लाल बहादुर शास्त्री के बारे में हम कम क्यों जानते है?

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लालबहादुर शास्त्री की जयंती और हमारी वैचारिक प्रतिबद्धता।

शास्त्री जी ताशकंद में एक बार मरे हमारे तंत्र ने उन्हें कई बार मारा।

✍ राजेश पाण्डेय

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्वतंत्रता के बाद देश में कुछ क्षण ऐसे आए हैं जब हमें ग्लानी का सामना करना पड़ा है। हम किंकर्तव्यविमूढ होकर केवल अपने भाग्य को निहारत रहे है। इन्हीं में से एक समय वह है जब लाल बहादुर शास्त्री की हत्या तत्कालीन सोवियत संघ के उज़्बेकिस्तान प्रांत की राजधानी ताशकंद में 11 जनवरी 1966 हो जाती है। हमारी यह त्रासदी है कि हम उनकी जयंती पर उनके हत्या की चर्चा करते है।

स्वाभिमान राष्ट्र के प्रबल पक्षधर थे शास्त्री जी।

लाल बहादुर शास्त्री भारत की उस विडंबना का नाम है जिन्हें हमने अपने तंत्र के माध्यम से कई बार मारा है। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’ में शास्त्री जी की हत्या के प्रकरण को दिखाया गया है।शास्त्री जी का बलिदान विचारों की उस बेदी पर होता है जिससे हम अलग होकर गुटनिरपेक्षता का पाठ विश्व को पढ़ा रहे थे और अपने ही घर में आस्तीन का सांप पाल रहे थे। हमने जब तक उसे दूध पिलाई ठीक रहा।

किन्तु प्रधानमंत्री बदलते ही उसके तेवर बदल गये। ऐसे भी विश्लेषक शास्त्री जी को दुर्भाग्यपूर्ण प्रधानमंत्री मानते थे। अपने ही पार्टी का एक धड़ा उन्हें नहीं चाहता था। नेहरू जी की मृत्यु के बाद कांग्रेस पार्टी एकदम से अंदर ही अंदर बिखर गई थी, इसमें कई धड़ हो गए थे। कोई चाहता था कि पार्टी की बागडोर परंपरागत रूप से नेहरू की बेटी संभाले, कोई चाहता था कि जो सबसे योग्य एवं संगठन में समन्वय के आधार पर जो नेता चुना जाए उसे ही अगला प्रधानमंत्री बनाया जाए। इसमें मोरारजी देसाई, के कामराज जैसै नेताओं का नाम प्रमुख रूप से उल्लेखनीय था। किन्तु लाल बहादुर शास्त्री जी को प्रधानमंत्री बनाया गया, जिसका पार्टी के अंदर विरोध था। कई लोग उन्हें नहीं चाहते थे।

शास्त्री जी का विरोध चौतरफा था।

लाल बहादुर शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत में परिवर्तन आना प्रारंभ हुआ। यह आन्तरिक एवं वैश्विक दोनों स्तरों पर हुआ, जिसमें यह कहा गया कि जब भारत गुटनिरपेक्ष का समर्थन है तो ना ही हम संयुक्त राज्य अमेरिका की तरफ जाएंगे और ना ही हम सोवियत संघ के तरफ जाएंगे। परन्तु सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी ‘केजीबी’ पूरी तरह से सरकारी सरकारी कार्यालयों में अपना तंत्र फैल चुकी थी, क्योंकि उसे डर था कि भारत कहीं ना कहीं अपनी तरक्की व विकास के बल पर संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के करीब पहुंच जाएगा। यह वह समय था जब शीत युद्ध चरम पर था।

ऐसे में किसी भी विदेशी ताकतों के द्वारा सरकार की नीतियों में हस्तक्षेप का विरोध शास्त्री जी करते रहे। यह बात किसी भी को ठीक नहीं लगा। अमेरिका की खुफिया एजेंसी ‘सीआईए’ भी भारत के कई मामलों में डोरे डाल रही थी। दोनों से बराबर दूरी बनाए रखने का शास्त्री जी ने अवश्य प्रयास किया। इस बारे में उनके कई अधिकारी समय सचेत करते रहे।
1965 के भारत पाक युद्ध के बाद पाकिस्तान से समझौते को लेकर ताशकंद स्थान चुना गया और वहां पर पाकिस्तान के अयूब खान और शास्त्री जी के बीच वार्ता हुई। उसमें कुछ पत्रों पर संधि की गई। यही वह स्थान रहा जहां शास्त्री जी को जहर देकर मार डाला गया।

पत्रकार कुलदीप नैयर की पुस्तक में भी कई राज कैद है।

कुलदीप प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैयर की पुस्तक में भी शास्त्री जी की हत्या से संबंधित कई राज उद्धृत है। अनुज धर की पुस्तक में भी शास्त्री जी की हत्या के पूरे प्रकरण की पृषभूमि को रखा गया है।
विडंबना यह है कि भारत में शास्त्री जी के हत्या को एक हादसा बता कर एक घटना बता कर लीपा फपोती की गई। जो ऊनके साथ थे, गवाह थे उनको मिटाया गया। भारत और रूस की दोस्ती का हवाला देते हुए इस मामले को लगातार दबाए गया। जब-जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार नहीं रही, तब-तब शास्त्री जी की हत्या के मामले की खोज करने की बात की गई। अंतत 2014 के बाद इसमें तेजी आई, इस पर फिल्म बनाया गया। कई प्रबुद्धों के द्वारा लेख लिखा गया।

भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे इन्हें प्रभावशाली नेतृत्व तथा इनके नारे “जय जवान जय किसान” (जिसमें राष्ट्र निर्माण में सैनिकों और किसानों दोनों के महत्त्व पर बल दिया गया था) के लिये जाना जाता है। शास्त्री जी ने हरित क्रांति को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे भारत को कृषि उत्पादन बढ़ाने और देश की खाद्य सुरक्षा चुनौतियों का समाधान करते हुए खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता को प्राप्त करने में मदद मिली।

शास्त्री ने सिविल सेवकों के लिये उच्च नैतिक मानकों, पारदर्शिता तथा समर्पण को बनाए रखने की आवश्यकता पर बल दिया ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रशासन, भ्रष्टाचार से मुक्त रहने के साथ लोक सेवा के लिये प्रतिबद्ध रहे।

बहरहाल अंतत यह तय हो गया कि देश की तत्कालीन परिस्थिति, वैश्विक स्तर पर विचारों का उलझाव एवं सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी ‘केजीबी’ एवं अमेरिका की खुफिया एजेंसी ‘सीआईए’ का मौन समर्थन शास्त्री जी को हमसे छीन लिया,राष्ट्र का लाल हमसे विदा हो गया।

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