भूमि सुधारों की प्रभावशीलता का समालोचनात्मक मूल्यांकन

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

केंद्र सरकार ने राज्यों में भूमि संबंधी सुधारों को बढ़ावा देने के लिये पूंजी निवेश के लिये राज्यों को विशेष सहायता योजना (सत्र 2024-25) के तहत वित्तीय प्रोत्साहन निर्धारित किये।

  • ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में भूमि संबंधी सुधारों को लागू करने के लिये राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा 10,000 करोड़ रुपए और वित्तीय वर्ष 2024-25 (FY25) के दौरान किसानों की रजिस्ट्री बनाने के लिये 5,000 करोड़ रुपए का प्रोत्साहन दिया जाएगा।

योजना के तहत भूमि सुधारों के लिये हाल ही में क्या घोषणाएँ की गई हैं?

  • ग्रामीण क्षेत्रों में भू-खंड (Land Parcel) को विशिष्ट भू-खंड पहचान संख्या (ULPIN), जिसे भू-आधार भी कहा जाता है, सौंपी जाएगी।
    • ULPIN यह एक ऐसी संख्या है जो भूमि के उस प्रत्येक खंड की पहचान करेगी जिसका सर्वेक्षण हो चुका है, विशेष रूप से ग्रामीण भारत में, जहाँ सामान्यतः भूमि-अभिलेख काफी पुराने एवं विवादित होते हैं। इससे भूमि संबंधी धोखाधड़ी पर रोक लगेगी।
  • कैडस्ट्रल मानचित्रों का डिजिटलीकरण किया जाएगा और वर्तमान स्वामित्व को दर्शाने के लिये भूमि उपखंडों का सर्वेक्षण किया जाएगा। इसके अतिरिक्त एक व्यापक भूमि रजिस्ट्री स्थापित की जाएगी।
  • शहरी क्षेत्रों में राज्यों को भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) मैपिंग का उपयोग करके भूमि रिकॉर्ड को डिजिटल बनाने के लिये वित्तीय प्रोत्साहन मिलेगा।
    • उन्हें संपत्ति रिकॉर्ड प्रशासन, अद्यतनीकरण और कर प्रबंधन के लिये IT-आधारित प्रणालियाँ विकसित करने की भी आवश्यकता है।

योजना के तहत विभिन्न अन्य पहलों के लिये वित्तीय सहायता

  • कामकाज़ी महिलाओं के छात्रावासों के लिये सहायता: सरकार ने महिला कार्यबल भागीदारी को बढ़ावा देने के लिये छात्रावासों के निर्माण हेतु 5,000 करोड़ रुपए आवंटित किये हैं, जिसमें राज्य सरकारें बिना किसी लागत के भूमि उपलब्ध कराएंगी या अधिग्रहण लागत को कवर करेंगी और छात्रावासों का प्रबंधन सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) मॉडल के तहत किया जाएगा किंतु राज्य का स्वामित्व बरकरार रहेगा।
  • पुराने वाहनों की स्क्रैपिंग: पुराने वाहनों की स्क्रैपिंग के लिये 3,000 करोड़ रुपए प्रोत्साहन के रूप में दिये जाएंगे।
  • औद्योगिक विकास: औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिये 15,000 करोड़ रुपए निर्धारित किये गए हैं।
  • अवसंरचना विकास: अवसंरचना विकास के लिये 1,000 करोड़ रुपए आवंटित किये जाएंगे, जिसका हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के बीच बराबर वितरण किया जाएगा।
  • केंद्र प्रायोजित योजनाएँ: शहरी और ग्रामीण अवसंरचना परियोजनाओं सहित केंद्र प्रायोजित योजनाओं में राज्यों के हिस्से के लिये 15,000 करोड़ रुपए का समर्थन किया जाएगा।
  • SNA स्पर्श मॉडल: जस्ट-इन-टाइम फंड रिलीज़ मॉडल के कार्यान्वयन के लिये 4,000 करोड़ रुपए आवंटित किए जाएंगे।
  • पूंजीगत व्यय लक्ष्य: वित्त वर्ष 2024-25 हेतु पूंजीगत व्यय लक्ष्यों को पूरा करने के लिये प्रोत्साहन के रूप में 25,000 करोड़ रुपए प्रदान किये जाएंगे।

भूमि सुधारों के लिये प्रमुख पहल क्या हैं?

