उपनयन संस्कार में जब जिगर का टुकड़ा मांगता है अपनी मां से भिक्षा….

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उपनयन संस्कार में बटुक को विनम्रता और सहनशीलता की सीख देने वाली सनातनी लोक परम्परा

✍️डॉक्टर गणेश दत्त पाठक

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सनातनी परंपरा में सोलह संस्कार पाए जाते हैं। इसमें उपनयन संस्कार का विशेष महत्व होता है। पहले के जमाने में उपनयन संस्कार के बाद छात्र गुरुकुल जाया करते थे तो यह उपनयन संस्कार बेहद भावनात्मक हो जाया करता था। मां का ममत्व उमड़ पड़ता था क्योंकि उसके जिगर के टुकड़े को उससे दूर गुरुकुल जाना होता था। आधुनिक दौर में गुरुकुल तो नहीं जाना होता है। लेकिन एक लोकाचार उपनयन संस्कार को बेहद भावनात्मक आयाम दे जाता है। सीवान, छपरा सहित बिहार और उत्तर प्रदेश में यद्यपि उपनयन संस्कार की विधि बेहद कम समय में हो रही लेकिन मां से बटुक के भिक्षाटन की परंपरा आज भी है बेहद महत्वपूर्ण।

उपनयन संस्कार का सबसे भावनात्मक पल

उपनयन संस्कार में मां घर के किसी पवित्र स्थल पर बैठकर अपने जिगर के टुकड़े , अपने आंखों के तारे, अपने लाडले को भिक्षा देती है। बटुक अपने मां के पास पांच बार भिक्षा मांगने आता है। यह परंपरा उपनयन संस्कार का सबसे भावनात्मक पल होता है। उस समय मां के मन की संवेदना का अहसास ही नयन गीले कर देता है।

मुंडन के उपरांत भिक्षाटन

उपनयन संस्कार में पहले पिता के साथ बैठकर बटुक भगवान की पूजा अर्चना करता है। उसके बाद उसका मुंडन होता है। मुंडन के बाद बुआ और बहन के द्वारा लापर परिछने के बाद बटुक अपनी मां के पास पांच बार भिक्षा मांगने जाता है। वैसे तो भिक्षाटन को बेहद नकारात्मक माना जाता है लेकिन उपनयन संस्कार के समय अपने जिगर के टुकड़े, अपने लाडले द्वारा मां से भिक्षाटन का विशेष संदेश होता है।

कठिन परिस्थितियों का सामना करने का मिलता साहस

उपनयन संस्कार में भिक्षा लेना बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि भिक्षा मांगने से अहंकार नष्ट हो जाते हैं। व्यक्ति के अंदर विनम्रता आती है और उसे कठिन से कठिन परिस्थिति का सामना करने के लिए संबल भी मिलता है। वहीं जब बालक अपनी माता से भिक्षा लेने के लिए जाता है, तो उनकी माता उन्हें अन्न देती हैं और प्रेम का परिभाषा भी समझाती हैं। जो बटुक को भावी जिंदगी की चुनौतियों का सामना करने के लिए एक बड़ी सीख भी होती है।

एक बार भगवान शिव ने भी मांगी थी भिक्षा मां अन्नपूर्णा से….

पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार पृथ्वी पर सूखा पड़ गया। जमीन बंजर हो गई। फसलें, फलों आदि की पैदावार ना होने से जीवन का संकट आ गया। तब भगवान शिव ने पृथ्वीवासियों के कल्याण के लिए भिक्षुक का स्वरूप धारण किया और माता पार्वती ने मां अन्नपूर्णा का अवतार लिया। इसके बाद भगवान शिव ने मां अन्नपूर्णा से भिक्षा में अन्न मांगा। इस अन्न को लेकर भगवान शिव पृथ्वी लोक पर गए और सभी प्राणियों में इसे बांट दिया। इसके बाद धरती पर एक बार फिर से धन-धान्य हो गया।

सनातनी परंपरा में भिक्षाटन के सकारात्मक आयाम का प्रकटीकरण एक अद्भुत तथ्य है। अहंकार को सनातनी परंपरा में मानव का सबसे बड़ा दुर्गुण माना गया है जबकि विनम्रता को जीवन के सौंदर्य को बढ़ाने वाला तथ्य। उपनयन संस्कार में बटुक द्वारा अपनी मां से भिक्षा मांगने की परंपरा जिंदगी के लिए बड़ा संदेश दे जाती है सहनशीलता और विनम्रता का।

तस्वीर में उपनयन संस्कार के दौरान बटुक राघव अपनी माता जी से भिक्षाटन करते हुए।

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