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चीन-ताइवान संघर्ष का भारत के लिये क्या महत्व है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

चीन द्वारा ताइवान पर अपनी संप्रभुता का दावा करना जारी है, जहाँ वह इसे अपने भूभाग के एक अंग के रूप में देखता है और यदि आवश्यक हो तो बलपूर्वक मुख्य भूमि में इसके पुनःएकीकरण पर बल देता है। इस क्रम में चीन ने ताइवान के आसपास अपनी सैन्य गतिविधियों में उल्लेखनीय वृद्धि की है, जिसमें ताइवान के वायु रक्षा पहचान क्षेत्र (ADIZ) में नियमित हवाई एवं नौसैनिक घुसपैठ करना भी शामिल है। चीन की बढ़ती मुखरता की प्रतिक्रिया में संयुक्त राज्य अमेरिका ने ताइवान की सुरक्षा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है और हथियारों की बिक्री एवं  सैन्य सहयोग सहित अपना समर्थन बढ़ाया है।

दूसरी ओर, ताइवान अपनी अलग पहचान और लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाए रखना चाहता है, जहाँ इसकी अधिकांश आबादी वास्तविक स्वतंत्रता की यथास्थिति का समर्थन करती है। ताइवान ने चीन की सैन्य धमकियों के जवाब में अपनी सुरक्षा मज़बूत की है और अपनी अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति एवं साझेदारियों को सशक्त करने का प्रयास कर रहा है।

चीन-ताइवान संघर्ष का वर्तमान संदर्भ क्या है?

  • ऐतिहासिक संदर्भ:
    • ताइवान चिंग राजवंश (Qing dynasty) के दौरान चीन के नियंत्रण में आ गया था लेकिन वर्ष 1895 में चीन-जापान युद्ध में चीन की हार के बाद यह जापान के नियंत्रण में आ गया।
    • द्वितीय विश्व युद्ध  में जापान की हार के बाद वर्ष 1945 में चीन ने ताइवान पर फिर से कब्ज़ा कर लिया, लेकिन राष्ट्रवादियों और कम्युनिस्टों के बीच छिड़े गृहयुद्ध के कारण वर्ष 1949 में राष्ट्रवादियों ने भागकर ताइवान में शरण ली।
    • ताइवान मुद्दे की जड़ें नेशनलिस्ट पार्टी (कुओमितांग) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (CPC) के बीच चले गृह युद्ध (1927-1950) में देखी जा सकती हैं।
    • वर्ष 1949 में कम्युनिस्टों की जीत के बाद राष्ट्रवादी सरकार ताइवान में शरण लेने के लिये विवश हुई और वहाँ रिपब्लिक ऑफ चाइना (ROC) की स्थापना की, जबकि CPC ने मुख्य भूमि पर पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) की स्थापना की घोषणा की।
  • ‘वन-चाइना’ नीति:
    • PRC और ROC दोनों ही संपूर्ण चीन की वैध सरकार का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं। PRC ताइवान पर संप्रभुता का दावा करता है और इस बात पर बल देता है कि केवल एक चीन है और ताइवान उसका हिस्सा है। ‘वन-चाइना’ नीति (One-China Policy) में यह दृष्टिकोण समाहित है।

ताइवान का सामरिक महत्त्व:

  • भू-राजनीतिक अवस्थिति:
    • ताइवान पश्चिमी प्रशांत महासागर में चीन, जापान और फिलीपींस के निकट रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण स्थान पर स्थित है। इसकी अवस्थिति दक्षिण-पूर्व एशिया और दक्षिण चीन सागर के लिये एक प्राकृतिक प्रवेश द्वार प्रदान करती है, जो वैश्विक व्यापार एवं सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।

  • सैन्य महत्त्व:
    • मुख्य भूमि चीन से ताइवान की निकटता इसे चीन और अन्य क्षेत्रीय शक्तियों, दोनों के लिये सैन्य योजना में एक महत्त्वपूर्ण कारक बनाती है।
    • ताइवान पर नियंत्रण से पश्चिमी प्रशांत क्षेत्र में शक्ति प्रदर्शित करने की चीन की क्षमता बढ़ेगी और संभावित रूप से जापान और दक्षिण कोरिया जैसे प्रमुख अमेरिकी सहयोगियों के लिये खतरा उत्पन्न होगा।
  • आर्थिक महत्त्व:
    • ताइवान वैश्विक बाज़ार में, विशेष रूप से सेमीकंडक्टर और इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योगों में, एक प्रमुख आर्थिक खिलाड़ी है।
    • इसकी अर्थव्यवस्था क्षेत्रीय और वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है, जो इसे क्षेत्रीय स्थिरता और आर्थिक सुरक्षा के लिये रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण बनाती है। ताइवान विश्व के 60% से अधिक सेमीकंडक्टर और 90% से अधिक सबसे उन्नत सेमीकंडक्टर का उत्पादन करता है।

भारत क्यों नहीं चाहता कि संघर्ष बढ़े?

