संगठनात्मक कौशल और सृजनात्मकता के अनुपम चित्र थे अक्षयवर दीक्षित
सीवान से जुड़े भोजपुरी साहित्य के इस महान साधक को क्या हो सकती है जयंती पर सच्ची श्रद्धांजलि? यह एक बड़ा सवाल ज़रूर है!
✍️डॉक्टर गणेश दत्त पाठक
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
सीवान शहर का निराला नगर। कई बार आना जाना होता था। वहीं एक गली में स्थित ‘भोजपुरी भवन’ देखकर कई बार कदम ठिठके। एक बार उत्सुकतावश मैंने एक सज्जन से पूछा भी कि क्या यह कोई खास भवन है? सज्जन ने बहुत ही आश्चर्यजनक तरीके से मुझे देखते हुए बोला ये तो अक्षयवर दीक्षित जी का मकान है, आप नहीं जानते? ये सत्य है कि उस समय तक मैं उन्हें बस एक भोजपुरी लेखक के तौर पर ही जानता था। मैं हूं सीवान से ही लेकिन सीवान में 2015 से ही रह रहा हूं और यहां की सांस्कृतिक गतिविधियों में 2022 से ही भागीदारी निभा रहा हूं।
भोजपुरी विकास मंडल द्वारा 2023 में कन्हैया लाल जिला पुस्तकालय पर आयोजित अक्षयवर दीक्षित जी के जयंती पर आयोजित समारोह में युगुल किशोर दुबे जी और मार्कण्डेय जी ने आमंत्रित किया। अक्षयवर दीक्षित जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में समझने का सुअवसर मिला। आज उनकी जयंती पर मेरे पड़ोसी वरिष्ठ साहित्यकार मनोज वर्मा जी ने जब अक्षयवर दीक्षित जी के प्रथम पुण्यतिथि पर प्रकाशित स्मारिका स्मरणांजलि पढ़ने के लिए दी तो उसका एक एक शब्द अक्षयवर दीक्षित जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के जहां हर एक आयाम को उद्घाटित कर रहा था वहीं उनकी मधुर स्मृतियों को नमन करते श्रद्धा के पुष्प भी स्वयं अर्पित हो रहे थे। बार बार सवाल मन में उठ रहा था कि अपनी संगठनात्मक कौशल और सृजनात्मकता से भोजपुरी की महान सेवा करने वाले इस सच्चे सेवक के लिए सच्ची श्रद्धांजलि क्या हो सकती है?
अक्षयवर दीक्षित जी का जन्म 02 जुलाई, 1930 में गोपालगंज जिला के भोरे थाना के हुस्सेपुर के ग्राम दीक्षीतौली में उस समय हुआ था, जब देश फिरंगी दासता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। बचपन और किशोरावस्था में उन्होंने देश में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन के तमाम प्रयासों को देखा। पीड़ित मानवता के त्रहिमाम ने उन्हें बेहद संवेदनशील बना दिया। इसी संवेदनशीलता ने उनके सृजनात्मक प्रतिभा को निखारा।
कालांतर में 1857 की जंगे आजादी से तकरीबन 100 वर्ष पूर्व के 1765 के हुस्सेपुर के राजा फतेहबहादुर शाही के फिरंगियों से संघर्ष की कहानी और कांपती रही कंपनी लिखी तो पुस्तक के एक एक शब्द जो व्यथा उन्होंने बचपन में झेली थी उसको पूरे ऊर्जा के साथ उजागर करते दिखाई पड़ते हैं। उन्होंने इतिहास के उस पन्ने को झकझोरा जिसे हमारे तथाकथित इतिहासकारों ने गुमनामी में रहने देने का मंसूबा ही पाल रखा था।
अक्षयवर दीक्षित जी पेशे से शिक्षक रहे थे।1954 में वे पहले वी एम हाईस्कूल, सीवान में संस्कृत के अस्थाई शिक्षक रहे थे। कालांतर में 1955 में वे डीएवी बहुउद्देशीय विद्यालय सीवान में हिंदी और संस्कृत के स्थाई शिक्षक नियुक्त हुए और 1988 तक अपनी सेवा देते रहे। शिक्षक के तौर पर अपने विद्यार्थियों जो अभी प्रशासनिक और राजनीतिक स्तर पर बड़े दायित्यों का निर्वहन कर रहे हैं, के लिए आदर्श तुल्य रहे तो उनके साथ शिक्षक का नाता एक नैसर्गिक अंदाज का रहा। जहां विद्यार्थियों के प्रोत्साहन और उत्साहवर्धन का एक प्राकृतिक अंदाज उनकी विशेषता थी।
वे आज के व्यवसायिक माहौल के शिक्षक तो बिल्कुल नहीं थे। विद्यार्थियों के सहज सुलभ मार्गदर्शन के वे मिसाल थे। जब भी बड़े बड़े पदों पर आसीन विद्यार्थियों से वे कभी मिल भी लेते थे तो उन विद्यार्थियों को भगवत प्राप्ति का अहसास होता था। क्या वर्तमान शैक्षणिक माहौल के शिक्षक उस नैसर्गिक आस्था की उम्मीद भी कर सकते हैं?