  • स्वतंत्रता पूर्व: ब्रिटिश शासन के तहत किसानों के पास भूमि स्वामित्व की कमी थी। भूमि का स्वामित्व ज़मींदारों, जागीरदारों और अन्य बिचौलियों के पास था।
    • भारत में भूमि सुधारों की प्रभावशीलता में कुछ प्रमुख चुनौतियों ने बाधा उत्पन्न की, जिनमें कुछ ही हाथों में भूमि का संकेंद्रण, शोषणकारी पट्टा व्यवस्था, अनुचित तरीके से बनाए गए भूमि अभिलेख और खंडित भूमि जोत शामिल हैं।
  • स्वतंत्रता उपरांत सुधार: उपर्युक्त मुद्दों से निपटने के लिये सरकार ने वर्ष 1949 में जे. सी. कुमारप्पा की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की, जिसने बिचौलियों के उन्मूलन, काश्तकारी सुधार, भूमि जोत की सीमा, भूमि जोत के समेकन जैसे व्यापक कृषि सुधारों की सिफारिश की।
    • बिचौलियों का उन्मूलन: ज़मींदारी प्रथा को हटाने से किसानों और राज्य के बीच बिचौलियों का उन्मूलन संभव हुआ।
    • काश्तकारी सुधार: इसका उद्देश्य किराए को नियंत्रित करना, काश्तकारी की सुरक्षा सुनिश्चित करना और काश्तकारों को स्वामित्व प्रदान करना था।
    • भूमि स्वामित्व की अधिकतम सीमा: भूमि स्वामित्व की अधिकतम सीमा तय करने के लिये भूमि सीमा अधिनियम पारित किया गया ताकि कुछ लोगों के बीच भूमि का संकेंद्रण रोका जा सके।
      • कुमारप्पा समिति की सिफारिश के आधार पर अधिकतम सीमा को एक परिवार की आजीविका के लिये आवश्यक आर्थिक जोत के आकार से तीन गुना निर्धारित किया गया था।
      • वर्ष 1961-62 तक राज्यों ने अलग-अलग अधिकतम सीमाएँ लागू की थीं, जिन्हें वर्ष 1971 में मानकीकृत किया गया। राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों ने भूमि के प्रकार और उत्पादकता के आधार पर 10-54 एकड़ के बीच सीमाएँ निर्धारित कीं।
    • भूमि स्वामित्व का समेकन: भूमि समेकन का उद्देश्य छोटे, बिखरे हुए भूखंडों को बड़ी प्रबंधनीय इकाइयों में पुनर्गठित करके विखंडन को कम करना था।
      • तमिलनाडु, केरल, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों को छोड़कर अधिकांश राज्यों ने पंजाब और हरियाणा में अनिवार्य समेकन तथा अन्य राज्यों में स्वैच्छिक समेकन के साथ समेकन कानून बनाए।
  • हालिया पहल:
    • डिजिटल इंडिया भूमि रिकॉर्ड आधुनिकीकरण कार्यक्रम (DILRMP): DILRMP, जिसे पूर्व में राष्ट्रीय भूमि रिकॉर्ड आधुनिकीकरण कार्यक्रम (NLRMP) के रूप में जाना जाता था, को भारत सरकार द्वारा वर्ष 2008 में भूमि रिकॉर्ड को डिजिटल व आधुनिक बनाने तथा एक केंद्रीकृत भूमि रिकॉर्ड प्रबंधन प्रणाली विकसित करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था।
      • DILRMP एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है, जिसका उद्देश्य विभिन्न राज्यों में भूमि अभिलेखों के बीच समानताओं का निर्माण करके पूरे देश के लिये एक उपयुक्त एकीकृत भूमि सूचना प्रबंधन प्रणाली (ILIMS) विकसित करना है, जिस पर प्रत्येक राज्य प्रासंगिकता और अपनी इच्छानुसार राज्य-विशिष्ट आवश्यकताओं को जोड़ सकने में सक्षम हो सके।
    • SVAMITVA: (गाँवों का सर्वेक्षण और ग्रामीण क्षेत्रों में तात्कालिक प्रौद्योगिकी के साथ मानचित्रण (SVAMITVA) योजना पंचायती राज मंत्रालय, राज्य पंचायती राज विभागों, राज्य राजस्व विभागों और भारतीय सर्वेक्षण विभाग का एक संयुक्त प्रयास है।
      • यह ड्रोन तकनीक और निरंतर संचालन संदर्भ स्टेशन (CORS) का उपयोग करके ग्रामीण बसे हुए क्षेत्रों में भू-खंड (Land Parcel) का मानचित्रण करने की एक योजना है।

भूमि सुधार से संबंधित चुनौतियाँ तथा इन्हें दूर करने हेतु उपाय क्या हैं?

