क्या मनमाने तरीके से देश में आपातकाल लगा दिया गया था?

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आपातकाल दिवस पर विशेष

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

इतिहास में 25 जून का दिन भारत के लिहाज से एक महत्वपूर्ण घटना का गवाह रहा है क्योंकि 1975 में इस दिन तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने मनमाने तरीके से देश में आपातकाल थोप दिया था। हम आपको बता दें कि 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक की 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल रहा था। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार की सिफारिश पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अधीन देश में आपातकाल की घोषणा की थी। देखा जाये तो स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद काल था। यह भी दुर्भाग्यपूर्ण था कि आजादी के महज 28 साल बाद ही देश को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कारण आपातकाल के दंश से गुजरना पड़ा था।

अदालत का फैसला सामने आते ही पूरी कांग्रेस और सरकार इंदिरा गांधी के नेतृत्व में एकजुट हो गयी और पार्टी नेताओं ने इंदिरा गांधी को इस्तीफा देने से मना किया। कांग्रेस कार्यकर्ता इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के खिलाफ नारे लगाते हुए प्रदर्शन करने लगे और इस पूरे प्रकरण को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की साजिश बताने लगे। इंदिरा गांधी के पक्ष में नारेबाजी होने लगी। नेताओं में एक से बढ़कर एक चापलूसी वाले बयान देने की होड़ लग गयी।

इसी दौरान तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’ का नारा दे दिया जिससे चापलूसी की सारी हदें पार हो गयीं। पूर्व प्रधानमंत्री और तत्कालीन कांग्रेस नेता चंद्रशेखर ने हालांकि इस दौरान इंदिरा गांधी को जयप्रकाश नारायण से नहीं उलझने की सीख देकर उन दोनों नेताओं के बीच वार्ता कराने का प्रस्ताव दिया था लेकिन कांग्रेस में उनकी किसी ने नहीं सुनी। इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को नहीं स्वीकार किया और न्यायपालिका का उपहास कर फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे डाली।

इस बीच, इंदिरा गांधी का हठ देखकर समूचा विपक्ष एकजुट हो गया और न्यायालय द्वारा अयोग्य घोषित इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग तेज हो गयी। पूरा विपक्ष राष्ट्रपति भवन के सामने धरना देकर विरोध दर्ज करा रहा था। इसके अलावा देश भर के शहर, जलसे, जुलूस और विरोध प्रदर्शन के गवाह बन रहे थे। 22 जून 1975 को दिल्ली में आयोजित रैली को जयप्रकाश नारायण समेत कई अन्य बड़े नेता संबोधित करने वाले थे।

यह खबर सामने आते ही कांग्रेस इतनी डर गयी थी कि उसने कोलकाता-दिल्ली के बीच की वह उड़ान ही निरस्त करा दी जिससे जयप्रकाश नारायण दिल्ली आने वाले थे। इसी बीच, 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा गांधी की उस याचिका पर फैसला सुना दिया जिसके तहत उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को बरकरार रखा, हालांकि इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहने की इजाजत दे दी। इस फैसले से विपक्ष में जहां नया जोश आ गया वहीं इंदिरा गांधी बौखला गयीं।

विपक्ष की जो जनसभा दिल्ली के रामलीला मैदान में 22 जून को होने वाली थी वह आखिरकार 25 जून को हुई। खचाखच भरे रामलीला मैदान में ‘महंगाई और भ्रष्टाचार, सत्ता सब की जिम्मेदार’, ‘हिंदू-मुस्लिम सिख-ईसाई, सबके घर में है महंगाई’, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’, जैसे तमाम नारे गूंजते रहे। जनसभा को तमाम विपक्षी नेताओं ने संबोधित किया और जब जयप्रकाश नारायण मंच पर आये तब उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग कर डाली और इंदिरा गांधी सरकार के अस्तित्व को मानने से इंकार कर दिया।

जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के इस्तीफा देने तक देश भर में रोज प्रदर्शन करने का आह्वान किया। इस आह्वान के तुरंत बाद जनता जब सड़कों पर उतरने लगी तो इंदिरा गांधी सरकार की हालत बिगड़ने लगी। इसलिए रामलीला मैदान में विपक्ष की जनसभा के कुछ घंटों बाद ही तत्कालीन सरकार ने भारत में लोकतंत्र का गला घोंट दिया।

अपने खिलाफ विपक्ष की एकजुटता और विरोध प्रदर्शन बढ़ते देख इंदिरा गांधी ने 25-26 जून की रात को आपातकाल लगाने का फैसला किया और रात्रि को ही राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ भारत में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश सुना कि भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है।

लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है। लोगों को  आपातकाल का मतलब तब समझ आया जब उन्हें पता चला कि उनके सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया है। इसके साथ ही सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। इससे जनता नाराज हुई और सड़कों पर उतरने लगी लेकिन सड़क पर उतरने वाले हर शख्स को जेलों में ठूंस दिया गया था।

आपातकाल के दौरान ही देश में परिवारवाद भी जोर पकड़ने लगा था। उस समय इंदिरा गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में संजय गांधी सत्ता के असंवैधानिक केंद्र बन चुके थे और अपने दोस्त बंसी लाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए देश को चला रहे थे। संजय गांधी ने विद्याचरण शुक्ला को सूचना प्रसारण मंत्री बनवा दिया था जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी थी। जिसने भी उनका आदेश मानने से इंकार किया था उसे जेलों में डाल दिया गया था। यही नहीं, आपातकाल के दौर में भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद पर बनी फिल्मों, किशोर कुमार के गानों, महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर के उद्धरणों तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

बहरहाल, देखा जाये तो आपातकाल के ‘‘काले दिनों’’ को कभी नहीं भूला जा सकता जब संस्थानों को सुनियोजित तरीके से ध्वस्त कर दिया गया था। आपातकाल की बरसी हमें निरंकुश ताकतों के खिलाफ विद्रोह तथा तानाशाही, भ्रष्टाचार और वंशवाद के विरुद्ध संग्राम का सबक और साहस भी देती है। लोकतंत्र की मूल अवधारणाओं को तभी मजबूत किया जा सकता है जब हम तानाशाहों के खिलाफ आवाज उठाते रहेंगे। हमें उस राजनीतिक दल और उस राजनीतिक परिवार से भी सावधान रहना होगा जो लोकतंत्र और संविधान के बारे में बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं लेकिन उनका इतिहास सत्ता के सुख के लिए और एक परिवार की खातिर देश को जेल में तब्दील कर देने का है।

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