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महेन्द्र बाबू अपने छात्र जीवन से ही क्रान्तिकारी विचार से प्रभावित थे-डाॅ. ज्योत्स्ना प्रसाद - श्रीनारद मीडिया

महेन्द्र बाबू अपने छात्र जीवन से ही क्रान्तिकारी विचार से प्रभावित थे-डाॅ. ज्योत्स्ना प्रसाद

महेन्द्र बाबू अपने छात्र जीवन से ही क्रान्तिकारी विचार से प्रभावित थे-डाॅ. ज्योत्स्ना प्रसाद

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भक्ति की अजस्र धारा को हम निर्गुण भक्ति-धारा और सगुन भक्ति-धारा में विभक्त कर देते हैं, पर दोनों का उद्देश्य एक ही है; ईश्वर की प्राप्ति। ठीक वैसे ही भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में गाँधीजी की अहिंसावादी विचार-धारा और भगतसिंह, चन्द्रशेखर ‘आज़ाद’, राजगुरु, सुखदेव या सुभाष चन्द्र बोस की क्रांतिकारी विचार-धारा दोनों का उद्देश्य एक ही था, भारत माता को गुलामी की ज़ंजीर से आज़ाद कराना। महेन्द्र बाबू अपने छात्र-जीवन से इसी क्रान्तिकारी विचार-धारा से प्रभावित थे।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी महेन्द्र बाबू गोरा रंग, छः फीट लम्बा शरीर और सुन्दर- सुडौल कद-काठी के मालिक थे। वे एक ओर जहाँ संघर्षशील व्यक्ति, वीर योद्धा और हिम्मती व्यक्ति थे, तो वहीं दूसरी ओर ज़िन्दादिल थे। उनका व्यक्तित्व ऐसा सुलझा हुआ था, जिससे हर उम्र के लोग सहज ही उनसे प्रभावित हो जाते थे।

महेन्द्र बाबू का व्यक्तित्व बहु आयामी था। वे जहाँ एक ओर ओल्ड सारण ज़िले के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद्, सीवान ज़िले के प्रथम स्वयंसेवक एवं प्रचारक थे; वहीं दूसरी ओर स्वतंत्र भारत के हिन्दुस्थान समाचार एजेंसी के सीवान ज़िला के प्रथम संवाददाता, समाजसेवी एवं दिघवलिया पंचायत के 23 वर्षों तक मुखिया थे।

महेन्द्र बाबू के पिता श्री रसिक बिहारी शरण ( एम.ए., एल.एल.बी) का विवाह मुजफ्फरपुर ज़िला के कुरहनी थाना के भगवानपुर गाँव के श्री वासुदेव नारायण की लड़की श्रीमती रामज्योति देवी से हुआ था। महेन्द्र बाबू के एक मामा श्री रामधारी प्रसाद ‘विशारद’ एक कर्मठ स्वतंत्रता सेनानी और बिहार के प्रमुख साहित्यकार थे।  बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वे संस्थापक सदस्य के साथ-साथ लम्बे अरसे तक उसके प्रधानमंत्री भी रहें एवं बौंसी अधिवेशन की अध्यक्षता भी उन्होंने ही की थी।

महेन्द्र बाबू का जन्म अपने ननिहाल में 24 मार्च 1924 में हुआ था। ये अपने सात भाई-बहनों में चौथे नम्बर पर थे। इनका बचपन इनके ननिहाल में बहुत लाड़-प्यार से गुज़रा था। इनके ननिहाल में साहित्यिक एवं स्वतंत्रता सेनानी लोगों का आना-जाना लगा रहता था। सहज ढंग से इन लोगों के संपर्क में आने का संजोग महेन्द्र बाबू को मिल जाता था।

महेन्द्र बाबू का बचपन बड़ा सुखमय था। घर-परिवार, धन-संपत्ति, सुख-वैभव, हाथी-घोड़ा किसी चीज़ की कमी नहीं थी। फिर भी वे इन भौतिक आकर्षणों में  बँध नहीं पायें। कारण, उनका विचार था कि जब तक भारत माता बेड़ियों में जकड़ी रहेंगी तब तक बाहरी सुख भी कोई सुख है? इसलिए अपनी किशोरावस्था में पहुँचते-पहुँचते, वे सीवान ज़िले के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में शुमार हो गयें।

1942 के अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आन्दोलन में एक सक्रिय छात्र-नेता के रूप में भाग लेने वाले एवं भारतीय जनसंघ की बिहार प्रदेश के संस्थापक होने के बावजूद उनकी पढ़ाई चलती रही और वे सीवान ज़िले के दो संकायों- कला एवं वाणिज्य में स्नातकोत्तर करने वाले प्रथम व्यक्ति बन गयें क्योंकि जिस संस्कार में उनका लालन-पालन हुआ था, उसकी मान्यता थी-

