विरले शख्सियत थे गणेश शंकर विद्यार्थी.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
यह काम कोई विरला शख्सियत ही कर सकता था, जो गणेश शंकर विद्यार्थी ने किया। उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में हिस्सा लेने कराची (अब पाकिस्तान) जाना था, लेकिन तभी कानपुर सांप्रदायिक हिंसा की आग में झुलसने लगा। उन्होंने राजनीति को दूसरे पायदान पर रखा। पहले इंसानियत कहकर उन्होंने वहां जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया और लोगों की मदद में जुट गए। सौहार्द्र और अमन-चैन के लिए 25 मार्च 1931 को अपने प्राण तक दे दिए।
विद्यार्थी जी का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में हुआ था। उनके पिता जयनारायण श्रीवास्तव ग्वालियर में शिक्षक थे। हालांकि, गणेश शंकर जी ने अपनी कर्मस्थली कानपुर को बनाया। वह उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे और यहां फीलखाना के भवन संख्या 22/114 में प्रताप समाचार पत्र का संचालन करते रहे।
यह वो समाचार पत्र था, जो असहायों की आवाज बना और आजादी की लड़ाई में अहम् भूमिका निभाई। मैथिली शरण गुप्त ने विद्यार्थी जी के निधन पर कहा था कि 41 वर्ष की आयु में तो लोग शुरुआत करते हैैं, लेकिन उन्होंने तो सारे काम पूरे कर दिए। उनके समाचार पत्र में छह माह तक बलवंत नाम से भगत सिंह भी पत्रकारिता करते रहे।
तिलक नगर में रहने वाले विद्यार्थी जी के पौत्र एडवोकेट अशोक विद्यार्थी बताते हैैं कि उनका जन्म तो विद्यार्थी जी के शहीद होने के आठ साल बाद यानी 22 अप्रैल 1939 को हुआ, लेकिन पिता हरिशंकर विद्यार्थी से उनकी जिजीविषा की कहानियां सुनकर पला-बढ़ा। दादा जी के जाने के बाद भी प्रताप समाचार पत्र की राष्ट्रभक्ति को बहुत करीब से जिया है। आज भी उसकी कमी महसूस होती है।
पिता जी से सुने किस्से-कहानियों की हल्की-फुल्की स्मृति है कि यहां बालकृष्ण शर्मा नवीन, अशफाक उल्ला खां, बनारसीदास चतुर्वेदी, पुरुषोत्तम दास टंडन, सुमित्रानंदन पंत जैसे दिग्गज दादा जी के जाने के बाद भी आते-जाते रहे। प्रताप को पिता जी ने चलाया, लेकिन वित्तीय संकट के चलते 1965 में उसे बंद करना पड़ा।
कानपुर दंगा रिपोर्ट बनी पर नतीजा नहीं
24 मार्च 1931 को यहां हुई सांप्रदायिक हिंसा में इटावा बाजार, बंगाली मुहाल, नई सड़क में जमकर ङ्क्षहसा हुई। इसमें विद्यार्थी जी के बलिदान के बाद कांग्रेस ने 30 मार्च को डा. भगवानदास की अध्यक्षता में कमेटी को तथ्य जानने के लिए भेजा। रिपोर्ट भी आई, लेकिन अंग्रेज सरकार ने किसी पर कोई कार्रवाई नहीं की।
तब अंग्रेज अफसर खड़ा रहा विद्यार्थी जी के सामने
उन्होंने बताया कि अंग्रेजों ने प्रताप बंद कराने के लिए बड़ा दमन किया। फर्नीचर तक जब्त कर लिया, लेकिन बुलंद हौसला नहीं तोड़ पाए। पिता जी से सुना है कि दादा जी के कमरे में एक ही कुर्सी थी। उसी वक्त अंग्रेज अधिकारी आया पर दादा जी ने कुर्सी नहीं छोड़ी, क्योंकि वह पब्लिक थे जबकि अधिकारी पब्लिक सर्वेंट (जनता के नौकर)। उन्होंने कहा था कि जनता मालिक है, अधिकारी नहीं।
शास्त्री जी चाहते थे चमकता रहे प्रताप
अशोक विद्यार्थी के मुताबिक, प्रताप से पूर्व प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री को भी बहुत लगाव था। जब उन्हें वित्तीय संकट की स्थिति बताई तो वह बोले-इसे बंद नहीं होना चाहिए। हालांकि, वह कुछ कर नहीं पाए।
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