  • व्यापारिक और आर्थिक चिंताएँ:
    • भारत और ताइवान के व्यापार में वर्ष 2001 के बाद से सात गुना वृद्धि हुई है और वे एक संभावित मुक्त व्यापार समझौते की तलाश कर रहे हैं। ताइवानी फर्म ‘पावरचिप सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कॉर्पोरेशन’ ने भारत के पहले सेमीकंडक्टर फैब्रिकेशन प्लांट के निर्माण के लिये टाटा समूह के साथ साझेदारी की है।
    • भारतीय कामगारों को ताइवान भेजने के लिये हाल ही में एक समझौते पर हस्ताक्षर किये गए। भारतीय उद्योग, महत्त्वपूर्ण आपूर्ति शृंखलाएँ और प्रवासी आबादी सभी ताइवान स्ट्रेट में स्थायी शांतिपूर्ण यथास्थिति में अपना हित देखते हैं।
  • युद्ध के कारण व्यवधान:
    • ताइवान के विरुद्ध कोई भी चीनी आक्रामकता भारत के लिये अत्यंत नुकसानदेह सिद्ध होगी। ऐसा परिदृश्य वस्तुतः चीन और ताइवान के साथ वैश्विक व्यापार को बाधित कर देगा, जो पूरे एशिया और पश्चिम एशिया में व्यवधान उत्पन्न करेगा।
    • ब्लूमबर्ग के एक हालिया अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि इस संघर्ष की लागत वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के 10% से अधिक होगी। भारत की अर्थव्यवस्था को अमेरिकी अर्थव्यवस्था से भी बड़ा झटका लगेगा और इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर फार्मास्यूटिकल्स तक इसके सबसे मूल्यवान क्षेत्रों में घटकों एवं सामग्रियों की कमी हो जाएगी।
  • सीमाओं के पार ‘स्पिल-ओवर इफ़ेक्ट’:
    • चीन और अमेरिका के बीच एक लंबा या सामान्य युद्ध ताइवान से परे अन्य क्षेत्रों में भी फैल सकता है। यह पहले से ही तनावपूर्ण भारत-चीन भूमि सीमा को भी उत्तेजित कर सकता है।
    • यह चीन, अमेरिका और अन्य क्षेत्रीय देशों की औद्योगिक क्षमता के एक बड़े हिस्से को नष्ट कर सकता है, जिस पर दुनिया निर्भर करती है। यह अकल्पनीय परमाणु खतरे की वृद्धि का भी जोखिम रखता है।
  • भारत की दीर्घकालिक अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में गिरावट:
    • हालाँकि कोई भी संघर्ष स्वयं में विनाशकारी होगा, इसके परिणाम भारत की दीर्घकालिक अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को और कमज़ोर कर सकते हैं, जो इस बात पर निर्भर करता है कि कौन-सा पक्ष प्रबल सिद्ध होता है।
    • एक सीमित संघर्ष, जहाँ चीन को ताइवान के पास बल संकेंद्रित करने का सापेक्षिक लाभ प्राप्त होगा, ताइवान पर चीन की जीत और अमेरिका एवं उसके सहयोगियों की हार जैसे संभावित परिदृश्य में परिणत हो सकता है।
    • यदि चीन, इस युद्ध के परिणामस्वरूप, क्षेत्र की प्रमुख सैन्य शक्ति के रूप में अमेरिका को विस्थापित कर देता है, तो यह क्षेत्र की संपूर्ण सुरक्षा संरचना को कमज़ोर कर देगा।
  • पड़ोस में हथियारों की होड़ को बढ़ावा:
    • इस परिदृश्य में अमेरिकी सुरक्षा गारंटी कम विश्वसनीय होगी, पड़ोसी देश अधिक हथियारों या आक्रामक मुद्राओं के साथ अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का प्रयास कर सकते हैं और चीन की सेना हिंद महासागर सहित अन्य भूभागों में अपने अनियंत्रित प्रभाव को आगे बढ़ाने के लिये स्वतंत्र होगी।
      • यहाँ तक कि अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा जताने का चीन का साहस भी बढ़ सकता है। हालाँकि भारत अमेरिका का निकट सहयोगी (ally) नहीं है, लेकिन अपने सैन्य आधुनिकीकरण और मोटे तौर पर सौम्य रणनीतिक माहौल के लिये अमेरिका पर निर्भर करता है।

बढ़ते संघर्ष को प्रबंधित कर सकने में भारत के पास कौन-से विकल्प उपलब्ध हैं?

