राष्ट्रीय डाक दिवस पर विशेष :  देहाती दुनिया और चिट्ठियां

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श्रीनारद मीडिया, ए के मिश्रा सीवान(बिहार):


शोशती श्री लिखीं उपमा जोग  योगेन्‍द्र के माई के तरफ से योगेंद्र के बाबूजी के पवलगी। यह वह चिट्ठी है जो गांव-देहात की महिलाएं परदेश में कमाने गये अपने पतिदेव के नाम लिखवाती थीं। साथ ही,चिट्ठी को तार समझने की हिदायत भी देती थी। कहने के लिए वह चिट्ठी थी।लेकिन हकीकत में यह घर-परिवार के साथ ही रिश्तेदारी का दस्तावेज थी।

बाल-बच्चों की जरुरतों के साथ घर-गृहस्थी के तमाम हालात का वर्णन होता था।फसल-सब्जी से लेकर माल-मवेशियों की हालत,पड़ोस से रिश्तेदारी में होने वाले शादी-विवाह आदि का उल्लेख होता था। गजब की मंजरकशी थी। बावजूद इसके थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना से चिट्ठी की समाप्ति होती थी।

 

ऐसे तो रजमतिया की पाती भी चर्चा में रही है। रोई-रोई पतिया लिखावे रजमतिया। रजमतिया ने अपनी पाती में जिंदगी के किसी पहलू को नहीं छोड़ा है। मानो चिट्ठी न होकर कमेंट्री हो। अलबत्ता, इन चिट्ठियों के लिखने वाले भी विशेषज्ञ होते थे और इसे पढ़कर सुनाने वाले भी। चिट्ठी संप्रेषण की सशक्त और विकल्पहीन माध्यम थी। एक चिट्ठी ऐसी भी है जिसमें कम पढ़ा-लिखा युवक परदेश में बीमार पड़ जाने के बाद लिखता है,उसे बर्तनी का ज्ञान नहीं है।

बानगी देखिये -पप क चरन परत,
पस भजत न त ,मरत हम। पिता इस पत्र का आशय समझकर पैसे भेज देता है। खैर, चिट्ठी लिखने की यह परंपरा सदियों पुरानी है। ज्यादातर बिरहन अपने कलकता,बंगाला, आसाम, रंगून आदि रहने और जल्दी घर वापस नहीं आने पर चिट्ठियां लिखवाती थीं। चिट्ठी में कलेजा काढ़ कर रख देती थी।

यह पत्र बिरह वेदना का अद्भुत प्लेटफार्म था। चिट्ठी कसक,कशमकश, पीड़ा,नालिश,मनुहार सहित मन की तमाम बातों की अभिव्यक्ति थी।यूं कहें कि पत्र-लेखन कोरे कागज पर मन की तमाम भावनाओं को परोसने की अद्भुत कला था। इसीलिए गांव में मुट्ठी भर लोग थे जिन्हें यह महारत हासिल थी। विद्यार्थी जीवन में दो तरह की चिट्ठियां बहुत मशहूर थीं। एक तो अभिभावक से मनीऑर्डर के माध्यम से पैसे मंगाने की चिट्ठी और दूसरी प्रेमिका को लिखी गयी चिट्ठी।

 

प्रेमिका को लिखी गयी चिट्ठी को किताबों में रखने की परंपरा बहुत प्रचलित थी और पकड़े जाने के खतरा भी बहुत था। यदि चिट्ठी प्रेमिका तक नहीं पहुंच पाती तो किताबों के पन्नों में धरी रह जाती थी। कभी-कभार पकड़ी भी जाती थी। इधर चिट्ठी पढ़कर सुनाने वालों की बहुत अहमियत थी। ऐसे तो अखबारों से भी इन चिट्ठियों को गहरा रिश्ता रहा है। लोग संपादक के नाम चिट्ठियां भेजते रहते थे।

रेडियो से गाने सुनाने की फरमाइश वाली चिट्ठियां तो और मशहूर थीं। 80 और 90 के दशक में मजनू के टीला से फरमाइशी चिट्ठी रेडियो स्टेशन में बार-बार पहुंचती थी। अखबारों में लिखी जाने वाली चिट्ठियों में ‘आर्यावर्त’ में प्रतिदिन छपने वाली चुटकुलानंद की चिट्ठी और रविवार को छपने वाली कटु-मधु की चिट्ठी बहुत मशहूर थी। उसी तरह सीवान के छोटे बाबू की आज में छपने वाली चिट्ठी आज भी दिलो दिमाग में ताजा है।

इस चटपटी चिट्ठी में मजाकिया लहजे में समसामयिक मुद्दे और गंभीर विषय बड़ी सहजता से उठाये जाते थे। वैसे तो सीवान में 1852 में पहली बार डाक विभाग का पहला प्रधान कार्यालय खोला गया था,जिसके प्रधान बनकर दीनानाथ चटर्जी आये थे। 60 के दशक में या उससे पहले के लोगों में अधिकतर लोगों ने चिट्ठी या खत लिखे होंगे,फिर खत के जवाब का बेसब्री से इंतजार किया होगा।

खत में जो बात और जज्बात थे,वह आज के ह्वाट्सएप, फेसबुक, फोन या अन्य सोशल मीडिया में कहां हैं? बहरहाल, कालचक्र की चपेट में आकर चिट्ठियां गुम हो चुकी हैं या गुम होने के कगार पर हैं,जैसे कि उस जमाने में कभी-कभार नौकरी के एप्वाइंटमेंट लेटर या ज्वानिंग लेटर को डाकियों द्वारा गुम कर देने के आरोप लगते थे

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