नकल माफिया कानून मील का पत्थर साबित हो सकते हैं,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
नौकरियों की परीक्षाओं में नकल और अनियमितता रोकने के लिए सख्त सजा वाले केंद्र सरकार के विधेयक को लोकसभा की मंजूरी मिल गयी है. कई राज्यों में पहले से ही ऐसे कानून हैं. असम में भी ऐसा कानून बन रहा है. उत्तर प्रदेश की बोर्ड परीक्षाओं में नकल रोकने के लिए पिछले साल राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और गैंगस्टर एक्ट के तहत कार्रवाई के आदेश हुए थे.
रेलवे, यूपीएससी, बैंकिंग, जेईई, नीट, एसएससी, नेट और यूपीएससी की परीक्षाओं और इंटरव्यू में धांधली रोकने के लिए नये कानून का इस्तेमाल होगा. इसमें तीन से दस साल की सजा और एक करोड़ रुपये तक के जुर्माने का प्रावधान है. बगैर वारंट के गिरफ्तारी होने के बाद आरोपियों को जल्द जमानत भी नहीं मिलेगी.
नकल माफिया को प्रस्तावित कानून में संगठित अपराध के दायरे में लाया गया है. संगठित अपराध के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता के नये आपराधिक कानून में भी कड़ी सजा का प्रावधान है. दिलचस्प बात यह है कि राष्ट्रपति की मंजूरी के बावजूद नये कानूनों को अभी लागू नहीं करने से आइपीसी की कानूनी व्यवस्था जारी है. केंद्र सरकार की भर्ती में परीक्षाओं के केंद्र राज्यों में होते हैं. नये कानूनों के बगैर भी परीक्षाओं में गड़बड़ी रोकने के लिए राज्यों के कानून और आइपीसी के तहत नकल माफिया के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जा सकती है.
कड़े कानूनों के जाल के बावजूद नकल और नौकरी माफिया का कैंसर बढ़ना चिंता के साथ शर्म का विषय भी है. एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले पांच सालों में 15 राज्यों में एक लाख पदों की सरकारी भर्ती में शामिल होने वाले 1.4 करोड़ युवाओं का भविष्य नकल माफिया की वजह से दांव में लगा हुआ है. कानूनों को प्रभावी बनाने के लिए अपराध की प्रकृति और फैलाव का आकलन जरूरी है.
संगठित क्षेत्र में रोजगार की कमी है. रटने वाली पढ़ाई के कारण कुशल और अनुभवी कामगार नहीं हैं. इसलिए सरकारी नौकरियों के लिए युवाओं में होड़ है. उत्तर प्रदेश में 60,244 हजार कांस्टेबल के पदों के लिए लगभग 50 लाख युवाओं ने आवेदन किया है. नौकरियों के लिए डिग्री और अर्हता देने के नाम पर कोचिंग माफिया का वर्चस्व बढ़ा है.
लिखित परीक्षा या इंटरव्यू में जुगाड़, नकल या घूस से नौकरी में आने वाले लोगों की वजह से कामचोरी के साथ भ्रष्टाचार के पिरामिड का विस्तार हो रहा है. नये कानूनों की सफलता के रोडमैप के लिए केंद्र और राज्यों के संघीय ढांचे की समझ जरूरी है. संविधान की सातवीं अनुसूची में केंद्र सूची पर केंद्र सरकार को, राज्य सूची पर राज्यों को और समवर्ती सूची के विषयों पर दोनों को कानून बनाने का हक है. लेकिन कानून के नाम पर सियासत और नैरेटिव गढ़ने की बढ़ती प्रवृत्ति की वजह से गड़बड़ हो रही है. इससे कानून बनाने का मकसद पूरा नहीं होता.
इसे कुछ हालिया मामलों से समझा जा सकता है. काशी और मथुरा के मामलों के निपटारे के लिए प्रार्थना स्थल कानून 1991 में संसद से संशोधन करने के बजाय मामले को सुप्रीम कोर्ट की तरफ ठेला जा रहा है. महिला आरक्षण पर बहुचर्चित कानून पारित होने के बावजूद लागू नहीं हुआ है. सीएए और एनआरसी कानून के तहत नियमों को अधिसूचित नहीं किया गया. डाटा सुरक्षा कानून के तहत नियमों को अधिसूचित नहीं करने से पेटीएम जैसी कंपनियों के डाटा घोटाले बढ़ रहे हैं.
