क्या आप हादसे के लिए जनता को अशिक्षित या असभ्य ठहरा रहे है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
जब व्यवस्था चरमराती है, जब संसाधन नाकाफी साबित होते हैं, जब जीवन संघर्ष बन जाता है, तो दोष किस पर मढ़ा जाता है? जनता पर! वो जनता जो पहले से ही शोषित है, जिसे पहले से ही हर रोज़ अपने बुनियादी जरूरतों के लिए भी लड़ना पड़ता है। कभी कहा जाता है कि जनसंख्या बहुत अधिक है, कभी कहा जाता है कि तकनीक ने रोजगार खत्म कर दिए इसलिए निठल्ली बेरोजगार जनता धार्मिक आयोजनों में जाने लगी है और जब इन कुतर्कों से भी काम नहीं चलता, तो जनता को ही अनुशासनहीन, अशिक्षित या असभ्य ठहरा दिया जाता है।
धार्मिक आयोजनों में उमड़ने वाली भीड़ और उसमें होने वाली भगदड़ को जनता की मूर्खता कहकर ठहराने का दृष्टिकोण समस्या की जड़ तक जाने से पहले ही दोष को जनता पर मढ़ देता है, जबकि असल प्रश्न यह होना चाहिए कि ऐसी स्थितियाँ पैदा क्यों होती हैं? क्या जनता खुद को मरवाने के लिए स्वेच्छा से भगदड़ का शिकार बनती है, या फिर व्यवस्था की संरचना में ही कोई गड़बड़ी है?
भीड़ की त्रासदियों को धार्मिक उन्माद का परिणाम कहकर टाल देना सुविधाजनक होता है, क्योंकि इससे उन लोगों की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है जो व्यवस्था का संचालन करते हैं। सवाल यह है कि इतनी विशाल भीड़ को नियंत्रित करने की क्या कोई प्रभावी व्यवस्था बनाई गई थी? क्या रेलवे, पुलिस और प्रशासन ने यह सुनिश्चित किया था कि स्टेशन या आयोजन स्थल पर भीड़ के दबाव को संभालने के लिए उचित उपाय हों?
धार्मिक आयोजनों में लाखों लोग इसलिए नहीं पहुंचते कि वे विवेकशून्य हो गए हैं, बल्कि इसलिए पहुंचते हैं क्योंकि उनके जीवन में उत्सव का कोई और विकल्प नहीं है। उनके लिए यह आयोजन केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक अनुभव भी होता है। यह व्यवस्था ही ऐसी है कि जनता के पास अपने कष्टों से मुक्ति पाने का कोई दूसरा माध्यम नहीं है। जब जीवन असहनीय हो जाता है, जब व्यवस्था उनके लिए कुछ नहीं करती, तब वे किसी दैवीय आश्रय की तलाश में निकल पड़ते हैं।
यह कहना कि जनता धर्म में अंधी हो गई है, असल में उन नीतियों को बचाने की चाल है जिन्होंने जनता को इस स्थिति तक पहुँचाया। रेलवे स्टेशन पर भगदड़ का दोष उस यात्री पर नहीं थोपा जा सकता जो ट्रेन पकड़ने की कोशिश कर रहा था। अगर पर्याप्त ट्रेनों का इंतजाम होता, अगर प्लेटफार्मों की व्यवस्था ढंग से की गई होती, अगर सुरक्षाबलों को भीड़ प्रबंधन का उचित प्रशिक्षण दिया गया होता, तो यह त्रासदी टल सकती थी।
लेकिन यह मानने की बजाय कि व्यवस्थागत असफलता के कारण हादसा हुआ, दोष सीधे जनता पर डाल दिया जाता है। जब तक समाज में लोगों को जीवनयापन के लिए बेहतर परिस्थितियाँ नहीं दी जाएँगी, जब तक उनकी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ठोस कदम नहीं उठाए जाएँगे, तब तक वे इसी तरह के आयोजनों में शरण लेने को मजबूर होंगे। और जब ऐसी भीड़ के प्रबंधन में लापरवाही बरती जाएगी, तब त्रासदियाँ होंगी। दोष जनता का नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का है जिसने जनता को अराजक हालात में जीने के लिए छोड़ दिया है।
सोचिए, बस का किराया चुका दिया, ट्रेन का टिकट ले लिया, अस्पताल का बिल अदा कर दिया—फिर भी आपको सीट नहीं मिली, इलाज नहीं मिला, सुविधा नहीं मिली। और जब आपने इसका विरोध किया, सवाल पूछा, तो जवाब मिला—”आप देशद्रोही हैं! हर काम सरकार के भरोसे क्यों?” भीड़ क्यों है? संसाधन क्यों कम हैं? और अगर संसाधन कम हैं, तो व्यवस्था इसे सुधारने के लिए काम क्यों नहीं करती?