“न चोरहार्यम् न च राजहार्यम्,
न भ्रातृभाज्यम् न च भारकारि।
व्यये कृते  वर्धत  एव  नित्यम्,
विद्याधनं     सर्वधनप्रधानम्।।”

महेन्द्र बाबू की प्राथमिक शिक्षा गाँव में ही हुई थी। जबकि उनकी माध्यमिक शिक्षा सीवान के वी.एम.एच.ई. स्कूल में हुई। आई. काॅम उन्होंने डी.ए.वी. महाविद्यालय, सीवान से किया। बी.काॅम. फर्स्ट पार्ट राजेन्द्र काॅलेज छपरा से किया और सेकेण्ड पार्ट मारवाड़ी काॅलेज भागलपुर से किया। उसके बाद वे बनारस चले गयें और  काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1951 में एम. काॅम. किए। जिसके बाद उनकी शादी पिलुई निवासी श्री श्याम किशोर श्रीवास्तव ‘शाम’ ( एम. ए., एल. एल. बी.) की सुपुत्री सुश्री शैलजा कुमारी श्रीवास्तव के साथ हो गई, जो सीवान ज़िले की प्रथम महिला स्नातक थीं। अपनी शादी के बाद भी महेन्द्र बाबू ने अपनी पढ़ाई को जारी रखते हुए डी. ए. वी. महाविद्यालय कानपुर से एम. ए. अर्थ शास्त्र में किया और इस तरह उन्होंने दो संकायों- कला एवं वाणिज्य में स्नातकोत्तर किया। डीप. इन. एड. तुर्की (मुजफ्फरपुर) से उन्होंने किया।

महात्मा गाँधी के हत्याकांड के उपरान्त राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर लगे प्रतिबंध के कारण महेन्द्र बाबू को उनके दो छोटे भाइयों के साथ जेल में डाल दिया गया। महेन्द्र बाबू को छपरा, मुजफ्फरपुर और भागलपुर के सेंट्रल जेल में रखा गया। जबकि इनके दोनों छोटे भाइयों में से सुरेन्द्र कुमार को बांकीपुर जेल में रखा गया और हरेन्द्र कुमार को सीवान जेल में रखा गया।

राम जन्मभूमि आन्दोलन के समय 51 कारसेवकों का नेतृत्व करते हुए महेन्द्र बाबू कारसेवा करने के पश्चात् अयोध्या से सीवान लौट रहे थे। सीवान जंक्शन पर 51 कारसेवकों के साथ उन्हें भी ज़िला प्रशासन द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया। करीब एक सप्ताह तक सीवान जेल में रखने के पश्चात उन्हें 51 कारसेवकों के साथ रिहा कर दिया गया।

1942 के आन्दोलन से छात्र-नेता के रूप में ख्याति प्राप्त महेन्द्र बाबू को बिहार जनसंघ के संस्थापक ही नहीं माना जाता बल्कि पार्टी में जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी एवं महासचिव व विचारक पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के समकालीन भी माना जाता था। महेन्द्र बाबू पंडित दीनदयाल उपाध्याय के आदेश पर बलिया से पटना आये थे, बिहार में भारतीय जनसंघ की स्थापना के लिए।

जब तक देश आज़ाद नहीं था, तब तक सभी देश-भक्तों का एक ही लक्ष्य था; देश को आज़ाद कराना। इसीलिए  प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस या गाँधीजी के आह्वान पर ही सारा देश एकजुट हो अपने-अपने ढंग से उसका कार्यान्वयन करता था। पर जब देश आज़ाद हो गया तब कांग्रेस की विचारधारा से अलग विचार रखने वाले लोग कांग्रेस से अलग अपना अस्तित्व तलाशने लगें। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने एक राजनीतिक पार्टी के रूप में जनसंघ की स्थापना भी इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए की थी।

महेन्द्र बाबू ने अपने एक साक्षात्कार में संघ के प्रति अपने झुकाव के बारे में बताते हुए कहा था कि सन् 1936 में सीवान के एडवर्ड मेमोरियल पार्क ( आज का गाँधी मैदान) में पण्डित मदनमोहन मालवीय जी का भाषण हुआ था। जिस भाषण ने महेन्द्र बाबू के बाल मन को झकझोर दिया और वे संघ की ओर झुकने लगे और  आगे चलकर जनसंघ के संस्थापक सदस्य, सीवान विद्या मंदिर ईकाई के संस्थापक एवं वर्षों तक सारण प्रमंडल के विभाग संघ चालक तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता रहें।

