भ्रामक विज्ञापनों से क्यों बचना चाहिए?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
इंटरनेट ने सूचना, संचार एवं संवाद के दायरे को अद्भुत विस्तार दिया है, पर यह भ्रामक विज्ञापनों, फेक न्यूज और धोखाधड़ी का भी बहुत बड़ा ठीहा बन चुका है. यह बेहद चिंताजनक है कि अधिकतर आपराधिक और नकारात्मक विज्ञापन स्वास्थ्य से संबंधित हैं.
विज्ञापन मानकों की नियामक संस्था एडवरटाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया विभिन्न माध्यमों- टीवी, प्रिंट, डिजिटल और ओटीटी- पर आने वाले विज्ञापनों की शिकायतों की जांच में पाया है कि 2023-24 में 19 प्रतिशत से अधिक विज्ञापनों ने नियमों का उल्लंघन किया है. पिछले वित्त वर्ष में कुल 8,229 भ्रामक विज्ञापन चिह्नित हुए, जिनमें 1,569 स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े हैं. अवैध पायी गयीं लगभग 86 प्रतिशत दवाओं का प्रचार डिजिटल मंचों से हो रहा था. ऐसी दवाओं या उपचार के प्रचार पर कानूनी पाबंदी है, जिनमें जादुई गुण होने का दावा किया जाता है. ऐसा करना अपराध है. फिर भी बीते वित्त वर्ष में ऐसे 1,249 विज्ञापनों को रेखांकित किया गया है.
हाल के वर्षों में सरकार ने अनेक तरह से पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के प्रचार-प्रसार को प्रोत्साहित किया है. लोगों में भी इनकी स्वीकार्यता बढ़ी है. इस स्थिति का फायदा उठाते हुए बहुत से विज्ञापन दिये जा रहे हैं, जिनका इरादा लोगों को ठगना है. सेक्स क्षमता बढ़ाने के दावे करते हुए भी बहुत से विज्ञापन दिये जा रहे हैं. काउंसिल के रिपोर्ट ने रेखांकित किया है कि भ्रामक और झूठे विज्ञापन देना लोगों के भरोसे का बेजा फायदा उठाना है तथा ऐसी दवाओं या इलाज से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंच सकता है. हाल में एक प्रतिष्ठित कंपनी को बरगलाने वाले विज्ञापन देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने कड़ी फटकार लगायी थी.
अखबारों और टीवी चैनलों पर काफी हद तक ऐसे विज्ञापनों को रोका जा सकता है और रोका भी जाना चाहिए, लेकिन डिजिटल स्पेस में रोकथाम बहुत मुश्किल है. डिजिटल मंच सूचना, समाचार और संपर्क के सबसे बड़े माध्यम बनकर उभरे हैं. इसलिए वहां विज्ञापनों की बाढ़ आ गयी है. हालांकि नियम-कानून हैं, पर तकनीक की रफ्तार के हिसाब से गलत हरकतों पर काबू करना बहुत बड़ी चुनौती है.
एक मुश्किल यह भी है कि दोषियों को पकड़ना आसान नहीं होता और अगर वे पुलिस व कानून की गिरफ्त में आ भी जाते हैं, तो बचकर निकल जाते हैं या उन्हें कठोर सजा नहीं मिलती. इस पहलू पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि अपराधियों का हौसला तोड़ा जा सके. इंटरनेट पर रोग के बारे जानना और दवा खरीदने की घातक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे सूचना महामारी की संज्ञा दी है. हमें हमेशा चिकित्सकों की सलाह का अनुसरण करना चाहिए तथा विज्ञापनों पर आंख बंद कर भरोसा नहीं करना चाहिए.
भ्रामक विज्ञापन नैतिक सिद्धांतों का उल्लंघन कैसे करते हैं?
- सत्यता का उल्लंघन: ईमानदारी और सच्चाई आवश्यक नैतिक सिद्धांत हैं, जिन्हें विज्ञापन सहित सभी व्यावसायिक प्रथाओं का मार्गदर्शन करना चाहिये।
- ये विज्ञापन उपभोक्ताओं की धारणाओं में हेरफेर करते हैं और व्यावसायिक लाभ के लिये उनकी कमज़ोरियों का लाभ उठाते हैं; वे व्यक्तियों को गलत आधार पर खरीदारी संबंधी निर्णय लेने के लिये प्रेरित करते हैं।
- निष्पक्षता और न्याय: भ्रामक विज्ञापन एक असमान क्षेत्र बनाते हैं, जिससे उन कंपनियों को अनुचित लाभ मिलता है जो नैतिक विज्ञापन को प्राथमिकता देने वाली कंपनियों की तुलना में भ्रामक गतिविधियों में संलग्न होती हैं।
- यह बाज़ार में निष्पक्षता और न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, क्योंकि यह ईमानदार प्रतिस्पर्धियों को हानि पहुँचाता है तथा उपभोक्ता के विश्वास को कमज़ोर करता है।
- उदाहरण: कंपनियाँ टिकाऊ उत्पादों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये झूठे पर्यावरणीय दावे (ग्रीनवॉशिंग) कर रही हैं, जबकि उनके प्रतिस्पर्द्धी अपने उत्पादक के पर्यावरणीय प्रभाव का खुलासा करते हैं।
- उपभोक्ता हानि: भ्रामक विज्ञापनों से उन उपभोक्ताओं को वित्तीय हानि हो सकती है जो झूठे दावों के आधार पर उत्पाद या सेवाएँ खरीदते हैं, जिसके परिणामस्वरूप असंतोष उत्पन्न होता है।
- यदि विज्ञापित उत्पाद अथवा सेवाएँ संभावित रूप से हानिकारक या अप्रभावी हैं तो यह उपभोक्ताओं के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को भी हानि पहुँचा सकता है।
- विश्वास में कमी: भ्रामक विज्ञापनों के बार-बार संपर्क में आने से उत्पादों, बॉण्डों और विज्ञापनों में विश्वास कम हो जाता है, जिससे व्यापार के साथ-साथ समाज में अखंडता का नैतिक सिद्धांत भी कमज़ोर हो जाता है।
- जब उपभोक्ता ठगा हुआ महसूस करते हैं, तो उनका बाज़ार की अखंडता पर से विश्वास उठ जाता है, क्योंकि कथनी और करनी में अंतर स्पष्ट होने लगता है।
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