संविधान के तहत समान नागरिक संहिता के लिए संसद से पूरे देश के लिए एक समान कानून लागू होना चाहिए. उसके बजाय उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और गुजरात में राज्य स्तर पर कानून बनने से सामाजिक और संवैधानिक अराजकता बढ़ने का खतरा है. इसी तरह कोचिंग के नियमन के लिए केंद्र सरकार के नये दिशा निर्देश में जरूरी बातों का विवरण ही नहीं है. यह दिशा निर्देश किस कानून के तहत बने हैं और किस अधिकारी की अनुमति से इन्हें जारी किया गया है? इसमें फाइल संख्या और जारी करने की तारीख भी नहीं है. ऐसे सामान्य दिशा निर्देश से पुलिस और प्रशासन में भ्रष्टाचार बढ़ता है और कोचिंग माफिया का बाल बांका भी नहीं होता.
नशीले पदार्थों के मामलों की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा था कि संगठित कारोबारियों के बजाय छिटपुट ड्रग बेचने वालों और सेवन करने वालों की गिरफ्तारी से एनडीपीएस कानून का दुरुपयोग हो रहा है. ऐसा ही खेल नकल, कोचिंग और नौकरी माफिया के मामलों में दिख रहा है. सरकार का दावा है कि सख्त कानूनों का इस्तेमाल छात्रों और अभिभावकों के खिलाफ नहीं होगा. लेकिन मध्य प्रदेश के व्यापम और दूसरे राज्यों के घोटालों से साफ है कि मगरमच्छों के बजाय छोटी मछलियां ही पुलिस के निशाने पर आती हैं.
झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, तमिलनाडु जैसे कई राज्यों में सीबीआइ और इडी की कार्रवाई से साफ है कि नकल और नौकरी माफिया के पीछे बड़े अफसरों और नेताओं का हाथ है. भाजपा शासित राज्यों में भी ऐसी ही तस्वीर होगी, लेकिन वहां के घोटाले उजागर नहीं हो रहे. नकल रोकने के नाम पर तमाशा और उत्पीड़न भी बढ़ रहा है. दो साल पहले राजस्थान में राज्य लोकसेवा की प्री-परीक्षा में लड़कियों के पूरी बांह के कपड़ों को कैंची से काटकर नकल सामग्री ढूंढने की कोशिश हुई थी. नये कानूनों का इस्तेमाल संगठित और बड़े अपराधियों के खिलाफ हो और बेकसूर बच्चों का उत्पीड़न नहीं हो, तभी इनका उद्देश्य सफल होगा.
प्रस्तावित कानून में फर्जी वेबसाइट और फर्जी परीक्षाओं के माध्यम से धोखाधड़ी और वित्तीय लाभ बहुत ही संगीन अपराध है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हर साल रस्मी तौर पर फर्जी विश्वविद्यालयों की सूची जारी करता है. पिछली सूची के अनुसार देश में 20 फर्जी विश्वविद्यालय युवाओं को चूना लगा रहे हैं. ये बोगस संस्थाएं अफसरों की जानकारी में दिल्ली, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, पुद्दुचेरी और पश्चिम बंगाल में ताल ठोक कर चल रही हैं. नये कानून के तहत ऐसे विश्वविद्यालयों की वेबसाइट बंद करने के साथ उनके संचालकों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए.
उनके परिसर, संपत्ति और गैर-कानूनी वित्तीय लाभ की जब्ती से नकल माफिया के खिलाफ देशव्यापी संदेश जायेगा. इसी तरह कई फर्जी कॉलेज भी चल रहे हैं, जिनमें पेशेवर डिग्रियों को बेचा जाता है. ऐसे नकली संस्थान शिक्षा और पेशेवर क्षेत्र दोनों को खराब कर रहे हैं. इसके साथ कोचिंग संस्थानों को नियमित करने वाले कानून पर भी अमल हो, तो परीक्षा प्रणाली में धन, नकल और जुगाड़ का प्रकोप कम होगा. विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाले देश में युवाओं को नकल के बजाय मेहनत से सफलता और रोजगार मिले. नौकरी में जुगाड़ के बजाय प्रतिभा को मान्यता मिले. युवाओं के संबल को बढ़ाने की दिशा में ये कानून मील का पत्थर साबित हो सकते हैं.