महेन्द्र बाबू  मितभाषी, गंभीर स्वभाव के एक सुलझे हुए व्यक्ति थे। उनका व्यक्तित्व अनुकरणीय था। वे एक राष्ट्र भक्त एवं कट्टर संघी थे। इसीलिए ऊपरी चमक-दमक और दिखावे से दूर जमीन से जुड़े हुए व्यक्ति थे। उनके लिए राष्ट्र सर्वोपरि था। इसलिए वे दलगत, जातिगत, धर्मगत  राजनीति से ऊपर उठकर समाज सेवा एवं मानवीय धर्म निभाने में विश्वास रखते थे। उनके जीवन में घटी एक नहीं अनेक घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है। आज यह बात जानकर लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि उन्होंने एक बार नहीं बल्कि अनेक बार बिना कोई एहसान जताये ज़रूरतमंदों को नौकरी दिलाने के लिए अपनी नौकरी तक त्याग दी थी। जिसके कारण उनके इलाक़े में उनकी बहुत प्रतिष्ठा थी। इसलिए ब्रजकिशोर हाई स्कूल के शिक्षक स्व. ज़फ़र सीवानी प्रायः कहा करते थे-“महेन्द्र बाबू ने सिर्फ़ हमलोगों को नौकरी ही नहीं दी है, बल्कि पुत्रवत् स्नेह भी दिया है।

महेन्द्र बाबू के जीवन में घटित इन्हीं घटनाओं के आलोक में उनकी 94 वीं जयंती के अवसर पर जयन्ती समारोह  के मुख्य अतिथि प्रसिद्ध चिकित्सक डाॅ. राजा प्रसाद ने कहा- ” महेन्द्र कुमार जी जैसे व्यक्तित्व कभी-कभी इस धरती पर अवतरित होते हैं। महेन्द्र जी सदैव सेवा-भाव से समाज में काम करते थे। सेवा के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए सदा प्रेरणा के श्रोत बने रहेंगे।” इसी बात को डाॅ. देवराज जी ने इस तरह से कहा- “महेन्द्र बाबू हमेशा प्रेरणा के श्रोत बने रहेंगे।”

डाॅ. प्रमिला विद्यार्थी (प्रो. राँची विश्वविद्यालय) अपने शोध ग्रंथ ‘सीवान और 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन’ में  महेन्द्र बाबू के बारे में लिख रहीं हैं-” महेन्द्र कुमार ने दरौंधा चैनवा के पास एक एग्लो इण्डियन ट्रेन यात्री से रिवाल्वर छीने थे। वे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे। – दो रिवाल्वर और छीने गए एक बनकटा और दूसरा मैरवा के आस-पास।” झारखंड के विकास उप आयुक्त स्व. प्रभु नारायण विद्यार्थी की लिखी किताब- ‘कालापानी बंदी श्यामदेव नारायण एवं स्वतंत्रता के शहीद” में भी ‘सीक्रेट सोसायटी’ के बैनर के नीचे अंगरेजों के विरुद्ध क्रान्तिकारी गतिविधियों को अंजाम देते महेन्द्र बाबू की चर्चा है।

महेन्द्र बाबू के लिए भारत में रहने वाला हर व्यक्ति भारतीय है। इसीलिए उन्होंने अपने या अपने बच्चों के नामों में जाति, वंश या गोत्र सूचक कोई शब्द नहीं लगाया, और न ही अपने परिचय का कभी लाभ ही उठाया। इसी बात का जिक्र करते हुए अनीश पुरुषार्थी ‘सीवान जागरण’ में लिखे अपने लेख ‘खून से हस्ताक्षर कर दिया देशभक्ति का संदेश’ लेख में लिखते हैं- “राजनीति में शुचिता व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रबल पक्षधर महेन्द्र बाबू को सिद्धान्तवादी राजनीति का पुरोधा कहा जाता है।”

महेन्द्र बाबू की मृत्यु मुम्बई में 29 मार्च 2016 में हो गई। उनके अंतिम संस्कार के लिए उनके पार्थिव शरीर को प्लेन से पटना लाया गया और पटना से गाड़ी से सीवान लाया गया। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि लोग उनके पार्थिव शरीर पर पुष्पांजलि अर्पित करने के लिए दलगत एवं जातिगत राजनीति को भूलकर हर समाज एवं वर्ग के लोग उनके घर उमड़ आयें। उनके अंतिम दर्शन के लिए लोगों की भीड़ उनके घर एवं पास वाली सड़क पर मेला जैसी थी।

उनकी शोक-सभा केवल संघ या भारतीय जनता पार्टी द्वारा ही नहीं मनायी गयी, बल्कि अनेक सामाजिक संस्थाओं ने मनायीं। आज भी प्रसंगवश उन्हें किसी न किसी अवसर पर याद किया जाता है।

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