भर जाएगा. आंखें खुल जाएंगी.
लोगों को कहते सुना हो या फिर खुद भी कहते होंगे- इंसान बुरा नहीं होता, उसे हालात बुरा बना देते हैं. इंसान तो परिस्थितियों का दास है. संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह ईश्वर की जानकारी में हैं, ईश्वर की इच्छा से है. फिर गलत काम क्यों हो रहे हैं?
धैर्य से इस कथा को पढ़ें. बहुत से ऐसे प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे जिसे आप न जाने कब से खोज रहे थे. इंसान परिस्थितियों का दास तो है लेकिन क्या ईश्वर उस दासता, उस गुलामी में सचमुच आपको रखना चाहते हैं.
एक बूढ़ा फकीर अपनी कुटिया में पड़ा ठिठुर रहा था. पूस की रात थी,हड्डियों को कंपा देने वाली रात. सर्दी अपनी सीमाएं लांघ रही थी.
फकीर के झोंपड़े में एक रात चोर घुसे. घर में कुछ भी न था सिवाए एक कंबल के, जो फकीर ओढ़कर लेटा हुआ था. सर्द रात में कुछ चुराने की नीयत से घर में चोर आए थे पर उन्हें चुराने को कुछ भी नहीं है. फकीर यह सोचकर पीड़ा से भर गया और फफक-फफककर रोने लगा.
उसकी सिसकियां सुनकर चोरों ने पूछा- भाई क्यों रोते हो?
फकीर ने कहा- तुम सब आए थे मेरे घर में. जीवन में पहली दफा यह सौभाग्य तुमने दिया. पहली बार किसी को यह लगा कि मेरे पास भी कुछ मिल सकता है वरना दुनिया तो यही जानती है कि मैं सिर्फ मांग सकता हूं. लोग फकीरों के यहां चोरी करने नहीं जाते, सम्राटों के यहां जाते हैं. फिर भी मुझ फकीर को भी तुमने यह मौका दिया.
तुम चोरी करने क्या आए, मुझे सम्राट बना दिया. ऐसा सौभाग्य! पर घर में कुछ है ही नहीं, यही सोचकर रो रहा हूं. कैसा दुर्भाग्य है. पहली बार सम्राट होने की अनुभूति प्राप्त होते-होते रह गई. भाई तुम अगर जरा दो दिन पहले मुझे अपने इरादे की खबर कर देते तो मैं कुछ न कुछ इंतजाम करके रखता.
दो-चार दिन का समय मिला होता तो कुछ न कुछ मांग-मूंग कर इकट्ठाकर ही लेता. पर अभी तो बस ये कंबल ही है मेरे पास. यही तुम ले जाओ. और देखो इंकार मत करना. इंकार करोगे तो मेरे दिल को बड़ी ठेस पहुंचेगी.
फकीर कहता जा रहा था. अपनी भावनाएं चोरों के सामने व्यक्त करता जा रहा था. निष्कपट भावनाएं थीं ये. कोई बनावटीपन नहीं. वह चोरों को फुसलाने या फंसाने की कोई चाल नहीं थी. वह उसके दिल की बात थी. जब आप सरल हृदय, निष्कपट होते हैं तो ऐसे भी भाव भरते हैं. दूसरे आपको विचित्र, सनकी या पागल कह देंगे. वे कहां देख पाते हैं आपके मन को सोने का बनता.
चोरों के साथ भी यही हुआ. वे निष्कपट थोडे ही थे. न ही दयालु थे. जिसके घर में चोरी करने आए हैं वह प्रतिरोध नहीं कर है, बल्कि इसलिए रो रहा है कि उसके घर से कुछ चोरी ही नहीं हो रही. यह सब सुनकर चोर घबरा गए, बेचैन हो गए.
उनकी कुछ समझ में नहीं आया. ऐसा आदमी उन्हें कभी मिला नहीं था. चोरी तो जिंदगी भर की थी, मगर ऐसे आदमी से पहली बार मिलना हुआ था. भीड़-भाड़ तो खूब है पर उसमें आदमी कहां हैं? शक्लें हैं बस इंसान की, इंसान बचा कहां है अब?
