2024 के चुनाव में मंडल ने कमंडल को कैसे दे दी शिकस्त?

2024 के चुनाव में मंडल ने कमंडल को कैसे दे दी शिकस्त?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारतीय सामाजिक इतिहास में ‘वाटरशेड मोमेंट’ कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी के इस शब्द का मतलब है- वह क्षण जहां से कोई बड़ा परिवर्तन शुरू होता है। बोफोर्स घोटाले पर हंगामा और मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर सियासत। हाशिए पर पड़े देश के बहुसंख्यक तबके से इतर जातीय व्यवस्था में राजनीतिक चाशनी जब लपेटी गई तो हंगामा मच गया। समाज में लकीर खींची और जातीय राजनीति के धुरंधरों के पांव बारह हो गए।

2024 का लोकसभा चुनाव हाल के दिनों में सबसे दिलचस्प चुनाव साबित हुआ। विपक्षी भारतीय गुट ने एग्जिट पोल की भविष्यवाणियों को धता बताते हुए बीजेपी-एनडीए को कड़ी टक्कर दी। भले ही नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में तीसरी बार शपथ लेने वाले हैं। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने 293 सीटें जीतकर बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया, जबकि इंडिया ब्लॉक ने 234 सीटें हासिल कीं। प्रत्येक राज्य ने दूसरे की तुलना में अलग-अलग मतदान किया।

मतदाता को यह न बताएं कि आप वापस आ रहे हैं, 400 पार की तो बात ही छोड़ दीजिए! आम आदमी, यहां तक ​​कि अत्यंत अल्प साधनों के बावजूद, यह बर्दाश्त नहीं करेगा कि उसके साथ कोई भेदभाव किया जाए।

अगर आप किसी को भी मुफ्त में अनाज या कोई अन्य चीजें लगातार देते चले जाते हो। तो इसे वो लाभ नहीं बल्कि आगे चलकर अपना अधिकार समझने लगता है। इससे इतर गरीब ‘लाभारती’ का गुस्सा अब सिर्फ 5 किलो मुफ्त राशन से शांत नहीं होगा। उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में ‘राशन नहीं रोजगार’ की गूंज सुनई दी और लोगों ने विकल्प के रूप में अन्य दलों की ओर रुख किया।

इस हार के बाद भले ही कहा जा रहा हो कि मोदी मैजिक अब खत्म हो चुका है। लोगों के बीच में उनका करिश्मा अब काम नहीं करता है। उनके भाषणों में वो दम नहीं रहा है। लेकिन सच्चाई ये है कि मोदी फैक्टर कम हो गया है लेकिन ख़त्म होने से बहुत दूर है। पीएम मोदी का अभी भी कई मतदाताओं के बीच एक मजबूत आकर्षण हैं।

महिलाएं पुरुषों की तुलना में अलग तरह से वोट करती हैं। महिलाएं भी अलग अलग राज्यों में अलग तरह से वोट करती हैं। यह मान लेना कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर या अन्य महिला-केंद्रित रियायतें जैसी योजनाएं महिलाओं को सामूहिक रूप से आकर्षित करेंगी, पूरी तरह से सही नहीं है।  ऐसी योजनाएं ममता बनर्जी के लिए तो काम कर गई लेकिन इसके विपरीत अरविंद केजरीवाल या जगन मोहन रेड्डी के लिए काम नहीं किया। महिलाओं की वोटिंग प्राथमिकता बंगाल से लेकर एमपी, हरियाणा और यूपी के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत अलग थी।

यह 543 सीटों वाला चुनाव था, कोई ‘आम’ चुनाव नहीं। कोई एक कथा नहीं – अलग निर्वाचन क्षेत्र, अलग चुनाव। धर्म-केन्द्रित राजनीति के ध्रुवीकरण में युवाओं की हिस्सेदारी रही है। युवा मतदाताओं के बीच कई लोगों का ये मानना रहा कि हिंदू-मुस्लिम’ नहीं होना चाहिए।

हिंदी हार्टलैंड में नए जाति संयोजनों का उदय देखा गया। हरियाणा में दलितों और जाटों ने देवीलाल युग के बाद पहली बार एक साथ मतदान किया है। पूर्वी राजस्थान में जाट-मीना-गुर्जर गठबंधन आखिरी बार 2018 में देखा गया था। उत्तर प्रदेश में, यादवों के साथ दलितों ने पहली बार मतदान किया था।

उत्तर प्रदेश में नई दलित राजनीति का उदय – नगीना में दलित राजनीति की सीट से चंद्रशेखर आज़ाद की उम्मीदवारी पर बारीकी से नजर रखी जा रही थी। उनकी जीत के साथ-साथ बसपा को जीरो सीटें मिलना मायावती की साख पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगाता है। वैसे भी इस चुनाव में बसपा को भाजपा की बी टीम के रूप में भी देखा जा रहा था।

संविधान बदलने और बचाने के अपने अपने दावों के बीचइंडिया गठबंधन के नैरेटिव ने असर दिखाया। अगर यह उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के एक दलित गांव में ‘संविधान बचाना है’ थी, तो यह कोलकाता में एक आलीशान कॉफी शॉप में ‘संविधान बचाओ लोकतंत्र बचाओ’ थी।

कुल मिलाकर कहे तो मंडल की राजनीति इस बार कमंडल की राजनीति पर भारी पड़ रही। राम मंदिर की गूंज मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में हुई, लेकिन उत्तर प्रदेश में जाति की राजनीति मंदिर की राजनीति पर हावी हो गई। यहां तक ​​कि फैजाबाद/अयोध्या की लोकसभा सीट पर भी, जिसे समाजवादी पार्टी ने जीत दर्ज की। वहां के ग्रामीण इलाके में तो एक नारा ‘ना मथुरा, ना काशी, अयोध्या में अवधेश पासी’ लोगों की आवाज बनता नजर आया।

Leave a Reply

error: Content is protected !!