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सूर्य देवता दूर रहकर भी हमारे साथ रहते है!

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सूर्योपासना के दिन हैं. भारत का एक बड़ा भाग शुद्ध और पवित्र होकर सूर्य को अर्घ्य देगा. सूर्य को नैवेद्य अर्पित करेगा और अपने सामर्थ्य का दीपक दिखाकर आरती भी उतारेगा. जो इस अनुष्ठान में शामिल नहीं, वे भी पल भर को सूर्य की तरफ देखेंगे और या तो हाथ जोड़ेंगे या धीमे से पलकें झुकाकर आभार प्रकट करेंगे, क्योंकि दुनिया भर के धर्मों और देवताओं की भीड़ और शोर में सूर्य ही है जो सचमुच है, आता और जाता दिखता है और ईश्वर होने के प्रमाण रोज पेश करता है.

सारी प्राचीन सभ्यताओं में सूर्य है

वे दिन जब मनुष्य के नंगे पूर्वज रात की ठंड और जानलेवा असुरक्षा झेलते थे, सूर्य ही उन्हें ऊष्मा और सुरक्षा देता था. रात पहनकर ओझल हो जाते थे लोग और दृश्य, मगर धूप रूप को निखार और विस्तार देती थी. ऐसे में अंधकार के आतंक और संकटों को विवश झेलते पशुवत् निरीह मनुष्य के लिए प्रभात एक अमोघ दैनिक उत्सव था और सूर्य उसका केंद्र, एक ऐसा केंद्र जिसका ठिकाना नीला अनंत था,  दिव था. जो दिव में वह दिव्य और देवता. इस प्रकार सूर्य देवता हुए. किसी के क्षेत्र या सभ्यता के नहीं, विश्व की सारी प्राचीन सभ्यताओं में सूर्य की हैसियत एक नाथ की है, जो दीन के त्राण को प्रकट होता है. एशिया,अफ्रीका, यूरोप और दोनों अमेरिका के सारे सनातन धर्म की कथाएं और प्रतीक साक्षी हैं.

जगत के पिता हैं सूर्य

एक तरफ गर्भ, गुफा, बंद कमरा और रात है, और दूसरी तरफ खेत, मैदान, समुद्र आकाश और वह प्रकाश जो सूर्य से आता है. मनुष्य का जीवन इन्हीं दो इलाकों में बीतता है. पहला इलाका जहां दीवारों की सुरक्षा और अंधकार से मिलने वाली शांति और पोषण है, वह हमारी मां का रूपक है. जीवन के जन्म से जुड़ी सारी गतिविधियों का घर है वह. और दूसरा इलाक़ा जहां खुलापन और प्रकाश है, हमारे पिता का रूपक है. प्रकाश हमें न सिर्फ विवश करती रात से बचाता है, बल्कि खुले में खड़ी और पड़ी चुनौतियों से मिलवाता भी है.

वह नदी का दूसरा पाट भी दिखाता है और पहाड़ की चोटी भी. वह समुद्र की अपारता का बोध भी कराता है और उसके वक्ष पर चलने वाले यान बनाने के सामान और साधन भी दिखाता है. तो इस नाते सूर्य  जगत के पिता हुए. इसी भाव से सभ्यताएं निहारने लगी थीं उन्हें, और आज भी जब स्काई स्क्रैपर्स वाली  नागर सभ्यता का साम्राज्य है, सूर्य के प्रकाश को पाने की तड़प बढ़ती ही जा रही. पेरिस के लूव्र म्यूजियम के बेसमेंट की छत तोड़कर बना कांच का पगोडा एक प्रतीक है, सूर्य से ऊष्मा और प्रकाश मांगने को फैली हथेली है.

