पीपल पेड़ की अपनी व्यथा।

पीपल पेड़ की अपनी व्यथा।

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

विकास यात्रा में मैं हुआ विस्थापित।

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

मैं पीपल का पेड़ हूँ। मेरी आयु के बारे में विद्वानों में मतभेद है, परंतु अगर मेरा रख-रखाव ठीक से हो तो मैं दो हजार वर्ष तक जीवित रह सकता हूँ। इसलिए सनातनियों में मैं पूज्य हूँ। ज्ञात हो कि बौद्ध धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्ध को बोधगया में मेरे ही पेड़ के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। कहते हैं कि उस पीपल के पेड़ को बंगाल के गौड़ राजा ने कटवा दिया था।

सनातनियों में पूज्य है पीपल।

मेरे जन्म के बारे में किंवदन्ती है कि कौआ जब मेरे पके हुए फल को खाता है तब उसके विष्टा (मल) के यत्र-तत्र गिर जाने से मेरा पौधा उग आता है और मेरा जन्म हो जाता है। सनातनियों के लिए मैं पूज्य हूं। सनातनी मुझे अपने स्थान से विस्थापित करने में हिचकते हैं, ऐसा करने के लिए अन्य धर्म के व्यक्तियों का सहयोग लेते है। जब मैं घर के ऊपर, दराज या अन्य स्थान पर उग जाता हूँ तो मुझे जनमानस शुभ मानते हैं कि उनके घर पर समृद्धि है तभी तो घर पर पीपल का पेड़ उग आया है, अर्थात इन्होंने अपना कहीं और गृह प्रवेश कर लिया है। अपने स्थानीय भाषा में हमें पीपर भी कहते है।

सरकारी स्थानों पर मेरा फैलाव।

सरकारी स्थान पर मैं फैलता जाता हूँ। मुझे कहीं पर लगाने पर व्यक्ति पांच बार अवश्य सोचता है कि एक बार अगर मैं लग गया तो फिर इसे विस्थापित नहीं किया जा सकता, इसलिए मुझे कोई अपने निजी भूमि पर नहीं लगाता, नहीं तो हम ब्रह्म बाबा हो जायेंगे। आप देखते होंगे कि मैं अक्सर अपना विशाल रूप सार्वजनिक स्थान एवं सरकारी वसुंधरा पर ग्रहण करता हूँ।

बकरियों का मैं लजीज व्यंजन हूँ।

सरकारी स्थानों पर हमारे पेड़ों की पत्तियों को जनता अपने बकरियों को खिलाने के लिए तोड़ लेते है। कई मेरी पत्तियों का व्यवसाय करते है। अन्यथा गांव, नगर, कस्बा में मेरी पूजा अवश्य होती है। मैं साढ़ेसाती का नाशक हूं, कालसर्प की पूजा हमारे निकट होती है। प्रत्येक शनिवार को हमारे जड़ में जल चढ़ाया जाता है,पूजा की जाती है। कई मंदिर मेरे छत्र-छाया में बने है और पूजे जाते है। रेलवे पटरियों के किनारे मैं पला-बढ़ा और बड़ा हो जाता हूँ परंतु विकास यात्रा अपने आगोश में मुझे ले लेती है। धीरे-धीरे काटकर मुझे फेंक दिया जाता है।

1857 की लड़ाई में मेरी भूमिका।

अंग्रेजी राज 1857 में हमारे टहनियों से लटका कर वीर-बाॅकुरों को फांसी दिया करते थे। इस प्रकरण से वह हमारे संस्कृति और धार्मिक संस्कारों पर प्रहार करते थे। आपको याद होगा की आपके पड़ोस के गांव में कई वीर बलिदानियों को हमारे टहनियों से लटका कर फांसी दी गई थी।

बहरहाल इस बार खूब गर्मी पड़ी है। जनमानस वृक्ष लगाने के प्रति उसकी चेतना प्रस्फुटित हुई है। जनता ऐसे पेड़ लगाना चाहती है जो वर्षो-वर्षों तक हरियाली-खुशहाली देता रहे। ऐसे में मेरा नाम बड़े जोर-शोर से लिया जा रहा है। समारोह में अतिथियों को सम्मानित करने के लिए मुझे भेंट किया जा रहा है।
काश! मुझे आप अपने अहाते में स्थान दे पाते। आप मुझे विवाद का पौधा न मानकर संवाद का पौधा, संस्कृति का पेड़ मानते।

Leave a Reply

error: Content is protected !!