क्या आलाकमान दिल्ली में बैठ कर बंगाल में पार्टी को चलाता रहा?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

लोकसभा चुनाव में जिन राज्यों के परिणामों ने पूरे देश को चौंकाया है उनमें पश्चिम बंगाल भी शुमार है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सरकार के खिलाफ जिस स्तर की नाराजगी देखी जा रही थी। जिस तरह ममता सरकार के कई मंत्रियों और विधायकों पर घोटाले के आरोप लगे थे। जिस प्रकार संदेशखाली की महिलाओं पर हुआ अत्याचार देश भर में बड़ा मुद्दा बन गया था।

जिस प्रकार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी के इर्दगिर्द ईडी का शिकंजा कसा हुआ था। जिस प्रकार ममता बनर्जी को सनातन विरोधी बताया जा रहा था। जिस प्रकार तृणमूल कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने चुनावों से ऐन पहले पाला बदल लिया था। जिस प्रकार मीडिया की सुर्खियों में ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ समाचार रिपोर्टें छाई हुई थीं।

जिस प्रकार सभी एक्जिट पोलों ने तृणमूल कांग्रेस को भारी नुकसान की संभावना जताई थी, उस सबको देखते हुए कहा जा सकता है कि लोकसभा चुनाव परिणाम बेहद अप्रत्याशित हैं। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह 30 सीटों का लक्ष्य लेकर अपना चुनाव अभियान आगे बढ़ा रहे थे लेकिन उसका आधा भी हासिल नहीं कर पाये।

यह चुनाव परिणाम दर्शा रहे हैं कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों की तरह इस बार के लोकसभा चुनावों में भी भाजपा पूरी तरह हवा में ही रही। भाजपा ने मीडिया में हवा बना ली लेकिन जमीनी स्थिति का आकलन नहीं कर पाई। भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनावों में 18 सीटें और 2021 के विधानसभा चुनावों में 75 सीटें तो जीत लीं लेकिन पार्टी के नेता जमीन पर लोगों से जुड़ने की बजाय आपस में ही उलझे रहे।

दिलीप घोष जैसे वरिष्ठ नेता को लगता रहा कि सुकांत मजूमदार जैसे युवा नेता को पार्टी की कमान क्यों सौंप दी गयी है? कई नेताओं को यह लगता रहा कि तृणमूल कांग्रेस से आये शुभेंदु अधिकारी को विधानसभा में विपक्ष के नेता जैसा अहम पद तथा तमाम अन्य जिम्मेदारियां क्यों सौंप दी गयी हैं? देखा जाये बंगाल में भाजपा के पुराने और नये नेताओं के बीच सामंजस्य कभी बन ही नहीं पाया और इस दूरी को पार्टी का आलाकमान भी पाट नहीं पाया जिससे भाजपा को बड़ा नुकसान हो गया। इसके अलावा पार्टी का आलाकमान  दिल्ली में बैठ कर बंगाल में पार्टी को चलाता रहा जिसका सीधा असर भाजपा के प्रदर्शन पर दिख रहा है।

इसके अलावा, भाजपा ने लोकसभा चुनावों से पहले सीएए के नियम अधिसूचित कर दिये, यही नहीं बंगाल में मतदान से पहले सीएए के तहत लोगों को नागरिकता भी प्रदान कर दी लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। जिन क्षेत्रों में भाजपा को सीएए का फायदा मिलने की उम्मीद थी वहां भी तृणमूल कांग्रेस जीत गयी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की रैलियों में अपार भीड़ तो उमड़ी लेकिन वह वोटों में परिवर्तित नहीं हो पाई तो इसका एक बड़ा कारण भाजपा की सांगठनिक कमजोरी भी है।

भाजपा ने कहने को पार्टी महासचिव सुनील बंसल समेत तमाम वरिष्ठ नेताओं को बंगाल में लगा रखा था लेकिन परिणाम दर्शा रहे हैं कि यह सभी नेता जनता की नब्ज नहीं पकड़ पाये। पिछले साल पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनावों में भी भाजपा का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था लेकिन उसके बावजूद पुरानी टीम को बरकरार रखा गया था। इसके अलावा, ममता बनर्जी जिस तरह सीएए और एनआरसी को लेकर लोगों के बीच भय का वातावरण बनाती रहीं उसकी भी काट भाजपा नहीं कर पाई।

देखा जाये तो ममता बनर्जी की छवि फाइटर नेता की रही है और वह अपनी पार्टी को जिताने के लिए जी-जान लगा देती हैं। चुनाव प्रचार के दौरान खुद पर होने वाले राजनीतिक हमलों को वह अपने पक्ष में मोड़ लेने में माहिर हैं। इस बार के चुनावों में भी उन्होंने ऐसा कई बार किया। इसके अलावा, इंडिया गठबंधन के तमाम नेताओं ने विभिन्न राज्यों में सीटों का बंटवारा कर आपस में समन्वय बनाकर चुनाव लड़ा लेकिन ममता बनर्जी ने बंगाल में अकेले ही सारी चुनौती झेली।