तरह-तरह के ख्यालों में खोए चोरों की पहली बार आंखों में शर्म आई. पहली बार किसी के सामने नतमस्तक हुए, उसकी बात को मना नहीं कर सके. मना करके इसे क्या दुख देना.
कंबल ले लिया तो भी मुश्किल हो रही क्योंकि इस के पास कुछ और है भी नहीं. कंबल शरीर से हटा तो पता चला कि फकीर तो नंगा है. कंबल ही उसका एकमात्र वस्त्र था, ओढ़ना भी, बिछौना भी.
चोर संकोच में दबे जा रहे थे तभी फकीर ने कहा- तुम मेरी फिक्र मत करो. मुझे तो नंगे रहने की आदत है. फिर इस सर्द रात में घर से निकलता ही कौन है जो मेरे नंगे होने से कोई फर्क पड़ेगा! तुम चुपचाप ले कंबल जाओ और दुबारा जब मेरे आओ तो पहले से खबर कर देना. इतनी निराशा न होगी- तुम्हें भी मुझे भी.
फकीर की एक के बाद एक बातों से चोर तो जैसे सन्न हुए जा रहे थे. उनके लिए यह सब किसी और दुनिया की बातें थी, शायद देवत्व जैसी कुछ बातें.
इंसान के अंदर जब उसका देवत्व जागता है तो समाज उसे पहले तो समझ ही नहीं पाता. उसे पागल घोषित करता है, पत्थर मारता है, सताता है, उससे डरता भी है कुछ हद तक. चोर भी घबरा गए और कंबल उठाकर एकदम से झोपड़ी से निकले और तेजी से भागे. वे तो हवा में नौ दो ग्यारह हो जाने थे पलक झपकते ही.
तभी फकीर कड़कती आवाज में चिल्लाया- सुनो, कम से कम दरवाजा तो बंद करो. मैंने तुम्हें कंबल दिया है सर्दी की रात में इसके लिए मुझे धन्यवाद दो.
आदमी अजीब है, चोरों ने सोचा पर उसकी कड़कदार आवाज ऐसी थी कि यंत्रवत हो गए. उसका आदेश माना. कंबल के लिए धन्यवाद कहा, दरवाजा बंद किया और वहां से सरपट भागे.
फकीर खिड़की पर खड़े होकर दूर जाते उन चोरों को देखता रहा. कोई व्यक्ति नहीं है ईश्वर जैसा, लेकिन सभी व्यक्तियों के भीतर जो धड़क रहा है, जो प्राणों का मंदिर बनाए हुए विराजमान है, जो श्वासें ले रहा है, वही तो ईश्वर है.
खैर, समाज अपने तरीके से चलेगा, प्रशासन भी काम करेगा. एक दिन चोर पकड़ लिए गए. अदालत में मुकदमा चला, उन्हें पेशी के लिए लाया गया.
एक चोर के शरीर पर वह कंबल था. इस तरह वह कंबल भी पकड़ा गया. वह कंबल कोई मामूली कंबल नहीं था. वह उस प्रसिद्ध फकीर का कंबल था. किसी सच्चे संत-फकीर के संपर्क में रहने वाली निर्जीव वस्तुएं भी दिव्य हो जाती हैं, उनकी कद्र बढ़ जाती है.
मजिस्ट्रेट की नजर पड़ी तो वह तुरंत पहचान गया कि यह तो उस फकीर का कंबल है.
मजिस्ट्रेट ने पूछा- तुम लोग चोर हो, पैसे वालों के यहां, गृहस्थों के यहां सेंध लगाते हो पर तुमने तो उस फकीर के यहां से भी चोरी की है. इस अदालत में मैंने बड़े-बड़े नीच देखे पर तुम जैसे नीच पहली बार आए हैं. तुमने फकीर के शरीर से कंबल क्यों चुराया. तुम्हें जरा भी शर्म न आई.
चोर कहते रहे- माई-बाप हमने चुराया नहीं. फकीर ने स्वयं दिया है. दिया क्या है जबरदस्ती पकड़ाया है. हमें तो चाहिए ही न था.