  • ताइवान स्ट्रेट में सैन्य संतुलन बनाए रखना:
    • बीजिंग ताइवान के प्रति अपनी रणनीति में अंतर्राष्ट्रीय कानून, आर्थिक लाभ की स्थिति और राजनीतिक प्रभाव जैसे विभिन्न साधनों का उपयोग करता है तथा जहाँ तक संभव हो सैन्य बलप्रयोग से बचता है। चीन लागत और व्यवधानों को न्यूनतम रखने तथा सैन्य कार्रवाई के लिये तब आगे बढ़ने का लक्ष्य रखता है जब उसे विश्वास हो कि जीत सुनिश्चित है।
      • ताइवान स्ट्रेट में संघर्ष रोकने के लिये सैन्य संतुलन महत्त्वपूर्ण है, लेकिन भारत जैसे देश बीजिंग को यह समझाने में भी योगदान दे सकते हैं कि सैन्य कार्रवाई करने की उसकी शर्तों की पुष्टि नहीं हो रही है।
  • विभिन्न नीति विकल्पों की खोज:
    • भारत के पास छह प्रकार के नीति विकल्प उपलब्ध हैं: अंतर्राष्ट्रीय कानून संबंधी तर्क; आक्रामकता के विरोध में आख्यान का निर्माण; समन्वित राजनयिक संदेश; आर्थिक जोखिम कम करना; ताइवानी लोगों का समर्थन करने के लिये सक्रिय सूचना संचालन; और हिंद महासागर में अमेरिकी सेना को सैन्य सहायता।
      • इनमें से प्रत्येक विकल्प को महत्वाकांक्षा और राजनीतिक इच्छा के विभिन्न स्तरों पर समायोजित किया जा सकता है तथा उन्हें कई अन्य देशों द्वारा भी अनुकूलित एवं लागू किया जा सकता है।
    • ये विकल्प, चीन-ताइवान विवाद पर उनके प्रभाव की परवाह किये बिना, भारत की भव्य रणनीतिक स्थिति को भी आगे बढ़ा सकते हैं:
      • इन नीतियों को लागू करने से, सबसे पहले और सबसे महत्त्वपूर्ण, चीन के साथ बढ़ती रणनीतिक प्रतिस्पर्द्धा में भारत को अधिक लाभ की स्थिति प्राप्त होगी।
      • ये विकल्प भारत को अमेरिका के साथ अपने सहयोग को गहरा करने के लिये अतिरिक्त अवसर भी प्रदान करते हैं, जिससे इसके राष्ट्रीय उत्थान को गति प्राप्त होगी।
      • ये भारतीय अंतर्राष्ट्रीय नेतृत्व के लिये, विशेष रूप से वैश्विक दक्षिण के देशों के बीच, एक व्यापक एजेंडा भी पेश करते हैं, जो अन्यथा अधिक व्यापक रूप से चीनी आक्रामकता को रोकने में निष्क्रिय या असंयमित सिद्ध होगा।
  • वन-चाइना नीति पर पुनर्विचार करना:
    • भारत वन-चाइना नीति पर पुनर्विचार भी कर सकता है और मुख्य भूमि चीन के साथ अपने संबंध को ताइवान के साथ संबंध से पृथक कर सकता है। यह ऐसा ही होगा जैसे चीन अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना ‘ चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) के माध्यम से भारतीय संवेदनशीलता की उपेक्षा करते हुए पाक-अधिकृत कश्मीर (PoK) में अपनी भागीदारी बढ़ा रहा है।
  • सहयोगात्मक दृष्टिकोण का पालन:
    • भारत और अन्य शक्तियों को ताइवान पर बलपूर्वक कब्जा करने के किसी भी चीनी प्रयास के विरुद्ध एक ‘रेडलाइन’ तय करनी होगी। ताइवान का मुद्दा केवल एक सफल लोकतंत्र के विनाश की अनुमति देने का नैतिक प्रश्न नहीं है या महज अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता का प्रश्न नहीं है जहाँ विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने के सिद्धांत का पालन किया जाता है।
      • वस्तुतः यह ‘रेडलाइन’ तय करना ताइवान के लिये नहीं, बल्कि ताइवान पर चीनी आक्रमण के भारत और शेष एशिया पर परिणाम के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है।

भारत के विस्तारित राष्ट्रीय हित ताइवान के संबंध में यथास्थिति बनाए रखने के मज़बूत तर्क प्रस्तुत करते हैं। भारत के आर्थिक और सुरक्षा हितों के कारण ताइवान पर किसी भी संघर्ष में उसके संलग्न होने की संभावना बहुत कम है। इस तरह के संघर्ष की लागत विनाशकारी होगी, जिससे वैश्विक व्यापार प्रभावित होगा और संभावित रूप से व्यापक क्षेत्रीय संघर्ष उत्पन्न हो सकते हैं। भारत ऐसे परिदृश्य के उभार को रोकने के लिये विभिन्न नीतिगत विकल्पों का उपयोग कर सकता है, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय कानूनी तर्क, राजनयिक संदेश, आर्थिक रणनीति, सूचना संचालन और हिंद महासागर में अमेरिका को सैन्य समर्थन देना शामिल है।

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