अक्षयवर दीक्षित जी का संगठनात्मक कौशल अदभुत था। सांस्कृतिक, साहित्यिक समागमों के आयोजन में उनको महारत हासिल था। सीवान में 1977 में आयोजित अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन का तीसरा आयोजन अपनी ऐतिहासिक सफलता के साथ संपन्न हुआ था। इस आयोजन के स्वागतमंत्री के तौर पर अक्षयवर दीक्षित जी ने अपने अद्भुत संगठनात्मक कौशल का परिचय दिया था।
साथ ही, वे 1993 में आयोजितअखिल भारतीय भोजपुरी भाषा सम्मेलन के रानीगंज अधिवेशन के अध्यक्ष, 1987 में आयोजित गोपालगंज जिला भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के महम्मदपुर अधिवेशन के अध्यक्ष, 1981 के सिवान जिला हिंदी साहित्य सम्मेलन, सिसवन अधिवेशन के अध्यक्ष सहित कई अन्य आयोजनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर अक्षयवर दीक्षित जी ने सांस्कृतिक और साहित्यिक संचेतना के संचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
ये आयोजन विचार मंथन और सांस्कृतिक संवाद को बढ़ावा देते थे। उनका निर्मल और सादगीपूर्ण चरित्र,उनके व्यक्तित्व का माधुर्य उनके संगठनात्मक कौशल को अपार ऊर्जा से लैस कर जाता था।
अक्षयवर दीक्षित जी ने भोजपुरी, हिंदी और संस्कृत में अपनी सृजनात्मक क्षमता से एक से बढ़कर एक रचनाएं तैयार की। भोजपुरी कहानी संग्रह सतहवा, भोजपुरी निबंध, हिंदी निबंध संग्रह विमर्श, हिंदी ऐतिहासिक उपन्यास, और कंपनी कांपती रही, भोजपुरी के सपूत, सीमा संस्कृत सौरभम, हिंदी निबंध संग्रह श्रद्धांजलि आदि उनकी प्रमुख रचनाएं थी। आगमन, युगसंदेश, नवचेतना, भोजपुरी विश्व आदि पत्रिकाओं का संपादन भी उन्होंने किया।
कई अवसरों पर स्मारिकाओं को भी तैयार किया। उनकी साहित्यिक साधना पीड़ित मानवता के दर्द को उजागर करती थी। उनके शब्द ह्रदय से संवाद करते दिखते हैं। उनकी भाषा पाठक के साथ एक माधुर्यपूर्ण रिश्ते को कायम करती जाती है। उनकी सृजनात्मक प्रतिभा ने समाज में सकारात्मकता के संचार की भरपूर कोशिश की। अपनी पुस्तकों को उपहार के तौर पर देकर, दूसरे अन्य साहित्य साधकों की रचनाओं को अपना आशीष देकर साहित्य के सृजन में उनका योगदान अमूल्य रहा है।
अक्षयवर दीक्षित जी ने एक कुशल और समर्पित शिक्षक, एक प्रभावी संगठनकर्ता, एक संवेदनशील लेखक के तौर पर ताजिंदगी समाज को एक नई दिशा दी। भोजपुरी आंदोलन में भी उन्होंने एक सशक्त ऊर्जा का संचार किया।
हकीकत यह भी है कि अभी तक भोजपुरी संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल नहीं हो पाई है। ऐसे में जब अक्षयवर दीक्षित जैसे भोजपुरी के योद्धाओं की आत्मा तो सिसकती ही होगी। सवाल जरूर उठता है कि अक्षयवर दीक्षित जी को उनकी जयंती और पुण्यतिथि के अवसर पर उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि किस तरह दी जा सकती है?
इस सवाल के पहले एक तथ्य को स्वीकार जरूर कर लेना चाहिए कि भले ही देश में राजनीतिक स्तर पर उदासीनता के चलते भोजपुरी भारतीय संविधान के आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हो पाई हो लेकिन फिर भी भोजपुरी का विशाल बाजार (आईपीएल में हिंदी कमेंट्री, बड़ी कंपनियों के विज्ञापन भी भोजपुरी में) और नवीन तकनीक (गूगल ट्रांसलेट में अब भोजपुरी भी)के बूते भोजपुरी अपने प्रतिष्ठित स्थान को हासिल कर ही लेगी।
ऐसे में अक्षयवर दीक्षित जैसे भोजपुरी के महान सेवकों के लिए सच्ची श्रद्धांजलि यहीं हो सकती है कि हम अपनी सृजनात्मक प्रतिभा का उपयोग करते रहें और सांस्कृतिक आयोजनों अधिवेशनों के नियमित अंतराल पर आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाते रहें। अक्षयवर दीक्षित जी जैसे महान साहित्य साधकों के लिए श्रद्धांजलि समाज में सकारात्मकता, सृजनात्मकता और प्रेरणा का संचार ही हो सकती है।
अक्षयवर दीक्षित जी की तस्वीर स्मारिका स्मरणांजलि से साभार।
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