चोर की बात पर भला जज कैसे यकीन कर ले. फकीर के पास यही एक कंबल है, वह सर्दी में क्यों दे देगा. देगा भी तो किसी बूढ़े असहाय को. इन हट्ठे-कठ्ठे चोरों को क्यों देगा. बड़े नीच हैं. चोरी और सीनाजोरी दोनों मेरे सामने कर रहे हैं. इन्हें तो खूब सबक सिखाऊंगा. यह सोचकर मजिस्ट्रेट ने चोरों को आँखे दिखाई और डपटा.
मजिस्ट्रेट ने चोरों से कहा- मैं फकीर को बुलवाउंगा. अगर फकीर ने कह दिया कि कंबल मेरा है. तुमने उसे चुराया है, तो फिर और किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है. उस आदमी की एक बात हजार आदमियों की गवाही से बड़ी है. फिर तुम्हें मैं सख्त से सख्त सजा दूंगा. ऐसी सजा जिसे तुम्हारी रूह कांप जाएगी.
फकीर को अदालत में बुलवाया गया. चोर तो घबरा रहे थे, काँप रहे थे. फकीर अदालत में आया और उससे पूछा गया.
फकीर ने मजिस्ट्रेट से कहा- ये लोग चोर नहीं हैं, भले लोग हैं. मैंने इन्हें कंबल भेंट किया था. इन्होंने मुझे धन्यवाद दिया था. और जब धन्यवाद दे दिया तो फिर बात खत्म हो गई. मैंने इन्हें कंबल दिया, इन्होंने मुझे धन्यवाद दिया. इतना ही नहीं, ये इतने भले लोग हैं कि जब बाहर निकले तो दरवाजा भी बंद कर गए थे.
मजिस्ट्रेट ने चोरों को छोड़ दिया क्योंकि जिसका सामान था वही कह रहा था कि ये चोर नहीं भले लोग हैं.
चोरों का हृदय परिवर्तन हो गया. वे फकीर के पैरों पर गिर पड़े और कहा हमें दीक्षित करो. अब उन चोरों ने संन्यास लिया. तब फकीर जोर-जोर से हंसने लगा. चोर से नए-नए संन्यासी बने उसके शिष्य हैरत से देख रहे थे.
फकीर ने कहा- तुम संन्यास में प्रवेश कर सको इसलिए तो कंबल भेंट दिया था. इसे तुम पचा थोड़े ही सकते थे. इस कंबल में मेरी सारी प्रार्थनाएं बुनी थीं. इस कंबल में मेरे सारे प्रार्थनाओं की कथा थी.
“झीनी-झीनी बीनी रे चदरिया”
प्रार्थनाओं से बुना था इसे, इसी को ओढ़ कर ध्यान किया था. इसमें मेरी समाधि का रंग था, गंध थी. तुम इससे बच नहीं सकते थे. मुझे पक्का भरोसा था, कंबल ले ही आएगा तुमको.
उस दिन चोर की तरह आए थे आज शिष्य की तरह आए हो. मुझे भरोसा था क्योंकि बुरा कोई आदमी है ही नहीं. यह सब तो परिस्थितियों पर निर्भर करता है.
मनुष्य तो परिस्थितियों का दास है. ऊपर वाले की लीला का कोई ओर-छोर नहीं. न जाने किसे कब कहां पहुंचाएं, किसे कब क्या बना दें. बुरे से बुरे इंसान को भी ईश्वर दुत्कारता नहीं. उसे अपनी सारी संतानें प्रिय हैं.
वह प्रयास करता रहता है कि उसकी बिगड़ी औलाद भी रस्ते पर आ जाए. इसके लिए वह उसे मौके भी देता है. जो उस मौके को पकड़कर जीवन सुधार लेता है वही रत्नाकर डाकू से आदिकवि बनकर समाज में पूजनीय हो जाता है.
अपराध के लिए प्रायश्चित का अवसर मिले तो उसे नहीं चूकना चाहिए. क्या पता उसी प्रायश्चित के माध्यम से ईश्वर आपका जीवन संवारने की नींव रखना चाहते हों. बस उन्हें एक बहाना चाहिए, आपकी तरफ से एक पहला प्रयास.
यदि ईश्वर कर्मों का दंड देकर फल का भुगतान न कराएं तो पाप की गठरी बड़ी हो जाएगी. इतनी बड़ी गठरी लेकर हम परलोक जाएं और उससे बड़ी गठरी के साथ दोबारा जन्म लें. बात गहरी हो रही है.
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