स्वतंत्रता के बाद अध्यक्षों का चयन सर्वसम्मति से होता रहा है

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

स्वतंत्रता से पहले संसद को केंद्रीय विधानसभा कहा जाता था और इसके अध्यक्ष पद के लिये पहली बार चुनाव 24 अगस्त 1925 में हुआ था जब स्वराजवादी पार्टी के उम्मीदवार विट्ठलभाई जे. पटेल ने टी. रंगाचारियर के खिलाफ यह चुनाव जीता था। अध्यक्ष के रूप में चुने जाने वाले पहले गैर-सरकारी सदस्य विट्ठलभाई जे. पटेल ने दो वोटों के मामूली अंतर से पहला चुनाव जीता।

पटेल को 58 वोट मिले थे, जबकि टी. रंगाचारियार को 56 वोट मिले थे। केन्द्रीय विधान सभा के अध्यक्ष के पद के लिए 1925 से 1946 के बीच छह बार चुनाव हुए। विट्ठलभाई पटेल अपना पहला कार्यकाल पूरा होने के बाद 20 जनवरी 1927 को सर्वसम्मति से पुनः इस पद पर निर्वाचित हुए। महात्मा गांधी द्वारा सविनय अवज्ञा के आह्वान के बाद पटेल ने 28 अप्रैल, 1930 को पद छोड़ दिया। सर मुहम्मद याकूब (78 वोट) ने नौ जुलाई, 1930 को नंद लाल (22 वोट) के खिलाफ अध्यक्ष का चुनाव जीता। याकूब तीसरी विधानसभा के आखिरी सत्र के लिए इस पद पर रहे।

चौथी विधानसभा में सर इब्राहिम रहीमतुल्ला (76 वोट) ने हरि सिंह गौर के खिलाफ अध्यक्ष का चुनाव जीता, जिन्हें 36 वोट मिले। स्वास्थ्य कारणों से 7 मार्च 1933 को रहीमतुल्ला ने इस्तीफा दे दिया और 14 मार्च 1933 को सर्वसम्मति से षणमुखम चेट्टी उनके स्थान पर नियुक्त हुए। सर अब्दुर रहीम को 24 जनवरी 1935 को पांचवीं विधानसभा का अध्यक्ष चुना गया। रहीम को 70 वोट मिले थे, जबकि टी.ए.के. शेरवानी को 62 सदस्यों का समर्थन प्राप्त था। रहीम ने 10 साल से अधिक समय तक उच्च पद संभाला क्योंकि पांचवीं विधानसभा का कार्यकाल समय-समय पर प्रस्तावित संवैधानिक परिवर्तनों और बाद में द्वितीय विश्व युद्ध के कारण बढ़ाया गया था।

केंद्रीय विधानसभा के अध्यक्ष पद के लिए अंतिम मुकाबला 24 जनवरी, 1946 को हुआ था, जब कांग्रेस नेता जी.वी. मावलंकर ने कावसजी जहांगीर के खिलाफ तीन मतों के अंतर से चुनाव जीता था। मावलंकर को 66 मत मिले थे, जबकि जहांगीर को 63 मत मिले थे। इसके बाद मावलंकर को संविधान सभा और अंतरिम संसद का अध्यक्ष नियुक्त किया गया, जो 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने के बाद अस्तित्व में आई। मावलंकर 17 अप्रैल, 1952 तक अंतरिम संसद के अध्यक्ष बने रहे, जब पहले आम चुनावों के बाद लोकसभा और राज्यसभा का गठन किया गया।

स्वतंत्रता के बाद से लोकसभा अध्यक्षों का चयन सर्वसम्मति से किया जाता रहा है।

कैसे होगा लोकसभा स्पीकर का चुनाव?

आम चुनाव होने और नई सरकार के गठन के बाद नए सदस्यों को शपथ दिलाने के लिए प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति की जाती है. प्रोटेम स्पीकर आमतौर पर लोकसभा के सबसे सीनियर सांसद को बनाया जाता है.

प्रोटेम स्पीकर की देखरेख में ही लोकसभा स्पीकर का चुनाव होता है. आम चुनाव के बाद सरकार और विपक्ष मिलकर स्पीकर के लिए उम्मीदवार का नाम घोषित करते हैं. इसके बाद प्रधानमंत्री या संसदीय कार्य मंत्री उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव करते हैं. बताया जा रहा है कि 26 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा स्पीकर के उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव पेश करेंगे.

अगर एक से ज्यादा उम्मीदवार हैं तो फिर बारी-बारी से प्रस्ताव रखा जाता है और जरूरत पड़ने पर वोटिंग भी कराई जाती है. जिसके नाम का प्रस्ताव मंजूर होता है, उसे स्पीकर चुना जाता है.

स्पीकर का कार्यकाल उनके चुनाव की तारीख से लेकर अगली लोकसभा की पहली बैठक के ठीक पहले तक होता है. यानी, जब तक 18वीं लोकसभा की पहली बैठक नहीं होती, तब तक ओम बिरला ही स्पीकर रहेंगे.

डिप्टी स्पीकर का चुनाव कैसे होता है?

स्पीकर के चुनाव की तारीख राष्ट्रपति तय करते हैं, जबकि डिप्टी स्पीकर के चुनाव की तारीख स्पीकर की ओर से तय की जाती है.

डिप्टी स्पीकर का चुनाव भी वैसे ही होता है, जैसे स्पीकर का चुनाव होता है. अगर एक ही उम्मीदवार है तो सदन में उसका प्रस्ताव रखा जाता है और पास किया जाता है. अगर एक से ज्यादा उम्मीदवार हैं तो फिर वोटिंग कराई जाती है.

स्पीकर और डिप्टी स्पीकर वही बन सकता है जो लोकसभा का सदस्य हो. दोनों का ही कार्यकाल पांच साल का होता है.

लोकसभा स्पीकर की पावर क्या?

लोकसभा स्पीकर का पद संवैधानिक पद होता है. सदन का सबसे प्रमुख व्यक्ति स्पीकर ही होता है. सदन में स्पीकर की मंजूरी के बिना कुछ भी नहीं हो सकता.

स्पीकर को सदन की मर्यादा और व्यवस्था बनाए रखनी होती है. अगर ऐसा नहीं होता है तो वो सदन को स्थगित कर सकते हैं या फिर निलंबित कर सकते हैं. इतना ही नहीं, मर्यादा का उल्लंघन करने वाले सांसदों को भी स्पीकर निलंबित कर सकते हैं.

पाला बदलने वाले सदस्यों की अयोग्यता पर भी स्पीकर दल-बदल कानून के तहत फैसला करते हैं. हालांकि, 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में साफ कर दिया था कि स्पीकर के फैसले को अदालत में चुनौती दी जा सकती है.

हालांकि, इसके बावजूद दल-बदल के मामले में स्पीकर के पास अहम पावर होती हैं. पिछले साल महाराष्ट्र के स्पीकर राहुल नार्वेकर पर विधायकों की अयोग्यता के मामले पर सुनवाई करने के दौरान पक्षपाती रवैया अपनाने का आरोप लगा था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ठाकरे गुट से अलग होकर आए एकनाथ शिंदे और उनके विधायकों के खिलाफ दल-बदल विरोधी कार्यवाही को सुनने और अंतिम फैसला लेने का मौका दिया था.

आजादी के बाद से अब तक लोकसभा स्पीकर का पद सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के पास ही जाता है, जबकि डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को मिलता है. हालांकि, डिप्टी स्पीकर के पद की बाध्यता नहीं है. पिछली लोकसभा में डिप्टी स्पीकर का पद खाली रहा था.

 

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