क्या चीन के कुटिल चालों का मुकाबला भारत G-7 देशों को साधकर कर सकता है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
दुनिया की सात सबसे बड़ी और विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों के समूह जी-7 के शिखर सम्मेलन में चीन के खिलाफ कड़े आर्थिक प्रतिबंधों के संकल्प प्रस्ताव को जो मंजूरी दी गई है, उसके वैश्विक मायने स्पष्ट हैं। इन संकल्पों के वैश्विक अर्थव्यवस्था पर दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे। हालांकि रूस, चीन और अरब देशों के ईरान-तुर्किये समर्थित एक धड़े की तिकड़ी के सामने वो कितने टिकेंगे, यह तेजी से बदलता हुआ वक्त बताएगा।
खासकर भारत और उसके पीछे लामबंद तीसरी दुनिया के देश यदि तटस्थ हो गए, तब क्या होगा, यह समझना भी जरूरी है। वैसे तो जी-7 शिखर सम्मेलन में इस प्रस्ताव पर भी सहमति जताई गई कि उन चीनी कम्पनियों के खिलाफ भी प्रतिबंध लगाए जाएंगे, जिन्होंने यूक्रेन के खिलाफ रूस की मदद की है। खास तौर पर चीन के उन वित्तीय संस्थानों के खिलाफ कार्रवाई करेंगे, जिन्होंने रूस को यूक्रेन के खिलाफ युद्ध के लिए हथियार हासिल करने में मदद की है। सम्भवतया भारत भी उनमें से एक हो सकता है, क्योंकि उसका रूसी प्रेम जगजाहिर है।
वहीं, शिखर सम्मेलन के दूसरे दिन जी-7 में शामिल मेजबान इटली के साथ अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, जापान और कनाडा ने चीन के खिलाफ जिन दो संकल्पों को मंजूरी दी, वो भी निकट भविष्य में अपना असर जरूर दिखाएंगे। क्योंकि इनमें उन संस्थाओं के खिलाफ भी प्रतिबंध लगाने का वादा किया गया है, जिन्होंने धोखाधड़ी से तेल की ढुलाई करके रूस को प्रतिबंधों से बचने में मदद की है। स्वाभाविक है कि भारत भी उनमें से एक हो सकता है, क्योंकि उसने रूस से बड़े पैमाने पर सस्ते कच्चे तेल की खरीददारी की और उसे यूरोपीय बाजारों तक पहुंचाकर भारी मुनाफा कमाया।
वहीं, जी-7 के नेताओं ने एक साझा वक्तव्य में कहा कि वे यूक्रेन के खिलाफ रूस की मदद करने वाली तीसरे देशों की संस्थाओं और व्यक्तियों को अपनी वित्तीय प्रणालियों तक पहुंच से प्रतिबंधित करेंगे। इसमें भी शक की सुई भारत और उसके समर्थक तीसरी दुनिया के देशों की ओर घूम सकती है। लेकिन भारत पर निशाना साधने से पश्चिमी देशों का खेल गड़बड़ा सकता है, इसलिए उन्होंने रणनीतिक रूप से चीन पर निशाना साधा है, जो रूस का सबसे बड़ा और भरोसेमंद वैश्विक रणनीतिक पार्टनर बन चुका है।
यही वजह है कि जी-7 देशों ने चीन के अनुचित व्यापारिक व्यवहार के खिलाफ भी कार्रवाई का संकल्प लिया है। खासतौर पर चीन के साथ व्यापार घाटे को कम करने पर जोर देने की बात कही है। इसके अलावा, चीन को निर्यात नियंत्रण के जरिए आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रभावित करने से परहेज करने की भी चेतावनी दी गई है, खास तौर पर चिप व इलेक्ट्रॉनिक्स के निर्माण में काम आने वाले अहम खनिजों पर एकतरफा निर्यात प्रतिबंधों को अनुचित करार दिया।
वहीं, जी-7 ने चीन की कुटिल चालों से अपने व्यवसायों की रक्षा करने और चीन के साथ व्यापार में संतुलन लाने के लिए कार्रवाई करने की बात की है। इसके अलावा, अपने मसौदा बयान में कहा है कि हम दक्षिण चीन सागर में चीन के सैन्य बल और समुद्री मिलिशिया के खतरनाक इस्तेमाल और देशों की गहरे समुद्रों में नौवहन की स्वतंत्रता में बार-बार बाधा डालने, बलपूर्वक एवं धमकाने वाली गतिविधियों का विरोध करना जारी रखेंगे। इसके अलावा, जी-7 देश तबतक यूक्रेन के पीछे खड़े रहेंगे जबतक जरूरत होगी। यूक्रेन के पुनर्निर्माण के लिए समूह पूरी मदद देता रहेगा।
