भोजपुरी अप्रवासी दिवस पर अपने पूर्वजों को नमन।

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अप्रवासी दिवस के 190 वर्ष पूरे होने पर हुए कार्यक्रम।

02 नवंबर 1834 को मजदूरों का पहला समूह मारिशस के अप्रवासी घाट पर उतरा था।

पंडित तोताराम सनाढय की पुस्तक ‘फिजी द्वीप में मेरे 21 वर्ष में’ ह्दय विदारक आख्यान का उद्धरण है।

1834 में मॉरीशस, 1845 में ट्रिनीडाड,1860 में दक्षिण अफ्रीका, 1870 में गुयाना,1873 में सूरीनाम और 1879 में फिजी द्वीप हमारे पूर्वज गए थे।

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

गिरमिटिया मजदूर का पहला जत्था 02 नवंबर 1834 को  पोर्ट लुइस, मॉरीशस के अप्रवासी घाट पर उतरा था। मॉरीशस में 2 नवंबर को अप्रवासी दिवस मनाया जाता है। सारा नाम के जहाज से 39 यात्रियों के साथ यह वहां के कुली घाट पर उतरा था जिसे अब अप्रवासी घाट कहा जाता है।
आज से 190 वर्ष पूर्व 2 नवंबर 1834 को भारतीय मजदूर का पहला जहाज मॉरीशस के अप्रवासी घाट पर उतरा था। मॉरीशस समेत कई देशों में भारतीयों के जाने को हम अप्रवासी भोजपुरी दिवस मानते है। इस मौके पर मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, गुयाना, ट्रिनीडाड व टोबागो, दक्षिण अफ्रीका समेत कई देशों में यह दिवस मनाया जाता है।

पंडित तोताराम सनाढय की पुस्तक ‘फिजी द्वीप में 21 वर्ष
आज के महान दिवस पर मैं फिजी में मजदूर के रूप में 21 वर्ष तक जीवन व्यतीत किए, पंडित तोताराम सनाढय की पुस्तक ‘फिजी द्वीप में 21 वर्ष’ पढ़ी। सबसे पहले  भोजपुरी अप्रवासी दिवस पर अपने पूर्वजों को नमन। बड़ा हृदय विदारक और मार्मिक यह वृतांत है। पुस्तक उस वेदना, संत्रास, कुंठा की एक झलक प्रस्तुत करती है। जब 1876 में फिजी द्वीप ब्रिटिशों के अधीन आया तो उपनिवेश युग में शर्तबन्द प्रथा के माध्यम से एक नए प्रकार की दास प्रथा का जन्म हुआ। यह नाम वार्ड रसेल ने रखा था, इसकी पुष्टि प्रो. ह्यूग तिनकर की पुस्तक ए न्यू सिस्टम ऑफ़ सलेवरी में मिलती है। हमारे प्रवासी बंधुआ मजदूर बन्धु 1879 में वहां पहुंचते है।

पंडित तोताराम सनाढय की पुस्तक फिजी द्वीप में 21 वर्ष 190 पृष्ठों में संकलित है। पुस्तक के प्रत्येक शब्द बड़ी व्यथा के साथ लिखे गये है। तत्कालीन हृदय विधायक घटना को पढ़कर आज भी हमारे रोंगटे खड़े हो जाते है। दरअसल हम अपने साहित्य पढ़ने के क्रम में इसे प्रवासी साहित्य का नाम देते है। जबकि यह भाव का साहित्य है। यह उस भावुकता का साहित्य है जिसे हमारे पूर्वजों ने वर्षों तक जीया है। कठिन से कठिन अमाननीय जीवन को व्यक्तित्व करते हुए उन्होंने अपने अस्तित्व को जीवंत रखा।

ब्रिटिशों द्वारा झूठ फरेब पर बनाई गई कथा का यह देश था

तोताराम सनाढय बताते हैं कि 102 दिन यानी 3 महीने 12 दिन की लंबी जहाज यात्रा से हम सभी फिजी पहुंचते है। फिजी पर सर्वप्रथम 1643 ईस्वी में तस्मान नाम के डच नागरिक ने इस द्वीप को ढूंढा था। पूर्ण रूप से 1874 को यह द्वीप ब्रिटिशों के अधीन आ गया। फिजी की मिट्टी और हमारे देश की मिट्टी लगभग एक बराबर थी। इसलिए यहां गन्ने के खेतों में काम करने के लिए बंधुआ मजदूर भारत से जाया गया। 14 मई 1879 को पहला जहाज लेवनिदास कलकता बंदरगाह से चलकर फिजी पहुंचता है। 1916 तक यहाँ 61 हजार भारतीय फिजी पहुंच जाते है। फिजी जाकर काम करना, पैसे कमाना वहां से पैसे भेजना यह अपने आप में एक अलग तरह की घटना है। जो पूर्णता ब्रिटिशों द्वारा झूठ फरेब पर बनाई गई कथा थी।