उनके तमाम नेता भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में थे, भाजपा जैसी साधन संपन्न पार्टी से मुकाबला करना था, इसके बावजूद ममता ने किसी दल का सहयोग नहीं लिया और अपने बलबूते चुनाव प्रचार में उतर गयीं। चुनाव प्रचार की शुरुआत में ही उनको चोट भी लगी लेकिन इसकी परवाह किये बिना उन्होंने प्रचार में एड़ी चोटी का जोर लगा दिया और आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अजेय नेता की छवि उन्होंने तोड़ डाली।

मोदी की गारंटी के साथ शुरू हुए भाजपा के प्रचार को ममता के वादों ने धो डाला और बंगाल की जनता ने दिखा दिया कि वह अपनी दीदी के साथ खड़ी है। इसके अलावा, इन परिणामों ने ममता बनर्जी की क्षेत्रीय नेता की छवि को तो पुख्ता किया ही है साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में भी उनका महत्व काफी बढ़ा दिया है।

ममता बनर्जी ने जब लोकसभा चुनावों के दौरान एकला चलो का फैसला किया था तब उनको इंडिया गठबंधन के कई नेताओं ने मनाने का प्रयास किया था लेकिन वह नहीं मानी थीं क्योंकि संभवतः उन्हें अपने कामकाज और चुनावी रणनीति पर भरोसा था। आखिरकार ममता का फैसला तब सही साबित हुआ जब लोकसभा चुनाव के परिणाम सामने आये।

हम आपको बता दें कि इस बार तृणमूल कांग्रेस के खाते में 29 सीटें गयी हैं जबकि भाजपा के हाथ मात्र 12 सीटें लगी हैं और कांग्रेस को महज एक सीट से संतोष करना पड़ा है जबकि वामपंथी दल एक बार फिर खाली हाथ रह गये हैं। यह परिणाम इस बात के भी संकेत दे रहे हैं कि आगामी बंगाल विधानसभा चुनावों के दौरान भी तृणमूल कांग्रेस को चुनौती देना किसी भी दल के लिए आसान नहीं होगा। साथ ही इन परिणामों ने जनता के बीच यह संदेश भी दिया है कि तृणमूल कांग्रेस फिलहाल अजेय है।

दूसरी ओर, इस चुनाव परिणाम ने ममता बनर्जी के भतीजे और सांसद अभिषेक बनर्जी का भी कद बढ़ाया है। चुनाव प्रचार के दौरान अभिषेक बनर्जी ने भी सघन चुनाव प्रचार किया था और ममता के एजेंडे को वह बंगाल में जिस तरीके से आगे बढ़ा रहे हैं उससे वही टीएमसी प्रमुख के सही राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में नजर आ रहे हैं। चुनाव के दौरान अभिषेक बनर्जी और उनकी टीम जिस तरह भाजपा के आरोपों की काट तुरंत-तुरंत करती रही और जोरदार पलटवार करती रही उससे सोशल मीडिया पर खासकर तृणमूल कांग्रेस को बढ़त मिलती रही।

बहरहाल, इस चुनाव परिणाम का पूरा दोष मोदी-शाह या नड्डा पर नहीं डाला जा सकता। स्थानीय नेताओं को इस खराब प्रदर्शन की जिम्मेदारी लेनी होगी खासकर शुभेंदु अधिकारी को। अधिकारी के भाजपा में आने से पहले पार्टी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में रिकॉर्ड जीत हासिल की थी और उसके बाद पंचायत चुनावों में भी कमाल दिखाया था। यही नहीं विधानसभा चुनावों में भी भाजपा 3 से 75 सीटों पर पहुँच गयी थी।

लेकिन शुभेंदु अधिकारी के कमान संभालने के बाद से पार्टी संगठन में जो खिंचाव रहने लगा है उसका असर चुनाव नतीजों पर भी दिखने लगा है। पिछले साल हुए पंचायत चुनाव हों या अभी हुए लोकसभा चुनाव, दोनों में ही भाजपा का प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा है। भाजपा आलाकमान को भी सोचना होगा कि पार्टी को पुराने, प्रतिबद्ध और विश्वसनीय नेता आगे बढ़ा सकते हैं या पाला बदल कर आने वाले और केंद्र में किन्हीं नेताओं के प्रति वफादार रह कर काम करने वाले नेता पार्टी को ज्यादा आगे ले जा सकते हैं।

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