
इतना ही नहीं, पाकिस्तान ने यह भी कहा कि वह भारत के साथ सभी द्विपक्षीय समझौतों को स्थगित रखने के अधिकार का प्रयोग करेगा, जिसमें शिमला समझौता भी शामिल है, लेकिन उस तक सीमित नहीं है। पाकिस्तान के बयान से साफ है कि उसने 1971 के युद्ध के बाद दोनों सरकारों द्वारा परस्पर सहमति से तय की गई नियंत्रण रेखा की वैधता पर भी सवाल खड़ा कर दिया है। मौजूदा नियंत्रण रेखा 17 दिसंबर, 1971 को स्थापित युद्धविराम रेखा पर आधारित है।
जानिए क्या है शिमला समझौता?
1971 के युद्ध में पाकिस्तान को भारतीय सेना ने मुंहतोड़ जवाब दिया था। पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए गए थे। युद्ध के करीब 16 महीने बाद हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन पीएम जुल्फिकार अली भुट्टो की मुलाकात हुई थी।
यहां पर ध्यान देने वाली बात है कि शिमला समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद पाकिस्तान कम से कम दो बार एकतरफा नियंत्रण रेखा को बदलने की कोशिश कर चुका है।
जब 2000 फीट की ऊंचाई पर लड़ी गई सियाचिन की लड़ाई
- ऐसा माना जाता रहा है कि सियाचिन संघर्ष की उत्पत्ति 1949 के कराची समझौते में निहित है। ये एक सीमा है जिसने भारत और पाकिस्तान की सेनाओं को विभाजित किया था। बता दें कि भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधिमंडलों ने 1949 में संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता वाली युद्ध विराम रेखा (सीएफएल) की स्थापना को अधिकृत किया।
- सीएफएल जम्मू के मनावर से शुरू होकर कुपवाड़ा जिले के केरन तक उत्तर की ओर जाती थी। वहां से पूर्व में ग्लेशियरों तक और फिर उत्तर में ग्लेशियरों तक जाती थी। एनजे 9842 सीएफएल पर अंतिम सीमांकित बिंदु था। इसके पीछे की वजह थी कि इसके उत्तर के क्षेत्रों को दुर्गम माना जाता था।
- बता दें कि 1970 के दशक के अंत तक सियाचिन को लेकर पाकिस्तान की गतिविधियां काफी तेजी से बढ़ रही थीं। पाकिस्तान इस खास क्षेत्र में विदेशी पर्वतारोहण अभियानों को अनुमति देता था और इस क्षेत्र को अपने नियंत्रण में दिखाने की कोशिश कर रहा था। इसके बाद भारत को एक खुफिया जानकारी मिली कि पाक इस क्षेत्र में सैन्य कार्रवाई की योजना बना रहा है।
- चूकीं सियाचिन लद्दाख के उत्तरी भाग में स्थित है। यह भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच त्रिकोणीय बिंदु पर मौजूद है। अगर पाकिस्तान इस क्षेत्र पर अधिगग्रहण कर लेता तो भारत के लिए लद्दाख और काराकोरम इलाके में सैन्य गतिविधियां कठिन हो सकती थीं। बाद में खुफिया जानकारी के आधार पर भारत ने 13 अप्रैल 1984 को ‘ऑपरेशन मेघदूत’ की शुरुआत की।
- इसके तहत भारतीय सेना और वायुसेना ने अपने सैनिकों और सैन्य साजो-सामानों को चेतक, चीता, Mi-8 और Mi-17 हेलीकॉप्टरों के जरिए ग्लेशियर की बर्फीली ऊंचाइयों तक पहुंचाया। हालांकि, यहां पर ध्यान देने वाली बात है कि इस संभावित ऑपरेशन की तैयारी वर्षों पहले शुरू हो चुकी थी। ऑपरेशन के तहत भारत ने करीब 300 सैनिकों को रणनीतिक चोटियों पर उतारा। जब तक पाकिस्तान अपनी सेना भेजता भारतीय सेना पहले ही साल्तोरो रेंज की ऊंची पहाड़ियों—बिलाफॉन्ड ला, सियाला पास और ग्योंग ला—पर मोर्चा जमा चुकी थी। इसके बाद भारत को एक स्पष्ट सामरिक बढ़त मिली, जो अभी तक कायम है।
कारगिल- जब पाकिस्तान ने दूसरी बार किया दुस्साहस
- जानकार बताते हैं कि सियाचिन की लड़ाई ने ही कारगिल संघर्ष की नींव रखी थी। माना जाता है कि पाकिस्तान सियाचिन संघर्ष के बाद बैखला उठा था और बदला लेने की योजना बना रहा था। वर्ष 1999 में जनरल परवेज मुशर्रफ सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा करने के कई असफल प्रयासों के बाद ब्रिगेड कमांडर के रूप में अपनी हार का बदला लेना चाहते थे।
- बता दें कि कारगिल का युद्ध उस वक्त शुरू हुआ जब पाकिस्तानी सेना ने कश्मीरी आतंकवादियों के रूप में, नियंत्रण रेखा (एलओसी) की और भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ की। LoC विवादित कश्मीर क्षेत्र में भारत और पाकिस्तान के बीच एक सीमा के तौर पर काम करती है। पाकिस्तानी सेना ने रणनीति बनाकर इस रेखा को लांघने की कोशिश की थी और कई महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्जा करने की कोशिश की थी।
- बताया जाता है कि 1999 में भारतीय क्षेत्र में पहली घुसपैठ 3 मई को बटालिक में देखी गई थी। उसके बाद मई के दूसरे सप्ताह तक अलग-अलग क्षेत्रों में कई बार घुसपैठ देखी गई। इसके बाद यह स्पष्ट हो गया था कि यह एक बड़े पैमाने पर पाकिस्तान द्वारा की गई घुसपैठ थी। ये कोई स्थानीय घुसपैठ नहीं थी। इस घुसपैठ के दौरान पाकिस्तान का उद्देश्य कश्मीर और लद्दाख के बीच आपूर्ति लाइनों को काटना था।
कारगिल का युद्ध सबसे लंबे समय तक लड़ा गया
भारत और पाकिस्तान के बीच जितने भी युद्ध हुए उनमें सबसे लंबे समय तक चलने वाला युद्ध कारगिल का रहा। नेशनल वॉर मेमोरियल द्वारा साझा की गई जानकारी बताती है कि कारगिल का युद्ध करीब 3 महीने तक चला था। इस युद्ध की शुरुआत मई 1999 में हुई थी। इस युद्ध के दौरान 674 भारतीय सैनिक बलिदान हुए थे।
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