अब गौर करने वाली बात यह है कि जी-7 देश जहां रूस समर्थक चीन को ललकार रहे हैं, वहीं रूस के भरोसेमंद मित्र भारत को पुचकार रहे हैं। तभी तो दुनिया के सबसे शक्तिशाली सात देशों के संगठन जी-7 का सदस्य न होने के बावजूद इसकी शिखर बैठकों में पिछले कई सालों से भारत को महत्व दिया जा रहा है, जो अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भारत की बढ़ती धमक को ही दर्शाता है।
गोया, इस बार भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल की पहली विदेश यात्रा के तौर पर जी-7 देशों के सम्मेलन में शिरकत करने के लिए इटली पहुंचे हैं, जिसके अपने खास मायने हैं, जो स्पष्ट हैं। खासकर ऐसे वक्त में जब यूक्रेन युद्ध अपने तीसरे वर्ष में पहुंच गया है, इजरायल-हमास युद्ध भी खत्म होता नहीं दिख रहा है और यूरोपीय देशों के चुनावों में राजनीति का चेहरा बदलता दिख रहा है, दुनिया की सर्वाधिक उन्नत अर्थव्यवस्थाएं मिलकर आगे की रणनीतियों पर विचार कर रही हैं, तब अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और एशिया-प्रशांत के बारह विकासशील देशों को भी इस चर्चा में शामिल करने का अर्थ स्पष्ट है कि उनका कोई भी सार्थक मकसद इनके सहयोग के बिना पूरा नहीं हो सकता है।
ऐसा इसलिए कि भारत, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील जैसे देश जी-7 के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये तीनों ही देश जी-7 के प्रबल प्रतिद्वंद्वी रूस और चीन के साथ ब्रिक्स समूह का भी हिस्सा हैं। वहीं, संयुक्त राष्ट्र जिस तेजी से अपनी प्रासंगिकता खो रहा है, और चतुरसुजान देशों द्वारा उसे खोने दिया जा रहा है, उसे देखते हुए वैश्विक व्यवस्था में जी-7 जैसे क्षेत्रीय संगठनों का महत्व बढ़ा है।
हालांकि, यह भी एक तल्ख सच्चाई है कि जी-7 भी अब उतना मजबूत नहीं दिखता है, जितना पहले दिखता था। क्योंकि 1980 के दशक में जी-7 देशों का जीडीपी वैश्विक जीडीपी का करीब 60 फीसदी था, जो अब घटकर 40 फीसदी रह गया है। वहीं, पिछले एक दशक में भारत को देखने का दुनिया का नजरिया बदला है, तो जिसकी साफ वजहें भी हैं। ऐसे समय में जब ज्यादा देशों की अर्थव्यवस्थाएं स्थिर बनी हुई हैं, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक जैसी प्रतिष्ठित संस्थाएं भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक मान रही हैं।
इसके अतिरिक्त, भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) ब्रिटेन के बराबर है, तो फ्रांस, इटली और कनाडा जैसे देशों से कहीं ज्यादा है। लेकिन भारत को मिलने वाले महत्व की एक बड़ी वजह यह भी है कि भारत जहां दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, तो जी-7 भी लोकतांत्रिक देशों का समूह है। लिहाजा, यह भारत की कूटनीतिक कामयाबी ही है कि आज अमेरिका, रूस और यूक्रेन, तीनों भारत से नजदीकी सम्बंध चाहते हैं।
वैश्विक आयोजनों में भारत की बढ़ती भागीदारी, वैश्विक चुनौतियों को हल करने में भारत के महती प्रयासों की बढ़ती मान्यता को ही दर्शाती है। इसलिए भारत को अपनी गुटनिरपेक्ष नीतियों पर चलते हुए वैश्विक संघर्ष को संतुलित करने की दिशा में अपना अहम योगदान देना चाहिए। चीनी कुटिल चालों का यही सुलझा हुआ जवाब भी होगा।
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