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हादसे बता कर नहीं आते, कहीं ये मानव निर्मित आपदा तो नहीं. - श्रीनारद मीडिया

हादसे बता कर नहीं आते, कहीं ये मानव निर्मित आपदा तो नहीं.

हादसे बता कर नहीं आते, कहीं ये मानव निर्मित आपदा तो नहीं.

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वक्त करता है परवरिश बरसों

हादसा एकदम नहीं होता।

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

से खाना बनाना नहीं आता है, मैं ही कुछ देर के लिए दुकान छोड़ कर घर जाता हूं। कांगड़ा जिले की मनोरम वादी बोह के तहत रुलेहड़ पंचायत में एक दुकानदार सुभाष ने तीन दिन पहले ऐसा कहा और घर की तरफ निकल गए। वहां उनका पुत्र शिव कुमार खाना बनाने पहले ही गया था। खाना तो नहीं बना, अचानक ऐसा लगा जैसे पहाड़ टूट कर आ गिरा हो।

बुधवार को 32 साल के शिव कुमार का शव मलबे से निकाला गया है। उसके पिता सुभाष अब तक लापता हैं। शिव कुमार का दो साल का अबोध पुत्र श्मशानघाट पर था, प्राकृतिक आपदा की समझ से दूर। घर के बाकी लोग इसलिए बचे, क्योंकि शिव कुमार की पत्नी को प्रसव के लिए डा. राजेंद्र प्रसाद मेडिकल कालेज टांडा में दाखिल करवाया था। मैक्लोडगंज से सटे भागसूनाग में जिस तरह पानी ने रौद्र रूप दिखाया और वाहन बहाए, वह रहस्य नहीं है। नदियों के किनारे बने घर जिस तरह लापता हुए हैं, वह भी छिपा नहीं है।

क्या ‘प्राकृतिक आपदा’ इसके लिए ठीक शब्द हैं? दरअसल, नदी, पहाड़ और पेड़ के मन में झांकना सबसे सरल कार्य है और त्रसदी यह है कि इसी से हर पक्ष बचता है। पक्ष कौन हैं? एक पक्ष है जिसे नदी के किनारे घर बनाना है, कुछ जमीन सरकार की कब्जानी है। एक पक्ष वह है जिसे नालों का रास्ता रोक कर अपनी ताकत दिखानी है।

एक पक्ष वह है जिसके सामने छोटी पहाड़ी नहरों, नालों पर कब्जा होता है और वह कई कारणों से चुप रहता है। एक पक्ष वह है जिसे नियोजन करना है, लेकिन फाइलें हमेशा ‘सब ठीक है’ कहती हैं। एक पक्ष को कोरोना काल में भी पहाड़ देखने हैं। एक पक्ष वह है जिसे जितने पेड़ विकास के लिए कटे, उतने पौधे रोपने की फुर्सत नहीं है।

भूकंप को प्राकृतिक आपदा में गिना जाए। चार अप्रैल, 1905 का भूकंप क्या कम था सिखाने को? एक शताब्दी पहले तो घर भी उतने नहीं रहे होंगे, भवन निर्माण शैली पर कंक्रीट का कब्जा उतना नहीं रहा होगा। पिछली शताब्दी क्यों, वर्ष 2000 के बाद की आपदाएं कम थीं सिखाने के लिए? हिमाचल प्रदेश को हर वर्ष एक से डेढ़ हजार करोड़ रुपये का नुकसान होता है। जनहानि अलग है और मवेशी कितने बहते हैं, यह अलग। वर्ष 2005 में सतलुज में आई बाढ़ पारछू झील से जोड़ी जाती है,

क्या उसे कोई भूल सकता है? फिर नदियों, नालों और खड्डों के किनारे घर बनाने वाले कौन हैं, जिन्हें यह आपदा प्राकृतिक प्रतीत होती है? वर्ष 2015 में 68, वर्ष 2016 में 24 और वर्ष 2017 में 289 लोग बाढ़ या भूस्खलन की जद में आए थे। बादल फटने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। गज खड्ड ने जिस प्रकार अपना रुख बदला और पुल को ध्वस्त कर पठानकोट-मंडी राष्ट्रीय राजमार्ग को बाधित किया है, वह केवल उदाहरण है। ऐसा क्यों हो कि नेशनल ग्रीन टिब्यूनल को ही अवैध खनन का हिसाब रखना पड़े? आखिर प्रदेश में अपने भी कुछ निगरानी प्रतिष्ठान हैं।

