चैत,चैती,चैता-भोजपुरी गवनई की पारंपरिक विरासत
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
शुरुआत होती है इस गवनई की,
निम्नांकित पदों से-
“अबला भवानी मैंया,तबला बजावे
सारंगी बजावे महावीर रे चईतवा,
सारंगी बजावे महावीर।
गांव के ब्रह्म बाबा जोड़ीया बजावस कि
नाचस दास कबीर रे चईतवा
नाचस दास कबीर।”
अब रोचक होगा यह जानना कि भवानी मैंया(देवी),महावीर जी,गांव के ब्रह्म बाबा जैसे लोग जब इस गायन में भूमिका निबाह रहें हैं तो “कबीरदास जी” कहां से आ गये?
यह गायन शैली एक इतिहास छुपाये हुए है अपने अंदर।ग्राम देवताओं की श्रेणी में उपरोक्त तीनों देव आते हैं।हर गांव में देवी का स्थान,घर घर में महावीर जी का ध्वज का फहरना और गांव के किसी विशेष स्थान पर ब्रह्म बाबा का चबूतरा ग्राम्य जीवन को जीवंत रखे हुए है।अब,जबकि ग्राम देवता मस्ती में झूम रहें हैं तो इस आनंदोत्सव में युग प्रवर्तक कबीर का नाचना यह तो स्पष्ट कर ही रहा है-कबीर ने भी इस गवनई को अपने जमाने में देखा था,तभी तो उन के नाम पर भी पद बने।मतलब कम से कम तेरहवीं शताब्दी(कबीर काल)से तो यह विरासत आज भी हमारे सामने ज़िंदा है-उसी तेवर और उसी ऊर्जा के साथ।
गेहूं पक कर तैयार है।सोना बिछा पड़ा है खेतों में।सोनुहला रंग किसानों के श्रम का प्रतिफल है।रात दो बजे से कटनी प्रारंभ होती है चुकि पुरवा बहने लगता है और उस समय गेहूं के डंठल मुलायम हो जाते हैं।सुबह होते हीं कटनी रोक दी जाती है क्योंकि धूप तीखी हो जाती है।इस का मतलब अपने हर्ष को और रात्रि जागरण के प्रदर्शन का संगीत है यह।यह केवल पुरुष प्रधान शैली है।
चैत मास में चैती उपशास्त्रीय गायन का प्रदर्शन है,जिसे प्रतिशत: महिलाएं ही प्रदर्शित करतीं हैं।(हालांकि पुरुष भी गा सकते हैं और इसके लिए मनाही नहीं है)
राग तिलक कामोद के “प़ऩिसारेग,सारेग,सारेमग,साऩि”-जैसे स्वर जब हुलास मारते हैं तो चैती फूटती है।राग तिलक कामोद का जन्म भी इन्हीं लोक के स्वरों से हुआ है।आज यह महत्वपूर्ण रागों में शुमार है।
मतलब चैती उपशास्त्रीय और चैता लोक का संगीत है।चैता हीं को भोजपुरी की स्थानीय भाषा में “घांटो” कहा जाता है।यह संबोधन अब बहुत कम सुनने को मिलता है।चैती में जहां माधुर्य के लिए भिन्न-भिन्न स्वरों का प्रयोग होता है,इसके विपरीत चैता में टांसी आवाज (तार सप्तक)की महत्ता होती है।चैती में कम से कम तीन से चार पद होते हैं,जिस में प्रकृति से जुड़ कर उस से प्राप्त अनुभूतियों की सस्वर व्याख्या होती है।चैता में एक ही पद की तीन लयात्मक स्थितियों में प्रदर्शन होता है।
पालथी मार कर प्रारंभ होने वाले इस शैली के पहले रुप का लय विलंबित में निबद्ध होता है।इस के बाद ठेहुने के सहारे दूसरे रुप को देखते हैं हम,जहां लय मध्य अवस्था में होता है।तीसरे चरण में खड़ा होकर द्रुत लय का चरम होता है।चैती एकल गायन है,जबकि चैता समूह का गायन है।चैती में तबला और संगत के लिए सारंगी जैसे वाद्य होते हैं,जब कि चैता में ढ़ोलक और झाल के साथ झांझ,छिंटका जैसै लोक वाद्यों का प्रयोग होता है।
चैती के मधुर और स्थिर गायकी तूलना में चैता में नृत्य की भूमिका भी होती है।पुरुष नर्तक तो अब कम दीख रहे हैं,महिला नर्तकियों का प्रदर्शन किसी “बैली डांस” की तरह का होता है।अंगों के भिन्न भिन्न स्थानों का कलात्मक रुप से संचालन कमाल का होता है।संभव नहीं है एक ही आलेख में सब कुछ लिख जाना।हां,इतना तय है-जब तक चैता है,भोजपुरी गवनई का खांटीपन बना रहेगा।
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