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कोई पुल ऐसे ही नहीं गिर जाता है!

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समाज का नैतिक पतन बढ़ावा दे रहा भ्रष्टाचार को

प्रतिबद्धता व कटिबद्धता से युक्त समाज का निर्माण करना जिम्मेदारी है हमारी

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क


आम भारतीय होने के नाते मैं जानता हूँ कि कोई पुल एक झटके में नहीं गिरता, क्योंकि ऊट का पीठ एक तिनके के बोझ से नहीं टूटा है। भारत में पुल गिरने की प्रक्रिया पूरी तरह स्वचालित है।

गिरने की प्रक्रिया बहुत पहले से चलती आ रही है। सबसे पहले नेता गिरते हैं, फिर पदाधिकारी गिरते हैं, उसके बाद इंजीनियर गिरता है। इन तीनों के गिरने से फिसलन हो जाती है। इससे ठेकेदार भी गिर जाते है। बात यहीं नहीं रुकती, इस फिसलन को देख कर आम जनता भी खुद को रोक नहीं पाती, देखा-देखी वह भी गिरने लगती है। हाँ तो जब इतने लोग गिर जाते हैं तो पुल को भी अपने खड़े होने पर शर्म आने लगती है। वह अपने निर्माताओं का साथ देने के लिए वह भी गिर जाता है।

सच कहूँ तो हमारे देश में गिरना कभी लज्जा का विषय नहीं रहा। व्यक्ति जितना गिरता है, उसकी प्रतिष्ठा उतनी ही बढ़ती जाती है। हमारा समाज ऐसा है जहां गिरना आपकी प्रसिद्धि का प्रतीक है।

आप फेसबुक,इंस्टा व सोशल मीडिया पर ही देख लीजिये, जो जितना ही गिरता/गिरती है, उसका रील उतना ही वायरल होता है। सिनेमा की कोई अभिनेत्री जितना गिरती है, उतना ही आगे बढ़ती जाती है। यहाँ तक कि एक लेखक भी जब तक गिरता नहीं… छोड़िये!

हमारे देश में प्रत्येक व्यक्ति अब गिरना चाहता है। वह केवल मौके के तलाश में रहना चाहता है। कब मौका मिले कि वह गिरे… पुल अकेले नहीं हैं, गिरने की यात्रा में सारा समाज उसके साथ चल रहा है।

एक बात और कहूँ? यह तो नदियों के दोनों तटों को जोड़ने वाले पुल हैं दोस्तो! हमारे यहाँ तो आदमी को आदमी से जोड़ने वाले पुल कब के ढह गए हैं।
हम जब उस पर दुखी नहीं हुए तो इस पर क्या होंगे, हमारी जो आदत पड़ गई है!

दरअसल व्यक्ति लक्ष्य से भटक गया है। नैतिकता व मानवीय मूल्य से व्यक्ति ने समझौता कर लिया है। किसी भी प्रकार से धन प्राप्त करने के लालसा ने व्यक्ति को अनैतिक कार्य करने के लिए प्रेरित किया है। समाज में जो परिवर्तन आ रहा है उससे आम व्यक्ति के आचरण-व्यवहार में भी बदलाव का बहुत बड़ा कारण है। किसी भी तरह धन प्राप्त करके महल, अटारी गाड़ी और पहुंच बना लेना इस समाज की प्रवृत्ति हो गई है।

ऐसे में जो सार्वजनिक कार्य हुए हैं वह एकदम से फिसड्डी साबित हो रहे हैं। यही कारण है की बरसात के समय सड़कों में गड्ढे, गड्ढों में सड़क, पुलों का गिरना, सरकारी भवनों में दरारें आ जाना कुछ वर्षों में भवन का जर्जर हो जाना, आम बात हो गई है। परंतु पैसा मिल गया, पावर आ गया इस अवधारणा से समाज का विकास नहीं होता। एक बार आप यह अवश्य सोचे कि हम अपने समाज को कैसे-कैसे नागरिक प्रदान कर रहे हैं। समाज का एक बड़ा वर्ग इस प्रवृति से दूर रहना चाहता है।

बहरहाल लक्ष्य से विमुख व्यक्ति प्रतिबद्धता और कटिबद्धता से अवश्य दूर हो गया है। सत्य बात है कि केवल कड़े कानून से ही कुछ नहीं होगा। जब तक समाज इस पर नैतिक रूप से प्रतिबंध नहीं लगायेगा, तब तक कुछ नहीं हो सकता!

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