ऊना में स्वां या सोमभद्रा का दुख दिल्ली के बजाय, ऊना और शिमला में भी तो सुना जा सकता है। वर्ष 2017 का मंडी जिले में कोटरोपी हादसा कैसे भुलाया जा सकता है, जहां करीब 50 लोग बसों समेत मलबे में बह गए थे। सवाल यह है कि सीखा क्या? भला हो आइआइटी मंडी का जिसके विद्याíथयों ने पहाड़ पर सेंसर लगा दिए हैं। जब भी मलबा गिरने लगता है, चेतावनी मिल जाती है।

प्रदेश का आपदा प्रबंधन प्रस्ताव इतना प्रभावशाली था कि एक समय अन्य राज्यों से कहा गया था कि इससे सीख लें, इसे अपने यहां भी लागू करें। अब भी है जो बादल फटने, भूस्खलन होने और बर्फ को हटाने में दिखता है, लेकिन जब तक पूर्व आपदा प्रबंधन स्कूली पाठ्यक्रम के विषय के रूप में बचपन से नई पौध को नहीं समझाया जाएगा, तब तक कोई अपेक्षा करना बेमानी है।

खड्डों में उतर कर सेल्फी लेने वाले अब भी हैं, जबकि कुछ वर्ष पहले ही तेलंगाना के इंजीनियरिंग के विद्याíथयों का ब्यास नदी में बह जाना इतनी छोटी घटना भी नहीं थी। रावी, ब्यास, सतलुज और यमुना के किनारे से ऐसी कितनी सूचनाएं बरसात के मौसम में विचलित करती हैं, इसका सरकारी आंकड़ा भी होता है। लेकिन अब भी भीड़ देखी जा सकती है। एक सर्वेक्षण यह भी हो जाए कि कितने राजमार्ग कई कस्बों से जब गुजरते हैं तो नाराजमार्ग प्रतीत होते हैं। एक सर्वेक्षण यह भी हो कि कितने घरों की नींव के पत्थर पानी को रोक कर जमे हैं।

एक विभाग का नाम शहरी विकास मंत्रलय है। इसी के साथ नगर नियोजन भी नत्थी है। वास्तव में प्राकृतिक आपदाओं को अप्राकृतिक बनाने से बचना है, तो यह जरूरी है कि मतदाताओं को रिटेंशन पालिसी के लोभ से दूर रखें। पहले मानकों को ताक पर रख दें और बाद में उसके नियमन के लिए गुहार लगाएं, यह दलील प्रकृति नहीं सुनती। प्रकृति को कब्जे हटाने आते हैं।

शिमला हो या धर्मशाला, मैक्लोडगंज हो या मनाली, ढलानदार जमीन पर कंक्रीट का जंगल खड़ा करने से पहले यह अवश्य विचारना चाहिए कि लोग भूकंप से नहीं, मलबे में दब कर मरते हैं। याद रखें कि यह क्षेत्र संवेदनशील है। जिस शिमला के रिज मैदान में वर्षो से आई दरार के लिए रुड़की के इंजीनियर योजना बना रहे हैं, उसी शिमला की आपस में सटी इमारतों की तस्वीर डराती है।

हिमाचल प्रदेश वास्तव में हरियाली के लिए जाना जाता शांत प्रदेश है जिसके पर्यटन को बागवानी के साथ मिल कर खुशहाली के रास्ते खोलने हैं। हादसे बता कर नहीं आते, लेकिन ऐसा भी न हो कि कहीं हादसों के लिए हर पक्ष स्वयं जमीन तैयार कर रहा हो। काबिल अजमेरी का कहा याद आ रहा है :

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