1945 का एक ऐतिहासिक पर्चा!

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1942 के आंदोलन के दौरान फिरंगी हुकूमत के जुल्म को सहने के बाद भी सीवान की जनता का राष्ट्रीय उत्साह चरम पर था, गवाही दे रहा यह 1945 का ऐतिहासिक पर्चा

राजेंद्र बाबू के तीन साल जेल में रहने के बाद अपने गांव आने पर 1945 में छपा यह ऐतिहासिक पर्चा

✍️डॉक्टर गणेश दत्त पाठक, श्रीनारद मीडिया, सेंट्रल डेस्‍क:

इस ऐतिहासिक पर्चा को ध्यान से देखिए। यह पर्चा 1945 का है। महसूस कीजिए उस दौर को। जब देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद 1942 के करो या मरो आंदोलन में गिरफ्तार होने के तकरीबन 3 साल जेल में रहने के बाद पहली बार अपने गांव जीरादेई आ रहे थे। 1942 के आंदोलन के दौरान फिरंगी हुकूमत के जुल्म को सहने के बाद भी सीवान की जनता का राष्ट्रीय उत्साह चरम पर था। इसकी गवाही दे रहा 1945 का यह ऐतिहासिक पर्चा। उस समय जीरादेई में राजेंद्र स्वागत कार्यकारिणी समिति गठित की गई थी। जिसके मंत्री मेरे दादा जी स्वर्गीय रामजी पाठक जी थे।

बचपन में मेरे दादाजी राजेंद्र बाबू से जुड़ी सब बातों को बताया करते थे लेकिन बचपन में उन बातों को हम समझ कहां पाते थे? शुक्रवार को जब यह ऐतिहासिक पर्चा मिला तो उनकी कुछ बातें याद आ गई। दादा जी बताते थे कि 1942 में जब महात्मा गांधी ने करो या मरो आंदोलन शुरु किया तो आंदोलन के शुरुआत में ही फिरंगियों ने हमारे सभी बड़े राष्ट्रीय नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। आंदोलन की बागडोर हमारे युवाओं ने संभाली।

पटना सचिवालय पर नरेंद्र पुर के उमाकांत सिंह सहित अन्य युवाओं के शहीद होने और उसके बाद सीवान के सराय चौक पर छठु गिरी, बच्चन प्रसाद और झगडू साह, महाराजगंज के फुलेना प्रसाद श्रीवास्तव के शहीद होने के बाद सीवान में भी जबरदस्त राष्ट्रीय चेतना जागृत हो चुकी थी।

भारत छोड़ों आंदोलन के शुरुआत में ही राजेंद्र बाबू को खराब स्वास्थ्य के बावजूद पटना के तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट मिस्टर आर्चर ने गिरफ्तार कर लिया और बांकी जेल भेज दिया था। फिर जेल से राजेंद्र बाबू की रिहाई तकरीबन तीन साल बाद हुई।

देश के अन्य भागों का दौरा करने के पूर्व राजेंद्र बाबू 06 अक्टूबर 1945 को जीरादेई आनेवाले थे। उनके आने की खबर सुनकर जीरादेई, मैरवा सहित पूरे सीवान में राजनीतिक उल्लास का माहौल जागृत हो गया था। दादा जी बताते थे कि उस दिन बाबू का स्वागत करने के लिए तत्कालीन भंटा पोखर स्टेशन पर अपार जनसैलाब उमड़ पड़ा था।

हालांकि 1942 के आंदोलन के दौरान फिरंगी हुकूमत ने सीवान में भी जबरदस्त कहर ढाया था। लेकिन बाबू के आने के दिन हजारों लोग झंडा, हाथी, घोड़ा, बाजा लेकर स्वागत के लिए उमड़ पड़े। दादा जी बताते थे कि बाबू के आने के बाद जीरादेई के मिडिल स्कूल पर एक बड़ी जनसभा हुई। जिसमें बाबू ने भाषण दिया और उसके बाद गरीबों को भोजन कराया गया।

देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने भी अपनी आत्मकथा में भी लिखा है कि जेल से रिहाई के बाद अपने गांव जीरादेई जाते समय गंगा तट के पहलेजाघाट स्टेशन पर स्टीमर से उतरकर मैं रेल पर जा रहा था तो हर स्टेशन पर लोगों की भारी भीड़ उत्साह से नारे लगा रही थी। मैं उस समय राजनीतिक पीड़ित कोष के लिए चंदा भी एकत्रित कर रहा था। रास्ते में हर स्टेशन पर लोगों ने इस कोष के लिए सहयोग दिया। गांव के लोगों ने भी सहयोग किया।

राजेंद्र बाबू अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि अपने गांव जीरादेई में मैं गया था आराम करने के लिए लेकिन बहुत आराम न कर सका। बहुत लोग आते और पिछले कुछ समय से जो उनपर फिरंगी हुकूमत ने जुल्म ढाए थे। उसे सुनाते थे। मैंने जीरादेई प्रवास के दौरान उन घरों को देखा जिसे अंग्रेजी अफसरों ने जला दिया था। ऐसे परिवारों से भेंट की जो फिरंगी गोलियों के शिकार हुए थे।

मेरे दादा जी स्वर्गीय रामजी पाठक बताते थे कि बाबू जो भगवान कृष्ण के परम् भक्त थे। जीरादेई रहने के दौरान ही जबलपुर के श्री द्वारिका प्रसाद मिश्र द्वारा लिखित पुस्तक “कृष्णायन” को उन्हीं के मुख से सुना और अपार आध्यात्मिक आनंद से सराबोर हुए। फिर देश के विभिन्न भागों के दौरे पर निकल गए। राजेंद्र बाबू ने अपनी आत्मकथा में भी इस प्रसंग का जिक्र किया है।

यह ऐतिहासिक पर्चा, जो 1945 में साहित्य प्रेस, छपरा में छपा था। उस दौर के राजनीतिक चेतना का सशक्त पहचान कराता दिखता है। जब 1942 के फिरंगी दमन ने सीवान के स्थानीय जनता के उत्साह को और बढ़ा दिया था और फिरंगी दासता से छुटकारा ही बस एकमात्र चाहत रह गई थी।

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