समाजवाद को आकार देने में भारतीय न्यायपालिका की क्या भूमिका है?

समाजवाद को आकार देने में भारतीय न्यायपालिका की क्या भूमिका है?

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

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सर्वोच्च न्यायालय ने “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्दों को प्रस्तावना से हटाने की याचिका को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि यह संविधान के मूल ढाँचे के अभिन्न अंग हैं।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने 42वें संशोधन, 1976 को बनाए रखा, जिसके तहत समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को शामिल किया गया था और कहा गया था कि ये शब्द भारतीय संदर्भ में विशिष्ट महत्त्व रखते हैं, जो इनकी पश्चिमी व्याख्याओं से अलग है।
  • केशवानंद भारती मामला, 1973सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि समाजवाद संविधान के मूल ढाँचे का पहलू है, जिसे सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने में इसकी भूमिका में देखा जा सकता है।
  • कर्नाटक राज्य बनाम श्री रंगनाथ रेड्डी मामला, 1977इसमें न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि समाजवाद के तहत लोक कल्याण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये तथा तर्क दिया कि राष्ट्रीयकरण या अधिग्रहण का लक्ष्य लोक कल्याण और न्यायसंगत धन वितरण होना चाहिये।
  • मेनका गांधी मामला, 1978इसमें इस बात पर बल दिया गया कि जीवन के अधिकार में सम्मान के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है, जो सभी नागरिकों के लिये जीवन की उचित गुणवत्ता सुनिश्चित करने के समाजवादी सिद्धांत हेतु आवश्यक है।
  • मिनर्वा मिल्स मामला, 1980सर्वोच्च न्यायालय ने मूल अधिकारों एवं राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों (DPSP) के बीच सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें कहा गया कि समाजवादी सिद्धांतों के अनुरूप सामाजिक एवं आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने के क्रम में DPSP को राज्य की नीतियों का मार्गदर्शक होना चाहिये।
  • संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड मामला, 1982इसमें कोयला उद्योग को पुनर्गठित करने के साथ लोक कल्याण के लिये महत्त्वपूर्ण संसाधनों की सुरक्षा के क्रम में राष्ट्रीयकरण को एक आवश्यक कदम बताया गया।
    • इसमें कहा गया कि अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होने पर अनुच्छेद 31C के तहत विधिक संरक्षण प्राप्त होगा।
    • अनुच्छेद 31C के तहत उन विधियों को विधिक संरक्षण मिलता है जिनसे यह सुनिश्चित होता है कि “समुदाय के भौतिक संसाधन” लोक कल्याण को ध्यान में रखते हुए वितरित किये जाएँ अनुच्छेद 39 (b) और धन एवं उत्पादन के साधन “जनसामान्य की हानि” पर “केंद्रित” न हों (अनुच्छेद 39 (c)
    • पंथनिरपेक्षता को आकार देने में भारतीय न्यायपालिका की क्या भूमिका है?

      • सरदार ताहिरुद्दीन सैयदना साहब मामला, 1962सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 (धर्म की स्वतंत्रता) से भारतीय लोकतंत्र की पंथनिरपेक्ष प्रकृति पर प्रकाश पड़ता है।
      • केशवानंद भारती मामला, 1973सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि पंथनिरपेक्षता संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा है।
        • मूल ढाँचा सिद्धांत के अनुसार भारतीय संविधान के कुछ मुख्य तत्त्वों को बदला या हटाया नहीं जा सकता है।
      • एसआर बोम्मई मामला, 1994इसमें न्यायालय ने कहा कि पंथनिरपेक्षता का अर्थ सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार से है और कहा कि 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया पंथनिरपेक्ष शब्द अनुच्छेद 25-28 के तहत संरक्षित मूल अधिकारों के अनुरूप है।
      • इस्माइल फारुकी मामला, 1994इसमें न्यायालय ने माना कि किसी धार्मिक समुदाय से संबंधित किसी भी संपत्ति को राज्य द्वारा (यदि आवश्यक समझा जाए) उचित मुआवजा देने के बाद अधिग्रहित किया जा सकता है।
      • अरुणा रॉय मामला, 2002इसमें भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि पंथनिरपेक्षता का सार, राज्य द्वारा धार्मिक मतभेदों के आधार पर लोगों के साथ भेदभाव न करना है।
        • न्यायालय ने धार्मिक निर्देश और धार्मिक शिक्षा या धर्म के अध्ययन के बीच अंतर किया और कहा कि धार्मिक शिक्षा अनुमेय है और वास्तव में वांछनीय भी है, जबकि धार्मिक निर्देश पर प्रतिबंध है।
      • अभिराम सिंह मामला, 2017इसमें न्यायालय ने माना कि पंथनिरपेक्षता के लिये राज्य को धर्म से अलग रहने की आवश्यकता नहीं है; बल्कि इसे सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना आवश्यक है।
        • इसमें यह स्वीकार किया गया कि धर्म और जाति समाज का अभिन्न अंग हैं तथा इन्हें राजनीति से पूरी तरह से अलग नहीं किया जा सकता है।
        • कोई राजनीतिक उम्मीदवार या उसका एजेंट चुनाव के दौरान धर्म, नस्ल, जाति, समुदाय या भाषा के आधार पर प्रचार नहीं कर सकता है क्योंकि इसे भ्रष्ट आचरण माना जाता है (RPA की धारा 123 (3)।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा “समाजवाद” और “पंथनिरपेक्ष” को संविधान के मूल ढाँचे का अभिन्न अंग मानना ​​भारतीय संदर्भ में इन अवधारणाओं की व्याख्या करने में न्यायपालिका की भूमिका को दर्शाता है। पश्चिमी व्याख्याओं से इसकी भिन्नता भारत के अद्वितीय सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य पर प्रकाश डालती है जिसमें समावेशिता, सामाजिक न्याय और समान संसाधन वितरण को केंद्र में रखा जाता है।

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