देवता जैसा पिता और पिता जैसा देवता हैं सूर्य, जो  बहुत दूर रहकर भी अपने प्रभाव के रूप में हमारे साथ होता है. वह पृथ्वी की तरह मां नहीं कि उसके शरीर से हमारा भोजन उपलब्ध हो, मगर वह पृथ्वी को इस लायक बनाता है कि वह हमारे लिए भोजन बना सके. सूर्य हमारे शरीर की जैविक क्रियाओं का बड़ा ही चुप्पा नियंता है. वह आता है और जागरण से भर देता है. हमारे शरीर के भीतर ही हड्डियों को मजबूत करने वाला विटामिन डी बनवा देता है.

वह हमारी आंखों के भीतर अपनी किरणें पहुंचाता है और रेटिना को जगाकर मस्तिष्क के भीतर जाकर सेरोटोनिन  का उत्पादन बढ़ाता है. सेरोटोनिन एक न्यूरोट्रांसमीटर है जो हमारे मन को प्रसन्न रखता है और हमारी भावनाओं को सकारात्मक. वैज्ञानिक प्रमाण हैं कि सूर्य का प्रकाश हमें इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़े दैत्य ‘तनाव’ से मुक्त करता है. वह अनुपस्थित होकर हमारे मस्तिष्क के भीतर मेलोटोनिन का उत्पादन बढ़ाता है और हम सो जाते हैं और फिर दस्तक देकर हमें जगा देता है.

रोगाणुओं-विषाणुओं को नष्ट करती हैं सूर्य की किरणें

कुछ भी अकारण नहीं अहेतुक नहीं, धर्म और उपासना भी नहीं. कहते हैं कृष्ण के पोते शाम्ब को कुष्ठ रोग हुआ था तो शाक्य द्वीप से वैद्य बुलाये गये थे जिन्होंने सूर्य की उपासना का मार्ग बताया था. यहां उपासना को सेवन समझना चाहिए. अब हम भली-भांति और सप्रमाण जानते हैं कि सूर्य की किरणें रोगाणुओं-विषाणुओं को नष्ट करती हैं. यह पर्व संभवत: यह याद दिलाने के लिए भी है कि ठिठुराने वाले ठंडे दिन आनेवाले हैं. इसलिए सूर्य को धन्यवाद दो.

तना सार्वजनिक हैं, उतना ही व्यक्तिगत भी

21वीं सदी एक अजीब सदी है. यह युद्ध, वैचारिक जागरण और लालच की लपटों को जंगल की बेलगाम आग में बदलनेवाले वैश्वीकरण की सदी के बाद की सदी है. यह एक ऐसी तकनीक की सदी है, जिसने पूरे विश्व को एक ही साइबर समुद्र में मुंह मारने वाले जीवों की बसावट में बदलकर रख दिया है. इस सदी में सारी अक्ल डिजिटल टेक्नोलॉजी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता के विकास में लगी है और सारी संस्कृतियां वर्चस्व के धनी और धन के वर्चस्व की आदतों और फ़ैशन की नकल में. किसानों का यह पर्व अब अर्बन और इंटरनेशनल हो गया है. तनाव और डर से बेचैन लोग उन कथाओं में कही गयी बातों में विश्वास करने लग गये हैं.

लोग यह भूल गये हैं कि कोढ़ से मुक्ति एक मुहावरा भी हो सकता है. यह भूल गये हैं कि ऐसे व्रत जीवन को पवित्रता का मंत्र देने के लिए पुरखों ने सिरजे थे. लोग भूल गये हैं कि सूर्य जितना सार्वजनिक है उतना ही व्यक्तिगत भी. वह रोज हर किसी के घर और देह के द्वार पर आता है और नये जमाने की भाषा में कहें, तो पर्सनलाइज्ड सर्विस देता है. तो फिर क्यों घाटों पर यह भीड़ ? नदियों और जलाशयों को क्यों दूषित करना? ध्यान रहे, छठ व्रत है, त्योहार नहीं. ये अपने बाहर और भीतर के सूर्य से मिलने और परिवार को व्रत की पवित्रता की शिक्षा देने के दिन हैं.

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