देशभर में शिक्षकों के खाली पद नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू करने में बाधा बन रहे

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्कूलों में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति ( एनईपी) को लागू करने के लिए भले ही केंद्र और राज्य सरकारें पूरी शिद्दत से जुटी हुई है लेकिन हकीकत यह है कि स्कूलों में इसे अमल में लाने के लिए पर्याप्त शिक्षक ही नहीं है। स्कूलों में अभी भी शिक्षकों के करीब आठ लाख पद खाली पड़े है।
यह बात अलग है कि पिछले सालों के मुकाबले इसमें सुधार हुआ है, पहले यह संख्या दस लाख से अधिक थी। इसके साथ ही देश के एक लाख से अधिक प्राथमिक स्कूल ऐसे भी है, जो सिर्फ एक शिक्षक के भरोसे चल रहे है। स्कूलों में नए शैक्षणिक सत्र शुरू होने के साथ ही शिक्षा मंत्रालय ने शिक्षकों के खाली पदों को भरने के लिए राज्यों को एक बार फिर पत्र लिखा है। जिसमें शिक्षकों के खाली पदों को प्राथमिकता से भरने के निर्देश दिए है। साथ ही यह सुझाव दिया है कि स्कूलों में शिक्षकों के पद रिक्त होने से पहले ही उन्हें भरने की योजना बनाई जाए। जिससे स्कूलों को जल्द नए शिक्षक मिल सके।
पद का खाली होना एक सतत प्रकिया: शिक्षा मंत्रालय
मंत्रालय का मानना है कि स्कूलों में शिक्षकों के पदों का खाली होना एक सतत प्रक्रिया है, लेकिन यदि तीन-तीन महीने में सेवानिवृत्त होने वाले शिक्षकों का ब्यौरा जुटाया जाए व खाली होने वाले पदों पर भर्ती की प्रक्रिया को पहले से शुरू कर दी जाए, इससे संकट से बचा जा सकता है। शिक्षा मंत्रालय की ओर से संसद को सौंपी गई एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में वैसे तो शिक्षकों की कुल संख्या 98 लाख है। इनमें से करीब आठ लाख पद अभी भी खाली है।
सबसे अधिक पद बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल में खाली है। इसके साथ ही देश में एक लाख से अधिक प्राथमिक स्कूल ऐसे है, जो एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे है। एक शिक्षक के भरोसे स्कूलों की सूची में बिहार की स्थिति बाकी राज्यों से थोड़ी अच्छी है। गौरतलब है कि मौजूदा समय में देश में 14.71 लाख से अधिक स्कूल है। जिसमें 2.60 लाख स्कूल शहरी क्षेत्रों में है, बाकी 12.12 लाख से अधिक स्कूल ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित है।

राज्य स्कूलों की संख्या

राज्यस्कूलों की संख्या
आंध्र प्रदेश12543
मध्य प्रदेश11035
झारखंड8294
कर्नाटक7477
राजस्थान7673
पश्चिम बंगाल5437
उत्तर प्रदेश4572
हिमाचल प्रदेश3365
छत्तीसगढ़5520

देश में जब शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ तो 6 से 14 वर्ष के बच्चों के लिये यह मौलिक अधिकार बन गया। इसके अलावा शिक्षा क्षेत्र में सुधार लाने के लिये केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न योजनाएँ और कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इसके बावजूद शिक्षा के क्षेत्र में चुनौतियों का अंबार लगा है तथा ऐसे उपायों की तलाश लगातार जारी रहती है, जिनसे इस क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन लाए जा सकें। मानव संसाधन के विकास का मूल शिक्षा है जो देश के सामाजिक-आर्थिक तंत्र के संतुलन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं। देश के शिक्षासंबंधी सभी अध्ययन और सर्वेक्षण इंगित करते हैं कि शिक्षा के साथ विद्यार्थियों का स्तर भी अपेक्षा से नीचे है। इसके लिये सीधे शिक्षकों को दोषी ठहरा दिया जाता है और इस वास्तविकता से आँखें मूँद ली जाती हैं कि विद्यालयों/महाविद्यालयों का बुनियादी ढाँचा और शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था बेहद कमज़ोर है।

देश में एक लाख से अधिक विद्यालय ऐसे हैं, जहाँ केवल एक शिक्षक है। आज़ादी 72 वर्ष बाद भी यदि देश में शिक्षा की यह दशा और दिशा है तो स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के सकारात्मक अभियान में सभी का सक्रिय सहयोग लेना आवश्यक होगा। इस अभियान में सरकार, नागरिक समाज संगठन, विशेषज्ञों, माता-पिता, सामुदायिक सदस्यों और बच्चों सभी के प्रयासों की आवश्यकता होगी। यही समय है जब स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के इस मुद्दे पर एक टीम इंडिया का गठन किया जाना चाहिये।

इसके अलावा, स्कूली शिक्षा में सुधार के लिये शिक्षण विधियों, प्रशिक्षण और परीक्षण की विधियों में भी सुधार करने की ज़रूरत है। अभी शिक्षण की विधियाँ राज्य स्तर से तय की जाती हैं, जिनमें कक्षागत शिक्षण कौशलों को या तो नकार दिया जाता है या उन्हें परिस्थितिजन्य मान लिया जाता है।

शिक्षकों के अच्छे प्रशिक्षण के लिये प्रशिक्षण का दायित्व कर्त्तव्यनिष्ठ, योग्य और क्षमतावान प्रशिक्षकों को सौंपा जाना चाहिये। शिक्षकों के प्रशिक्षण को प्रभावी बनाने, शिक्षण में नवाचारी पद्धतियों का विकास करने सहित परीक्षण/मूल्यांकन की व्यापक प्रविधियाँ तय कर उन्हें व्यावहारिक स्वरूप में लागू करने की दिशा में कारगर कदम उठाने चाहिये।

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