क्यों हर रेलवे प्लेटफॉर्म पर लोग अपनी जान हथेली पर लेकर ट्रेन पकड़ने के लिए दौड़ते हैं? क्यों एक एक सीट के लिए हाथापाई होती है? क्योंकि सिस्टम पर भरोसा करना मूर्खता बन चुकी है। अगर यात्रियों को यह विश्वास होता कि ट्रेन नियत समय पर नियत स्थान पर ही आएगी, कि पर्याप्त सीटें उपलब्ध होंगी, कि हर व्यक्ति को उसकी जरूरत के अनुसार संसाधन मिलेंगे—तो क्या कोई धक्का-मुक्की करता? क्या कोई प्लेटफॉर्म पर पागलों की तरह भागता? लेकिन यह सवाल उठाना अराजकता फैलाने के बराबर समझा जाता है।
क्या जनसंख्या सच में समस्या है, या समस्या यह है कि जनसंख्या को सही तरीके से संगठित नहीं किया जा रहा? अगर लोग ज्यादा हैं, तो सुरक्षाकर्मियों की भर्ती बढ़ाइए, डॉक्टरों और नर्सों की संख्या बढ़ाइए, स्कूलों और अस्पतालों का विस्तार करिए, रेलवे में नए डिब्बे जोड़िए, नई ट्रेनों का संचालन करिए, बसें बढ़ाइए। संसाधनों का सही वितरण करिए, न कि जनता को ही दोषी ठहरा दीजिए। यह झूठे तर्क असल मुद्दों को ढंकने के लिए गढ़े जाते हैं। जैसे, जब ट्रेन में भीड़भाड़ से दुर्घटना होती है, तो कोई नहीं पूछता कि पर्याप्त ट्रेनों की व्यवस्था क्यों नहीं हुई। जब लोग इलाज के अभाव में मरते हैं, तो कोई नहीं पूछता कि स्वास्थ्य सेवा को मुनाफे का धंधा क्यों बना दिया गया।
असलियत यह है कि एक विशेष वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए संसाधनों को सीमित रखता है। वे जानते हैं कि अगर जनता को उनकी जरूरत के हिसाब से सुविधाएँ मिल जाएँगी, तो उनका नियंत्रण खत्म हो जाएगा। वे जानते हैं कि अगर हर व्यक्ति को रोजगार मिल गया, हर बीमार को इलाज मिल गया, हर मजदूर को उसका पूरा हक़ मिल गया, तो उनकी तिजोरियों में ताले लग जाएंगे। इसलिए वे इन बहानों को गढ़ते हैं—तकनीक ने रोजगार खत्म कर दिए, जनसंख्या बहुत अधिक है, संसाधन सीमित हैं।
यही असली खेल है। जनता को आपस में लड़वाया जाता है, ताकि असली दोषियों पर उंगली न उठे। लोगों को यह अहसास कराया जाता है कि समस्या उनकी वजह से है, उनकी संख्या की वजह से है, उनकी योग्यता की कमी की वजह से है—जबकि असली समस्या इस लूटतंत्र की है, जिसने संसाधनों को कुछ गिने-चुने लोगों की बपौती बना दिया है।
आभार- मनोज अभिज्ञान
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