  • चुनौतियाँ:
    • स्थापित प्रभुत्वशाली स्वरुप: बड़े भूस्वामी परिवर्तनों का विरोध करते हैं, जिससे भूमि हदबंदी अधिनियमों और पुनर्वितरण नीतियों के प्रवर्तन में बाधा उत्पन्न होती है।
    • जटिल भूमि अभिलेख: अभिलेखों/रिकॉर्ड को बनाए रखने की पुरातन प्रणालियाँ विवादों को जन्म देती हैं तथा पुनर्वितरण के लिये भूमि की पहचान को जटिल बनाती हैं।
    • भूमि का विखंडन: उत्तराधिकारियों के बीच भूमि का विभाजन आर्थिक रूप से अव्यावहारिक छोटी भूमि जोत में परिणत होता है
      • कृषि जनगणना के अनुसार परिचालित जोत का औसत आकार वर्ष 1970-71 के 2.28 हेक्टेयर से घटकर वर्ष 1980-81 में 1.84 हेक्टेयर, वर्ष 1995-96 में 1.41 हेक्टेयर तथा वर्ष 2015-16 में 1.08 हेक्टेयर हो गया है।
    • विधिक एवं कार्यान्वयन संबंधी मुद्दे: मौजूदा कानूनों का अपर्याप्त प्रवर्तन तथा परिवार के आधार पर स्पष्ट अधिकतम सीमा का अभाव जैसी खामियाँ भूमि सुधार के प्रयासों को कमज़ोर करती हैं।
    • शहरीकरण का दबाव: तीव्र विकास के परिणामस्वरूप प्रायः कृषि भूमि का विवादास्पद तरीके से अधिग्रहण किया जाता है और किसानों को विस्थापित होना पड़ता है।
    • उत्पादकता बनाम समानता: भूमि के पुनर्वितरण और नए मालिकों द्वारा प्रभावी तरीके से खेती करने की आवश्यकता के बीच संतुलन बनाना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है।
  • आगे की राह:
    • प्रौद्योगिकी एकीकरण: भूमि अभिलेखों को डिजिटल और सुरक्षित बनाने के लिये सैटेलाइट इमेजिंगAI और ब्लॉकचेन जैसी उन्नत तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है। इससे भूमि प्रबंधन व मानचित्रण में सुधार होगा तथा विवादों में कमी के साथ पारदर्शिता सुनिश्चित होगी।
    • विधिक ढाँचे में वृद्धि: भूमि सुधार कानूनों को और अधिक कठोर बनाने तथा उन्हें सख्ती से लागू करने, संबंधित कानूनों में व्याप्त खामियों को दूर करने एवं उनके क्रियान्वयन में सुधार किये जाने की आवश्यकता है।
      • इस संदर्भ में पश्चिम बंगाल और केरल की भूमि सुधार प्रथाओं का अनुकरण किया जा सकता है, जहाँ सशक्त राजनीतिक इच्छाशक्ति के परिणामस्वरूप भूमि सुधार काफी हद तक सफल रहे हैं।
    • भूमि चकबंदी पहल: कृषि दक्षता में सुधार हेतु स्वैच्छिक पूलिंग व सहकारी खेती मॉडल के माध्यम से भूमि चकबंदी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
    • न्यायसंगत भूमि अधिग्रहण: प्रभावित किसानों के लिये पर्याप्त मुआवज़े तथा पुनर्वास उपायों के साथ पारदर्शी, निष्पक्ष भूमि अधिग्रहण नीतियों को लागू किया जाना चाहिये।
    • नए भूस्वामियों का सशक्तीकरण: नए भूस्वामियों को कृषि प्रशिक्षण, ऋण तक पहुँच एवं बाज़ार संपर्क सहित व्यापक सहायता प्रदान की जानी चाहिये
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