जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक पुख्ता नीति बनाया जाना चाहिए।
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत की विशाल जनसंख्या और इस कारण पैदा होने वाली समस्याएं अनेक कारणों से आजकल सुर्खियों में हैं। पिछले कुछ वर्षो से यह कहा जा रहा है कि संसाधनों की कमी को देखते हुए जनसंख्या नियंत्रण के संबंध में कानून बनाना चाहिए। समय समय पर इस संबंध में समाधान के उपायों पर भी चर्चा होती रही है, लेकिन जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को प्रभावी तरीके से अमल में लाने के बारे में अब तक गंभीरता से विचार नहीं किया गया है।
विजयादशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत द्वारा इस संबंध में चिंता जाहिर करने के बाद से यह मसला फिर सुर्खियों में है। वैसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसी वर्ष जनसंख्या दिवस (11 जुलाई) के अवसर पर जनसंख्या नीति का प्रारूप प्रस्तुत किया। हालांकि जनसंख्या को लेकर नीति की बात भी केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है, असम व कर्नाटक जैसे राज्य भी इस दिशा में कदम बढ़ा चुके हैं।
मगर आबादी के लिहाज से उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े राज्य होने और उसकी प्रजनन दर राष्ट्रीय औसत से ज्यादा होने जैसे कई कारणों से उत्तर प्रदेश जनसंख्या नियंत्रण, स्थिरीकरण और कल्याण विधेयक को लेकर सबसे ज्यादा प्रतिक्रियाएं आईं।
वैश्विक अनुभवों को ध्यान में रखते हुए देखें तो आबादी से जुड़े विषयों के सामने आने पर भारत जैसे विभिन्न संप्रदायों एवं मतावलंबियों वाले देश में इस पर बहस तेज हो गई है। खास विचारधारा के लोगों द्वारा सरकार की नीतियों के संदर्भ में आरोप लगाए जा रहे हैं। लेकिन यह समझना होगा कि किसी भी देश की जनसंख्या के आनुपातिक परिवर्तन विभिन्न बहसों को जन्म देते हैं।
उदाहरण के तौर पर यूरोप के सभी देश मूलत: राष्ट्र राज्य के सिद्धांत पर आधारित हैं, जहां यूरोपीय मूल के निवासी स्वयं की पहचान को राष्ट्र विशेष, उसके इतिहास, भाषा और संस्कृति से जोड़कर देखते हैं। हालांकि इस पहचान के आधार पर अपने देश के दरवाजे दूसरे लोगों के लिए उन्होंने कभी पूरी तरह से बंद नहीं किए और यही वजह रही कि वर्ष 1950 के बाद से विभिन्न कारणों से एशिया और अफ्रीका के विभिन्न देशों से बड़ी संख्या में लोगों ने यूरोप की तरफ रुख किया।
आप्रवासन के आरंभिक चरणों में यह संख्या यूरोपीय देशों की आबादी की तुलना में नगण्य थी, इसलिए यूरोपीय व्यवस्था में शामिल करने पर किसी तरह की चुनौती का अंदेशा सामने नहीं आया। लेकिन 21वीं सदी के आरंभ से ही यूरोप के मूल निवासियों की घटती जन्म दर और अन्य महाद्वीपों से होने वाले निरंतर आप्रवासन के कारण मूल निवासियों का अनुपात आबादी में कम होता गया।
प्रवासी मूल के लोगों ने सरकारी नीतियों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए यूरोप के नीति नियंताओं से कानून बनाने की मांग की। इस दौरान यूरोप में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों के बीच का बढ़ता असंतुलन सरकार के साथ ही समाज को भी प्रभावित करने लगा। इससे वहां का सामाजिक ताना-बाना प्रभावित हुआ और दोनों समूहों के बीच तनाव बढ़ने लगा।
उल्लेखनीय है कि यूरोप में रहने वाले मुस्लिमों की संख्या यूरोप की कुल आबादी का करीब 4.9 प्रतिशत है। वर्ष 2050 तक इसके 7.4 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है। यूरोप में मुस्लिम जनसंख्या में हुई वृद्धि ने एक विस्तृत बहस को जन्म दिया। विभिन्न शोधकर्ताओं और विचार समूहों की संबंधित रिपोर्ट के आधार पर ही बाद में यूरोप के विभिन्न देशों ने 21वीं सदी के प्रारंभ से ही मुस्लिमों के आप्रवासन को कुछ स्तरों पर वर्जित कर दिया।
यह सही है कि जनसंख्या के आनुपातिक परिवर्तन मात्र लोकतांत्रिक व्यवस्था और राज्यों को प्रभावित नहीं करते, बल्कि वे देश और समाज जहां एकतांत्रिक व्यवस्था का अनुपालन होता है, वहां भी जनसंख्या में होने वाले इन परिवर्तनों को महसूस किया जाता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश सकारात्मक और रचनात्मक तरीकों से अपनी आबादी के बीच एक स्वस्थ अनुपात को निश्चित करने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि सभी समुदायों की परस्पर भागीदारी के साथ समाज का विकास किया जा सके।
वहीं चीन जैसे उदाहरण भी हमारे समक्ष हैं, जहां पिछली सदी के आठवें दशक के दौरान ‘वन चाइल्ड पालिसी’ की नीति तय की गई। इसे सख्ती से लागू करने के लिए चीन में जबरन गर्भनिरोधक और नसबंदी जैसे उपायों को अमल में लाया गया। हालांकि चीन के कम्युनिस्ट शासन और राज्य की पाबंदियों के कारण इस बारे में ज्यादा जानकारी बाहर नहीं आ पाती है। फिर भी वहां से जो खबरें आती हैं उनसे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि चीन में रहने वाले अल्पसंख्यक उइगर मुस्लिमों को इस मामले में बीते करीब छह दशकों से अत्याचारों का सामना करना पड़ रहा है।
जनसंख्या नियंत्रण कानून को लेकर भारत में छिड़ी बहस मूलत: तीन आधारों पर टिकी है। पहला, दंडात्मक कार्रवाई की जरूरत क्यों? दूसरा, महिलाओं की प्रजनन दर और तीसरा उनकी शिक्षा संबंधी जागरूकता पर आधारित है। बहस के मुद्दों में सबसे ज्यादा चर्चित वे कारक हैं जिनके तहत दो से अधिक बच्चों वाले परिवारों को सरकारी नौकरियों, निकाय चुनाव एवं सरकारी लाभों से वंचित किए जाने की बात की जा रही है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है।
बिहार में नीतीश सरकार द्वारा वर्ष 2011 में निकाय चुनावों में ऐसे ही दंडात्मक प्रविधानों को लागू किया गया था। पूर्व में इस मामले के संदर्भ में इंदिरा गांधी की सरकार द्वारा भी परिवार नियोजन से संबंधित ‘हम दो हमारे दो’ अभियान चलाया गया था। इसका उद्ेदश्य जनसंख्या नियंत्रण और महिलाओं को स्वास्थ्य के संबंध में जागरूक करना था। किंतु यह अभियान निचले स्तरों तक नहीं पहुंच पाया और इसे अपेक्षित सफलता नहीं मिली। लिहाजा जनसंख्या नियंत्रण के संबंध में बनाए गए नए प्रारूप को देश के सभी वर्गो और मतों के लोगों पर समान रूप से लागू करने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
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