हमारे देश में भी उस समय कुछ भ्रष्टाचारी लोग भोले’भाले गरीब मजदूर व उनकी पत्नी, गांव से भागी हुई स्त्रियों को पड़कर कोलकाता पहुंचा देते थे और कोलकाता से यह लोग जहाज के द्वारा फिजी की यात्रा तय करते थे। यहां से अमानवीय पूर्ण जीवन शुरू होता था। पशुओं से भी बुरा व्यवहार इनके साथ किया जाता था। पाँच वर्ष तक इन्हें शर्तबंदी मजदूर के रूप में काम करना होता था। पाँच वर्ष के बाद ना ही इनके पास पैसा होता था और ना ही ऐसा कुछ जिसकी वजह से यह घर लौटे।
कई काम करते-करते दम तोड़कर इसके बाद कई तो यहां काम करते-करते दम तोड़ देते थे। कई यहां आगे अपने जीवन को गुजारते थे।

तोताराम सनाढय ने ब्रिटिश सत्ता के अमाननीय पक्ष को सामने रखा।


परन्तु तोताराम सनाढय 21 वर्ष तक यानी 1893 में वह फिजी चले गए और 1914 में आए। उन्होंने अपनी पुस्तक फिजी द्वीप में 21 वर्ष के माध्यम से पूरी दुनिया को यह बताया कि फिजी में ब्रिटिश सरकार के द्वारा क्या किया जा रहा है। वह किस तरह का आम आदमी पर अत्याचार कर रहे हैं,औरतों के साथ गोरे जबरदस्ती करते है। भोजन के लिए भरपूर राशन भी नहीं दिया जाता है।
फिजी ऑफ टुडे (Fiji of To-day )पुस्तक के लेखक जे.डबलयू. बर्टन ने दारूण कथा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “असभ्य और जवान ओवरसियर खूबसूरत हिंदुस्तानी स्त्रियों पर मनमाने अत्याचार करते हैं। अगर ये स्त्रियाँ मना करती हैं तो उन पर और उनके पति पर बहुत अत्याचार करते हैं। कभी-कभी दवाखाने के कंपाऊडर किसी भारतीय स्त्री को एक बंद कमरे में बुला लेते हैं और यह बहाना करते हैं कि आओ हम तुम्हारी डॉक्टरी परीक्षा करें, चाहे वह बेचारी विरोध करे और कहे कि मुझे कोई बीमारी नहीं, मैं नहीं जाना चाहती, पर तब भी बलात् उसे कोठरी में ले जाते हैं फिर अपनी कामेच्छा पूरी करने के लिए अत्यंत असभ्यता के साथ उस पर पाशविक अत्याचार करते हैं अथवा उसे इसलिए तंग करते हैं कि वह एक ऐसे भारतवासी के विरूद्ध गवाही दे दे जिससे कि उनकी कुछ अनबन हो गई है।”

प्रो. सुब्रमनी की पुस्तक ‘फिजी मां’ में कई कथा है
फिजी में भारतीयों के अत्याचार, यातना,कुकृत्य की कथा को प्रो. सुब्रमनी की पुस्तक ‘फिजी मां’ में भी पढ़ सकते है। इस तरह की कई ऐसी पुस्तक हैं जिससे हम अपने भोजपुरी अप्रवासी साहित्य के बारे में जान सकते हैं। हमारी भोजपुरी बोली बानी के लोग जो फिजी, सूरीनाम,गुयाना, मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, जैसे देश में ब्रिटिश शासन द्वारा ले जाए गए और उन पर किस प्रकार अमाननीय अत्याचार हुए इसकी दास्तान पढ़कर अनुभव कर सकते है। यह दिवस अपने पुरखों को नमन करने का भी है जिन्होंने असहनीय अत्याचार को सहकर वहां अपना जीवन व्यतीत किया। आज उनकी पांचवी या छठी पीढ़ी वहां के शासन में, वहां के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में, वहां के मंत्री के रूप में, वहां के सिविल सेवक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है।

इन देशों में अप्रवासी भारतीयों की पीढ़ियों ने समृद्धि का परचम लहराया है।

जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हिंदी अधिकारी के रूप में कार्यरत डॉ. राजेश कुमार मांझी पुस्तक गिरमिटिया भारतवंशी में आप इसे पढ़ सकते हैं। समझ सकते हैं कि वहां की स्थिति क्या थी।हृदय विदारक और मार्मिक यह पुस्तक है उस वेदना की झलक बया करती है।
इन अप्रवासी देशों में साहित्य एवं भोजपुरी साहित्य पर काम करने वाले कई विद्वानों के उद्धरणों से पता चलता है कि भारतीय एवं भोजपुरी बोली बानी की संस्कृति व संस्कार उस व्यक्ति में विद्यमान रही जिसके कारण वह इन कठिन से कठिन परिस्थितियों में अपने आप को जीवित रख पाया। इस बारे में मॉरीशस की रहने वाली डॉ. सरिता बुद्धू बार-बार यह उद्धृत करती हैं कि यह भोजपुरी की ही ताकत है कि हम सभी भारतवंशी आज इन देशों में अपने पांचवी छठी पीढ़ी के साथ फल- फूल रहे है। सही में उनका त्याग, उनका समर्पण आज इन देशों को समृद्ध राष्ट्रों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है।

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